डोनाल्ड ट्रंप, शी जिनपिंग, नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन
श्रीकांत वर्मा की एक कविता हैः---कोसल में विचारों की कमी है। उसकी पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं----
महराज बधाई हो,
महराज की जय हो
युद्ध हुआ
लौट गए शत्रु
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी
चार अक्षौहिणी थी सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी
कोई कसर न थी
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता
न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व न हाथी
युद्ध हो भी कैसे
सकता था
निहत्थे थे वे
उनमें हर एक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला है
जो भी हो जय, यह आप की है
बधाई हो
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए
वे सिर्फ कुछ प्रश्न
छोड़ गए हैं
जैसे कि यह
कोसल अधिक दिन
टिक नहीं सकता
कोसल में विचारों की कमी है।
अपने समय पर जब भी इधर उधर नजर दौड़ाता हूं तो श्रीकांत वर्मा की यह कविता कानों में तेजी से गूंजती है। ऐसा नहीं कि देश में नीतिवान श्रुतिवान गुणज्ञों की कमी है। लेकिन वे तात्कालिकता, व्यावहारिकता, पार्टीबंदी, स्वार्थ, व्यक्तियों के हित और कंपनियों के हितों में इस कदर उलझ गए हैं कि उनके पास न तो दिशा देने वाली विश्व दृष्टि बची है और न ही राष्ट्रीय दृष्टि। भतृहरि ने अपने नीतिशतक में व्यंगात्मक शैली में कहा हैः---
यस्यासि वित्तं
स नरः कुलीनः
स पंडितः स श्रुतवान गुणज्ञः
स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयंते
हमारे दौर की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि धनवाले और शक्तिवाले ही विद्वानों और बौद्धिकों का निर्धारण करते हैं और यही वजह है कि विचार करने वाले भी वही कहते हैं जो उन्हें सोहाए। जो लोग बलवानों की दृष्टि का विरोध करते हैं उनकी संख्या बहुत थोड़ी है और वे भी किसी पार्टी, किसी व्यक्ति या किसी संगठन के दायरे से आगे बढ़कर सोच पाने में अक्षम है। यही वजह है कि हमारा समाज और हमारा राष्ट्र एक बेपेंदी का लोटा हो गया है। अमेरिकी झिड़की और अपमान से आहत होकर वह चीन और रूस की ओर भागता है और जैसे ही अमेरिका से थोड़ी सी अनुकूल पुचकार मिलती है वह दोगुने स्वर से उसका गुणगान करने लगता है। वह एक ओर ब्रिक्स को साधना चाहता है तो दूसरी ओर क्वाड को। वह एससीओ से जुड़ा है तो द्वितीय विश्व युद्ध के 80 साल पर होने वाले परेड से बच निकलता है। यानी वह खंडित विश्वदृष्टि से अपना और दुनिया का भविष्य संवारना चाहता है और विश्व गुरु बनना चाहता है।
गुलामी लालच और भय से आती है!
आजाद भारतीय राष्ट्र ऐसी केंचुआ वृत्ति का शिकार अपने संपूर्ण इतिहास में तब भी नहीं रहा है जब उसके पास संसाधनों की बेहद कमी थी। युद्ध हारने के बावजूद उसने अपने विचार नहीं छोड़े थे। इसीलिए गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ में ठीक ही कहा है कि गुलामी संसाधनों की कमी से नहीं होती, गुलामी लालच और भय से आती है। वह नैतिकता की कमी से आती है। वे कहते हैं भारत को अंग्रेजों ने गुलाम नहीं बनाया। हमने भारत को उन्हें सौंप दिया। भारतीय शासक वर्ग और उसके साथ जुड़ा हुआ बौद्धिक वर्ग आज भारत को बेंचने और सौंपने को तैयार है। जो चाहे जब चाहे अपने ढंग से उसे झुका ले और खरीद ले। यह सारा खेल राष्ट्रीय हित के नाम पर हो रहा है। ध्यान देने की बात यह है कि ऐसा तब हो रहा है जब पूरे देश के बौद्धिक क्षितिज पर भारतीय ज्ञान परंपरा का कोहराम मचा है। पर उसमें से भारतीय गणराज्य के आंतरिक मूल्यों और संप्रभुता को अक्षुण्ण रखने का कोई सूत्र प्रकट नहीं हो रहा है।
पिछले दिनों इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 12 वें क्रिएटिव थ्योरी कोलोकियम (बारहवीं रचनात्मक विचार संगोष्ठी) में योगेंद्र यादव ने इस बात पर जोर देकर कहा कि आज हमारा गणराज्य ढह रहा है। वह जिन विचारों, मूल्यों और सिद्धांतों पर खड़ा हुआ है वे सब एक एक कर ढहाए जा रहे हैं। इसके लिए वे ही नहीं दोषी हैं जो ठगी की राजनीति करते हैं। दोषी वे भी हैं जो विचार और सिद्धांत का निर्माण करते हैं और संविधान की बात करते हैं। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? इसे कैसे रोका जा सकता है? संकट में उठने वाले यही सवाल नए राजनीतिक विचारों और सिद्धांतों को जन्म देते हैं। आधुनिक भारत के राजनीतिक सिद्धांतकारों से उनकी यही शिकायत है कि वे इन आरोपों का जवाब नहीं दे पाए या उनके विपरीत विचारों की इमारत नहीं खड़ा कर पाए कि हमारे आधुनिक लोकतंत्र की संस्थाओं की जड़ें यूरोप में नहीं भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष और बीसवीं सदी के विचारकों के जीवन और सिद्धांतों में हैं। इसी बारे में मैथिलीशरण गुप्त ने भारत भारती कविता में कहा हैः—हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर यह समस्याएं सभी।।
हालाँकि इस गणतंत्र के विदेशी होने के आरोप का जवाब गांधी, आंबेडकर, लोहिया और नेहरू ने भी अपने अपने ढंग से दिया है। पर हमारे सिद्धांकारों ने उसे पश्चिमी सिद्धातों की कसौटी पर खरा उतारने पर जितना समय खर्च किया उतना उन्हें भारतीय यथार्थ और बीसवीं सदी के चिंतन पर कसने के लिए प्रयास नहीं किया।
योगेंद्र यादव के सवाल
योगेंद्र ने सही सवाल उठाया कि पश्चिम का कौन सा राजनीतिक सिद्धांतकार है जो अपनी भाषा और जमीन से पूरी तरह कट कर विचार करता है? इसीलिए भारतीय भाषाओं को त्याग कर सिद्धांत गढ़ना एक प्रकार का स्कैंडल यानी घोटाला है। यह तेवर गांधी के उस भाषण में भी था जो उन्होंने चार फरवरी 1916 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दिया था। जिस भाषण को सुनने के बाद जनता गदगद हो गई थी और एनी बिसेंट से लेकर सारे मंचासीन लोग उखड़ गए थे।
हमारे बीसवीं सदी के विचारकों ने जिस तरह के भारत की कल्पना की थी और उसके लिए जिस राजनीतिक परंपरा की नींव डाली और जो संविधान बनाया वह यूरोपीय तर्ज का गणतंत्र नहीं था। भले ही उसका बाहरी ढांचा कुछ यूरोपीय देशों से मिलता हो लेकिन उसके पीछे का दर्शन अपने में अद्वितीय था। भारत जिस तरह का देश पहले था और विभाजन और आजादी के बाद उसकी जो संरचना बनी वह भी काफी हद तक यूरोपीय मॉडल से भिन्न था। यूरोपीय समाज इतनी विविधता की कल्पना कर ही नहीं सकता। न ही वह इसे सह सकता है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस पार्टी ने देश की आजादी और आधुनिक गणतंत्र के निर्माण की लड़ाई लड़ी, वह उन खतरों और दायित्वों के प्रति बेफिक्र हो गई जिसके बारे में हमारे पुरखों ने चेताया था। अगर ऐसा न होता तो भारत जैसे प्राकृतिक संसाधन संपन्न और विविधता वाले देश को लूटने के लिए उदारीकरण की ऐसी नीति न चलाई गई होती जिसमें लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगने लगे।
भारतीयता की अवधारणा
दूसरी ओर एक ऐसा विचार और संगठन पनपा जिसकी भारतीयता की अवधारणा यूरोपीय नकल में गढ़े गए विचार के साँचे में ढाले गए इतिहास और उससे निकली दृष्टि पर आधारित है। वह राष्ट्रीय एकता की जितनी बात करता है उतना ही उसे खंडित करता है। वास्तव में संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के विचारों को विदेशी नकल बताने वाले न तो भारतीय आत्म को समझते हैं और न ही स्वदेशी और स्वराज को। उनके लिए आजादी, स्वराज और स्वदेशी महज नारा है जिसका नैतिकता नहीं रणनीति से लेना देना है। इसी दृष्टि से निकला है यह बयान कि गांधी एक चालाक बनिया था। इसी बात को वामपंथी नजरिए से गांधी को समझने में लगे लोग थोड़ा सभ्य भाषा में कहते हैं कि गांधी रणनीतिकार बड़े थे। यानी गांधी अधिक से अधिक चाणक्य और मैकियावेली की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। उन्हें एक विराट नैतिक मानव की श्रेणी में रखने का कोई मतलब नहीं है। उन्हें मसीहा मानने का कोई मतलब नहीं है।विचारों की कमी!
मानवीय मूल्यों को जीवन का अनिवार्य विश्वास मानने के बजाय रणनीति मानने के इस चलन ने उन्हें धीरे धीरे मर जाने दिया। उनकी जगह पर बाजार और प्रौद्योगिकी जनित लाभ और सत्ता जनित सुख और परपीड़ा ने ले लिया। हम प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन को क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन मानने लगे। दूसरी ओर राजनीतिक तौर पर सत्ता परिवर्तन को ही अभीष्ट मान लिया। सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही हमारा मकसद रह गया। सूरत बदलने की कोशिशें दकियानूसी कही जाने लगीं। नतीजतन एक ओर सांप्रदायिकता हमारे गणतंत्र पर चढ़ बैठी तो दूसरी ओर जातिवाद और उन सबसे ऊपर याराना (क्रोनी) पूंजीवाद हावी हो गया। नील पोस्ट ने प्रौद्योगिकी के आगे संस्कृति यानी श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों के समर्पण की अवस्था को टेक्नोपोली की संज्ञा दी है। यह वह अवस्था है जहां हर चीजें प्रौद्योगिकी के सहारे तय होंगी। विश्वविद्यालयों से लेकर तमाम दूसरे संस्थानों तक फैले प्रौद्योगिकी के इस जाल ने मानवीय गुणों और रचनात्मकता को मशीन में बदल दिया है।
हम ऐसी सभ्यता बन गए हैं जहां पर कई अक्षौहिणी सेनाएं हैं, बहुत सारे अस्त्र हैं, हजारों अश्व हैं, हाथी हैं घोड़े हैं और हो सकता है कि तात्कालिक रूप से हमारी विजय भी हो जाए। हम राजसूय यज्ञ कर भी ले जाएं। चक्रवर्ती भी हो जाएं। लेकिन हम जिस ढलान पर जा रहे हैं उसमें कोसल अधिक दिनों तक ठहर नहीं सकता। क्योंकि कोसल में विचारों की कमी है।