कार्रवाई करती पुलिस।
आपात स्थितियाँ नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता। ऐसी आपदाओं के बाद देश-समाज में बने हालात के विश्लेषण से लगाया जा सकता है। 2001 में हुए आतंकी हमलों के बाद अमेरिका में घटे घटनाक्रमों से भी लगाया जा सकता है।
युद्ध की विभीषिका या महामारी के प्रकोप के बाद जो भी सोच-विचार करने वाले लोग अंत में बच जाते हैं वे भी अपने अस्तित्व के लिए उसी व्यवस्था के प्रति आभार व्यक्त करने लगते हैं जो कि नागरिक अधिकारों और संस्थानों की स्वायत्तता का राष्ट्र-हित में हनन कर लेती हैं जैसा कि 2001 में हुए आतंकी हमलों के बाद अमेरिका में हुआ था।
हम देख रहे हैं कि किस तरह से कुछ नागरिकों द्वारा निरपराध लोगों की ‘बच्चा चोर‘ क़रार देकर सरे आम हत्याएँ की जा रही हैं और दूसरे नागरिक उस पर चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसा ही व्यवहार मीडिया के उस छोटे से वर्ग के प्रति भी सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा किया जाता है जो सत्य का आईना दिखाने की जुर्रत करता है। उसके ख़िलाफ़ देशद्रोह के आरोप लगा दिए जाते हैं।