जाने माने कवि और नारी संवेदना को अपने लेखन का विषय बनाने वाले पवन करण ने एक जोखिम भरा काम किया है। उन्होंने मुगलकाल की सौ स्त्रियों पर गहन शोध करने के बाद उनके दैहिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक शोषण को केंद्र में रखकर कविताएं लिखी हैं। उनके इस काव्य-संग्रह का शीर्षक है—स्त्री मुगल। जब भारत के इतिहास लेखन में मुगलकालीन इतिहास को क्रूर और सांप्रदायिक सिद्ध करने की आंधी चल रही हो और सिर्फ प्राचीन इतिहास को ही स्वर्ण युग की संज्ञा दी जा रही हो तब कोई भी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष कवि और आलोचक इस सवाल से परेशान हो जाता है कि इस संकलन को किस तरह से देखा जाए। हालांकि जब हम प्रेमचंद के इस कथन का स्मरण करते हैं कि—क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न की जाए, तो एक हद तक संशय दूर होने लगता है।

जब हम इस बात से परिचित होते हैं कि पवन करण ने प्राचीन भारतीय साहित्य से खोजकर दो खंडों में स्त्री शतक नामक ग्रंथ की रचना भी की है, जिसमें दो सौ स्त्रियों के परिचय, पीड़ा और प्रतिरोध का अद्यतन आख्यान है, तब यह संशय भी मिटने लगता है कि वे किसी पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। जैसा कि काव्य संकलन का स्वरूप होता है, उस लिहाज से कवि ने इस संग्रह की कोई भूमिका तो नहीं लिखी है लेकिन फ्लैप मैटर जिसे कवि का ही कथन कहा जा सकता है वह इन दो सौ वर्षों के नारीवादी इतिहास लेखन को कुछ इस प्रकार प्रकट करता हैः—
“दो सौ से अधिक वर्षों के मुगलकाल में मुगल स्त्रियों ने मुगल बादशाहों, शहज़ादों, सेनापतियों और सूबेदारों के साथ उत्तर और दक्षिण की कठिनतम यात्राएँ कीं। किलों के साथ-साथ उनकी जीवन यात्रा शिविरों में शहज़ादियों और शहज़ादों को जनते, उनके निकाह, विवाह होते देखते बीत गया। कोई मुगल बेगम अपनी छाप छोड़ने में सफल हो सकी तो कई बेगमें बादशाहों के हरम में खोकर रह गईं। कोई शहजादी अपने मन की कर सकी तो कोई शहजादी मात्र सत्ता के सूत्र छूने में कामयाब हो सकी। मगर किसी मुगल स्त्री को सुल्तान रजिया की तरह हिंदुस्तान की बादशाहत नहीं मिली। …मुगल स्त्रियों की बिजली सी कौंध से हमारा परिचय इस संग्रह की कविताओं में होता है। मुगल स्त्रियों की पीड़ा, रुदन, तड़प, बेचैनी और समझ जो मुगल इतिहास से एक हद तक गायब है।”
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मुगल इतिहास को देखने की कोशिश

निश्चित तौर पर पवन करण ने स्त्री मुगल इतिहास को काव्य संवेदना के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसे हम उनके स्त्री शतक की अगली कड़ी के रूप में देख सकते हैं लेकिन स्त्रियों के माध्यम से मुगल इतिहास को देखने की कोशिशें हुई हैं और इस बारे में इतिहासकार हेरम्ब चतुर्वेदी की पुस्तक ‘दास्तान मुगल महिलाओं की’ राजकमल के ही सह-प्रकाशन लोकभारती से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में भी चंगेज खान की पुत्रवधू ईबुस्कुन से लेकर बाबर की नानी ईशान दौलत बेगम, अकबर की मां हमीदा बानो, हर्रम बेगम और अनारकली की कहानी है। हालाँकि इस बात को हेरम्ब चतुर्वेदी भी स्वीकार करते हैं कि मुगल शासकों की महिलाओं को पुरुष प्रधान समाज के इतिहासकारों ने खारिज कर दिया है। वे कहते हैं कि जिस महिला ने हुमायूं की सत्ता को दोबारा स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई और जिसे लोग वली नियामत कहते थे उसे अबुल फजल जैसे इतिहासकार ने काफिर नियामत लिखा है।

लेकिन पुरुष प्रधान समाज और उसके इतिहासकारों की इस कमी को अगर एक तरफ हेरम्ब चतुर्वेदी जैसे इतिहाकार उजागर कर रहे हैं तो पवन करण जैसे संवेदनशील कवि कर रहे हैं। पवन करण के इस संग्रह में पहली कविता खानज़ादा बेगम पर है तो अंतिम कविता साहिब-ए-महल और मलिका-ए- जम़ानी (मुहम्मद शाह की बेगमें) पर है। खानज़ादा बेगम तैमूरी शहजादी थी और बाबर की बड़ी बहन थी। उसे जंग में पराजित बाबर की जान बचाने के लिए उज्बेक सुल्तान मोहम्मद शैबानी खान से विवाह करना पड़ा था। कविता में खानज़ादा बोलती है—

मौत के कुछ फासले पर खड़े भाई की आंखें 
मेरे आगे झुकी थीं और भाई के लिए खुद को
लाश में बदलने को तैयार मेरी आंखें भाई के आगे
....
जिसे किसी ने नहीं सुना था वह
दुश्मन ख़ेमे की ओर बढ़ते हुए कहा मैंने खुद से
औरतें जंग का हिस्सा न होते हुए भी
जंग का हिस्सा होती हैं खानज़ादा
....
हारे हुए खेमे की औरत के पास 
जीते हुए खेमे में
जिंदगी भर हारने के अलावा कुछ नहीं बचता

ध्यान से देखिए तो यह कहानी स्त्री मुगल की भी है, जंग की भी है और सभ्यता के पुरुष प्रधान इतिहास की भी है। क्योंकि युद्ध सिर्फ धरती को जीतने और उस पर शासन करने के लिए ही नहीं लड़ा जाता, वह स्त्री देह पर भी लड़ा जाता है।
लेकिन स्त्रियां और मुगल स्त्रियां सिर्फ लुटने पिटने का सामान ही नहीं हैं वे योद्धाओं, आक्रांताओं और शासकों की प्रेरणाएं भी हैं। बाबर की नानी जिसने बाबर को हिंदुस्तान फतह करने के लिए अपने हाथों से तलवार दी थी वह ईशान दौलत बेगम शीर्षक कविता में कहती हैः----

मुझसे वादा करो बाबर तुम्हें हिंदुस्तान का 
बादशाह देखने की मेरी ख्वाहिश 
तुम जरूर पूरी करोगे, वादा करो
तुम जब तक हिंदुस्तान को फत़ह नहीं कर लेते
मेरी दी इस तलवार को म्यान में नहीं रखोगे

लेकिन अगली कविता में बाबर की मां कुलतुग निग़ार खानम उसे फतह के बाद तलवार को रखकर मोहब्बत से हिंदुस्तान का दिल जीतने की सलाह देती हैः---

हिंदुस्तान को तो हमने हासिल कर लिया बाबर
मगर अभी हमारा हिंदुस्तानियों के दिलों को
अपना बनाना बाकी है और हम जानते हैं
कि इसके लिए हमें तलवार की नहीं
ईमानदार मुहब्बत की जरूरत होगी

मुगल-राजपूत संबंध

तारा जोधपुर के राजा गजसिंह के बेटे अमर सिंह की बेटी थी जिस पर मीर बख्श सादिक खां का बेटा गलत निगाह रखता था। बादशाह शाहजहां के सामने अमर सिंह ने उसकी हत्या कर दी थी और बाद में खुद भी मारे गए। इस कविता में मुगलों और राजपूतों के बीच रोटी-बेटी के रिश्तों का आधार रजामंदी और पारस्परिक सम्मान को बताया गया है। इससे धर्म की दीवारें गिरती हैं और मुल्क में सांप्रदायिक सद्भाव और एकता कायम होती है। वह सिलसिला अवाम तक जाता है। लेकिन जब यह रिश्ता जोर जबरदस्ती के आधार पर कायम किया जाता है तो उसमें हिंसा और प्रतिकार जन्म लेते हैं। चाहे प्रतिकार करने वाला कितना भी कमजोर क्यों न हो। संभवतः भारतीय इतिहास की यही पीड़ा उसे मध्यकाल से आजतक परेशान किए हुए है। आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता का कारण यह भी है। तारा कविता एक किस्म से स्त्री मुगल के भीतर जड़ी एक हिंदू स्त्री की पीड़ा है।

जहांआरा बेगम पर केंद्रित एक कविता देहांतर के भाव की कल्पना पर आधारित है। जहांआरा शाहजहां की बड़ी बेटी थी। कविता पुरुष प्रधान समाज में बड़े बेटे को साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में देखे जाने की प्रथा को चुनौती देती है और पूछती है कि अगर वह औरत की जगह मर्द होती तो उसकी हिंदुस्तान के तख्त की दावेदारी होती। कविता की कल्पना आगे बढ़ते हुए कहती है कि तब तो दारा शिकोह को सल्तनत के काम में घसीटा नहीं जाता और वह पढ़ाई लिखाई करता और औरंगजेब को दुनिया फतह का काम दिया जाता।

मुगल साम्राज्य के उत्थान और पतन की पीड़ा को सहती और देखती स्त्रियों के इस आख्यान में महज स्त्रियों की पीड़ा, रुदन, तड़प और बेचैनी ही नहीं है। इसमें स्त्रियों के स्वप्न भी हैं, प्रेम भी है, उपदेश, सीख और उनकी रचनाओं की चमक भी है।

इतिहास ने हर किसी स्त्री को रजिया सुल्तान बनने का अवसर नहीं देता और न ही मध्ययुगीन इतिहास में मानवाधिकारों की कोई अवधारणा थी जहां किसी को दंड दिए जाने की भी एक मर्यादा होती है। अगर ऐसा होता तो चंदेरी और रायसीन के राजा की बेटी पद्मावती को हिंदुस्तान के बादशाह के हुक्म से सड़कों पर नचाया न जाता और वो यह न कहती कि मुझे नहीं मेरी शक्ल में तुम्हारे न्याय को नचाया जा रहा है।

इस संग्रह को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कविता—मुझे कदम-कदम पर---याद आती है जिसमें वे कहते हैं-

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है
हर इक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य  की पीड़ा है

निश्चित तौर इस संग्रह के हर स्त्री पात्र की वाणी में एक महाकाव्य की पीड़ा है जिसे कवि ने चंद शब्दों में ही व्यक्त किया है।
इस काव्य- संग्रह को पढ़ते हुए एक सवाल जो बहुत तेजी से कौंधता है कि स्त्री मुगल की पीड़ा, रुदन और बेचैनी के लिए धन वैभव और राजसत्ता की हवस या मूल्यहीन राजनीति ही जिम्मेदार है या इसमें धर्म यानी इस्लाम की कोई भूमिका है? क्या इस्लाम ने उन्हें क्रूरता से रोकने की कोई कोशिश की या फिर वह उन्हें उकसा रहा था या हाथ पर हाथ बांधे खड़ा था? इतिहास की सेक्यूलर व्याख्या तो यही कहती है कि जिस तरह मंदिरों को गिराए जाने के पीछे का मकसद वहां के प्रतिरोध को दबाना और संपत्ति को लूटना था उसी तरह पुरुष वासना के तहत स्त्रियों को हरम में रखने और उन्हें ब्लैकमेल करके अपनी दासी और बेगम बनाने का काम किया जाता था। यह पुरुष-प्रधान समाज की क्रूरता है या इस्लाम के साथ उभरे साम्राज्य विस्तार के नए अभियान का रिवाज है? 
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धर्म और हिंसा व नफरत 

यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि अपनी सत्ता को इस्लाम से वैधता दिलाने वाले बादशाह इस्लाम में बताए गए स्त्रियों के प्रति सम्मान भाव के आग्रह को क्यों नहीं मानते थे? क्या राजनीति धर्म के क्रूर चरित्र को ही अपनाती है या उसकी क्रूर व्याख्या करती है और उसके दयाभाव को भूल जाती है? अगर ऐसा न होता तो धर्म का प्रचार करने वाले या धर्म के नाम पर विजय करने वाले शासक इतने क्रूर न होते। यह बात जितनी इस्लाम के बारे में सही कही जा सकती है उतनी ही ईसाइयत और दूसरे धर्मों के बारे में भी। जेहाद और क्रूसेड इसके प्रमाण हैं। यूरोप के इतिहास में धर्म के आधार पर युद्ध का विरोध करने वाले क्वेकर्स की दशा किसी से छुपी नहीं है कि उन्हें किस तरह से यातना दी जाती थी। आज दुनिया के बौद्ध देशों में हिंसा और नफरत का सहारा लेने के लिए किस तरह से धर्म का सहारा लिया जा रहा है। 

आजकल इस्लामी नारीवाद का सारा विचार इस बात पर टिका है कि वास्तव में कुरान स्त्रियों को पुरुषों के बराबर मानता है इसलिए स्त्रियों को अपने अधिकार इस्लामी कानूनों के भीतर ही ढूंढने चाहिए। वे लोग मानते हैं कि इस्लाम के भीतर आधुनिक संदर्भ में लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय की बड़ी गुंजाइश है। इसके लिए वे इस्लाम में बताई गई इज्तेहाद या स्वतंत्र तर्कशीलता की अवधारणा का भी हवाला देते हैं। ऐसा मानने वालों में पाकिस्तान की रिफत हसन, मोरक्को की फातिमा मेरनिसा, अमीना वहूद और अस्मा बरलास हैं। भारत में वामपंथी विचार से अपनी यात्रा शुरू करने वाले असगर अली इंजीनियर भी वैसा भी मानते थे। इस्लामी नारीवादियों का कहना है कि जेंडर के सवाल को वर्ग, नस्ल, जातीयता के लिहाज से भी देखा जाना चाहिए।
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यहां सवाल यह भी उठता है कि हिंसा और रक्तपात न करने वाली स्त्रियों ने कला, साहित्य, सौंदर्य और प्रेम के क्षेत्र में मानव इतिहास में जो योगदान दिया क्या हम उसे खारिज कर सकते हैं? क्या मानव इतिहास सिर्फ युद्धों का इतिहास है और उसमें रचना का कोई स्थान नहीं है? प्राचीन भारत में स्त्रियों की बौद्धिक और सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को लेकर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। दीप्ति प्रिया ने ‘हर स्टोरीज’ लिखी है तो राधावल्लभ त्रिपाठी ने ‘संस्कृत साहित्य में स्त्री विमर्श’ की रचना की है। आंबेडकर की रचना हिंदू नारी का उत्थान और पतन भी इसी की एक कड़ी है। धर्मवीर ने ‘थेरीगाथा की स्त्रियां’ नामक रचना में बौद्धकालीन स्त्रियों की दशा का वर्णन किया है।

इतिहास के नेपथ्य में अदृश्य कर दी गई स्त्रियों की जगह तलाशने का काम महत्त्वपूर्ण है और नए दौर में वह किसी के रोके रुकने वाला नहीं है। पवन करण अपनी काव्य प्रतिभा के माध्यम से निहायत सेक्यूलर भाव से यह काम कर रहे हैं इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

(स्त्री मुगल, पवन करण, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, प्रकाशन वर्ष-2023, पृष्ठ-214, मूल्य-299.)