तीसरे दिन कुलदीप नय्यरजी ने दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों की एक सभा बुलाई। कुलदीपजी और मैंने आपातकाल की भर्त्सना की। उसके बाद मैंने कहा कि यहाँ रखे रजिस्टर पर सभी पत्रकार दस्तख़त करें। देखते ही देखते हाॅल खाली हो गया। मेरे सहपाठी और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी का शायद उस रजिस्टर में पहला दस्तख़त था। अगले दो-चार दिनों में भारतीय पत्रकारिता की दुनिया ही बदल गई।
आपातकाल के सभी उल्टे-सीधे कामों पर मुझसे वरिष्ठ जो दो सह-संपादक थे, वे ही बराबर तालियाँ बजाते रहे। तीसरे दिन कुलदीप नय्यरजी ने दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों की एक सभा बुलाई। कुलदीपजी और मैंने आपातकाल की भर्त्सना की। उसके बाद मैंने कहा कि यहाँ रखे रजिस्टर पर सभी पत्रकार दस्तख़त करें। देखते ही देखते हाॅल खाली हो गया। मेरे सहपाठी और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी का शायद उस रजिस्टर में पहला दस्तख़त था। अगले दो-चार दिनों में भारतीय पत्रकारिता की दुनिया ही बदल गई।
शास्त्री भवन में बैठे एक मलयाली अफ़सर को दिखाए बिना किसी अख़बार का संपादकीय छप ही नहीं सकता था। बड़े-बड़े तीसरमारखां संपादक नवनीत-लेपन विशारद सिद्ध हो रहे थे।
जेल में फँसे और छिपे हुए कई नेताओं से मेरा संपर्क बना हुआ था। अटलजी, चंद्रशेखरजी, राजनारायणजी, मधु लिमये, जार्ज फर्नांडिस, बलराज मधोक आदि के संदेश मुझे नियमित मिला करते थे। उस समय के कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों जगजीवन राम, कमलापति त्रिपाठी, प्रकाशचंद मेठी, विद्याचरण शुक्ल आदि से मेरा निजी संपर्क था। सबकी बोलती बंद थी। उन दिनों विद्या भय्या (सूचना मंत्री) और मेरा भाषण जबलपुर विश्वविद्यालय में हुआ था। मैंने आपातकाल की खुलकर आलोचना की। विद्या भय्या मुझसे बात किए बिना चल पड़े। रात को शहर में कई पत्रकार मुझसे गुपचुप मिलने आ गए।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)