इरशाद खान सिकंदर (8 अगस्त 1983- 18 मई 2025) को बहुत छोटी जिंदगी मिली। लगभग बयालीस साल की उम्र में ये शख्स इस दुनिया से विदा हो गया। लेकिन इस छोटी सी जिंदगी में उन्होंने एक ऐसे साहित्यिक क्षितिज को उद्घाटित कर दिया जहां हिंदी- उर्दू- भोजपुरी का संगम होता है। इरशाद ने उर्दू के अलावा हिंदी और भोजपुरी में शायरी भी की। उनके लेखन में एक ऐसी सहजता है जहां तय करना मुश्किल है कि किसे उर्दू कहा जाए और किसे हिंदी। वो दोनों भाषाओं के ऐसे लेखक थे जिसमें उर्दू और हिंदी एकमेव हैं। इरशाद ने आम बोलचाल की भाषा में लिखा। चूंकि वे मूलत: उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर के रहने वाले थे (हालाँकि पिछले कुछ बरसों से लगातार दिल्ली में ही रह रहे थे) इसलिए भोजपुरी के भी थे। इस भाषा में भी उन्होंने शायरी की। गजलें भी लिखीं और नज्में भी। और उनकी भोजपुरी में कहीं वो तत्व नहीं है जो आजकल भोजपुरी गानों के कैसेटो में या भोजपुरी फ़िल्मों में सुनने को मिलते हैं। एक सहज और सुरुचिपूर्व भोजपुरी। इरशाद के रहन सहन में और लेखन में भी देसीपन था। उन्होंने कहानियां भी लिखीं और एक उपन्यास भी लिख रहे थे। फिलहाल यहां इरशाद के नाटक और रंगमंच में योगदान को ही खास तौर पर रेखांकित किया जा रहा है।

इरशाद ने तीन नाटक लिखे- `जॉन एलिया का जिन्न’, `ठेके और मुशायरा’ और `अमीरन उमराव अदा’। `जॉन एलिया का जिन्न’ रंजीत कपूर ने निर्देशित किया और पहले ही शो के बाद चर्चित हो गया था। `ठेके पर मुशायरा’ दिलीप गुप्ता ने निर्देशित किया। ये भी हिट नाटक रहा।