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मायावती का भविष्य क्या है? 

आगरा में चुनावी रैली कर बीएसपी ने यह संदेश देने की कोशिश की कि जाटव समाज अब भी उसके साथ है। इतना तो है ही कि जाटव समाज का एक बड़ा हिस्सा अब भी उसके साथ इस उम्मीद के साथ खड़ा है कि बहन जी इस बार मुख्यमंत्री ना भी बनें तो ‘किंगमेकर’ की भूमिका में तो आ ही सकती हैं। 
विजय त्रिवेदी

उत्तर प्रदेश की दलित राजधानी माने जाने वाले शहर आगरा में प्रदेश की सबसे बड़ी दलित नेता मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपनी चुप्पी तोड़ दी और कहा कि मैं गैर-हाज़िर नहीं थी। विधानसभा चुनावों के ऐलान से काफी पहले से मायावती मैदान में नज़र नहीं आ रही थीं। चुनावों का ऐलान हो गया, उसके बाद भी लंबे समय तक बीएसपी अध्यक्ष कहीं नहीं दिख रहीं थीं। नतीजा हुआ कि यह हवा बनने लगी कि मायावती इस चुनाव को ठीक से लड़ना नहीं चाहती या फिर इस तरह की चुप्पी बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए है। चुनाव को बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच मुकाबले का माना जाने लगा। 

अखिलेश यादव चुनाव से पहले ना केवल सक्रिय हो गए थे बल्कि उन्होंने बहुत से छोटे छोटे राजनीतिक दलों के साथ दोस्ती कर ली और गठबंधन बना लिए। बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी से बहुत से मजबूत नेताओं अपने पाले में खींच लिया, मायावती तब भी चुप रही। अब मायावती के कई समर्थक विचारक इसे मायावती की चुनावी रणनीति का हिस्सा बता रहे हैं, तो कुछ दावा कर रहे हैं - “ ‘बहनजी’ अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ चुनाव की तैयारी में लगी थी, सबसे पहले उन्होंने उम्मीदवार भी तय कर दिए। सबसे ऊपर मायावती का दलित वोटर पूरी तरह उनके साथ जुटा हुआ है, वो कहीं नहीं जाने वाला, बीस फ़ीसदी दलित आबादी और उसमें करीब दस फीसदी जाटव आबादी हमेशा उनके साथ रहा है और रहेगा।” 

हो सकता है कि उनकी बात में दम हो, लेकिन क्या यही रणनीति मायावती हमेशा नहीं अपनाती रही हैं? क्या हमेशा वे अपने ‘राजभवन’ में चली जाती हैं? यदि ऐसा नहीं है तो इस ‘डिनायल मोड’ से बीएसपी को कोई फायदा नहीं होने वाला।

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हिन्दुस्तान के चुनावों में वोटर जिस तरह जागरुक हुआ है, उसे हमेशा अपने बस में माने रखना बड़ी राजनीतिक भूल या ‘अहंकार’ कहा जा सकता है। 

अगर दलित वोटर हमेशा पूरी तरह मायावती के साथ जुड़ा रहता तो क्या स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता उनका साथ छोड़ने की हिम्मत कर पाते? और फिर पिछले तीन-चार चुनावों के नतीजे क्या कहते हैं? कहां है बहुजन समाज पार्टी ?  साल 2014 के चुनाव में क्या हुआ था? साल 2007 में सरकार बनाने के बावजूद 2012 में बीएसपी उत्तरप्रदेश में कहां पहुंच गई? और फिर 2017 और 2019 के नतीजे बीएसपी की ताकत की क्या कहानी कहते हैं? इस सबके बावजूद राजनीतिक मैदान में मायावती नहीं दिख रही थीं, यह सच तो सबके सामने है, इसे मीडिया के ‘नैरेटिव’ या राजनीतिक दलों की ‘साज़िश’ कह कर खारिज़ नहीं किया जा सकता।

साल 2017 के विधानसभा चुनावों में बीएसपी पूरी तरह साफ हो गई। दलित राजधानी आगरा में उसे एक भी सीट नहीं मिली जबकि 2007 में उसने यहां सभी सीटें जीती थी। इसके बावजूद मायावती ने अपनी पहली रैली के लिए आगरा को इसलिए चुना क्योंकि बीजेपी ने उनके नेतृत्व को चुनौती देने के लिए यहां बेबीरानी मौर्य को मैदान में उतार दिया।
जाटव नेता मानी जाने वाली बेबी रानी मौर्य पहले आगरा में ही मेयर रही, फिर उन्हें मोदी सरकार ने उत्तराखंड में राज्यपाल बना कर भेजा और चुनावों से पहले इस्तीफ़ा दिलवा कर पार्टी में जिम्मेदारी दी और अब चुनाव मैदान में उतार दिया। इसका मतलब यह नहीं कहा जा सकता कि बेबी रानी मौर्य मायावती के मुकाबले की ताकतवर जाटव नेता हो गई हैं। इस तरह की गलतफहमी तो शायद बीजेपी ने नहीं पाली होगी, लेकिन उसने शेर की मांद में घुसकर चुनौती ज़रूर दी है। 

जाटव समाज का साथ 

आगरा में चमड़े के कारोबार से जुटे जाटव समाज की बड़ी हिस्सेदारी है और बहुत संपन्न जाटव समुदाय के लोग भी इस इलाके में हैं। आगरा से रैली में यह संदेश देने की कोशिश की गई कि यह समाज अब भी उनके साथ है। इतना तो है ही कि एक बड़ा हिस्सा अब भी उनके साथ इस उम्मीद के साथ खड़ा है कि बहन जी इस बार मुख्यमंत्री ना भी बनें तो ‘किंगमेकर’ की भूमिका में तो आ सकती हैं । 

बीएसपी नेता मायावती ने अपनी इस रैली में भी मुख्य तौर पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को निशाना बनाया। मायावती ने कहा कि कांग्रेस ने डॉ भीमराव अम्बेडकर का सम्मान नहीं किया,  उन्हें भारत रत्न भी नहीं दिया। यहां तक कि कांग्रेस ने बीएसपी संस्थापक कांशीराम का अपमान भी किया और उनके निधन के बाद कांग्रेस ने राष्ट्रीय शोक घोषित नहीं किया। 

Mayawati in Uttar pradesh election 2022 - Satya Hindi

तोड़ दिया था गठबंधन 

समाजवादी पार्टी पर गुंडई करने का आरोप मायावती ने तब लगाया है जब मौजूदा लोकसभा में उसके दस सांसद समाजवादी पार्टी के गठबंधन वाले चुनाव में जीते थे। यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने उस गठबंधन को तोड़ दिया । यूं कुछ लोग इस बात का आरोप भी लगाते हैं कि बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव में बहनजी ने यह गठबंधन तोड़ दिया था। इस रैली में मायावती बीजेपी पर उस तरह हमलावर नहीं रहीं जैसा हमला उन्होंने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पर किया है। 

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि मायावती की गैर मौजूदगी से उनके ही वोट बैंक यानी जाटव समुदाय और दूसरी दलित जातियों में यह संदेश गया कि बहनजी राजनीतिक तौर पर कमज़ोर हो रही हैं  और वो अब सरकार बनाने की ताकत नहीं रखती। इस दौरान कई जाटव और गैर जाटव दलित नेताओं ने भी बीएसपी का साथ छोड़ दिया। प्रबुद्ध और नौकरी पेशा जाटव समाज का एक बड़ा वर्ग इस बार मायावती से निराश है। बीजेपी उनकी गैर हाजिरी को मुद्दा बना कर यह ‘नैरेटिव’ बनाने की कोशिश कर रही है कि इस बार मायावती लौटने वाली नहीं तो दलित समाज का वोटर समाजवादी पार्टी या कांग्रेस में जाने के बजाय उनके साथ खड़ा होगा। 

बीएसपी के नेता सतीश चन्द्र मिश्रा के नेतृत्व में एक बार फिर ब्राह्मण वोटर को साधने की कोशिश भी बीएसपी ने की, लेकिन लगता नहीं है कि वो सिरे चढ़ी है। इस बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी चुनाव लड़ रहे हैं, ऐसा लगता है कि सिर्फ मायावती चुनाव नहीं लड़ रहीं।

चार बार सीएम बनीं मायावती

वैसे मायावती या बीएसपी के राजनीतिक इतिहास को देखें तो सिर्फ एक बार साल 2007 में उसने अपने दम पर उत्तरप्रदेश में सरकार बनाई है, लेकिन बहुमत नहीं मिलने के बावजूद मायावती चार-चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं हैं। यह कांशीराम की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा रहा है कि उन्हें अस्थायी सरकारें और त्रिशंकु विधानसभा के चुनाव नतीजे पसंद आते हैं। इस स्थिति में बीएसपी को मजबूत होने का मौका मिलता है। 

बीएसपी ने यूपी में सरकार में रहने के लिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बीजेपी किसी का भी साथ लेने में परहेज़ नहीं किया। तीन बार तो वो मुख्यमंत्री बीजेपी के भरोसे ही बनीं। राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि हो सकता है मायावती का निशाना इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी न होकर कुछ और बड़ा हासिल करने की हो। 

मायावती खुद पर होने वाले हमलों को गंभीरता से नहीं लेतीं और जो उन्हें ठीक लगता है अक्सर उसी रास्ते पर चलती हैं। यही उनकी ताकत भी है वरना मौजूदा राजनीतिक हालात में किसी दलित महिला का इतना ताकतवर होना आसान काम नहीं है।

गेस्ट हाउस कांड

बीएसपी नेता मायावती उस अपमान को  शायद ही कभी भूल पाएं। दो जून 1995 की शाम चार बजे  लखनऊ के गेस्ट हाउस के उनके ‘सुइट’ पर करीब  दो सौ मुलायम सिंह समर्थकों ने हमला बोल दिया था। गेस्ट उनके कमरे की लाइट और पानी का कनेक्शन काट दिया। कमरे में रात एक बजे तक वो कैद रहीं, लेकिन अगले ही दिन उनकी राजनीतिक किस्मत बदल गई। मायावती ने  मुलायम का साथ छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का साथ लिया और उनके सहयोग से सरकार बना ली।  तीन जून 1995 को वो पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। 

Mayawati in Uttar pradesh election 2022 - Satya Hindi

इससे पहले साल 1993 में यूपी में बीजेपी को हराने के लिए दिल्ली के अशोका होटल में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन किया था। 6 दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने और उससे पहले राम रथ यात्रा से बीजेपी के पक्ष में खासा माहौल दिख रहा था, लेकिन जब चुनाव नतीजे आए तो समाजवादी पार्टी को 109 और बहुजन समाज पार्टी को 67 सीटें मिलीं, हालांकि बीजेपी को दोनों दलों से एक ज़्यादा 177 सीटें मिली थी । दोनों ने मिलकर यूपी में पहली बार सरकार बनाई, लेकिन यह प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल पाया। दोनों दलों के बीच की खटपट का नतीजा हुआ –‘गेस्ट हाउस कांड’। मायावती पहली दलित महिला मुख्यमंत्री हैं । मायावती दूसरी बार 1997 में, तीसरी बार 2002 में और चौथी बार 2007 में मुख्यमंत्री बनीं।

साल 1996 में हुए विधानसभा चुनावों में बीएसपी ने काग्रेस  के साथ गठबंधन किया, तब बीएसपी ने 315 सीटों पर और कांग्रेस ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था, मगर इस गठबंधन को सौ सीटें मिली। उस वक्त किसी दल को बहुमत नहीं मिला। कोई राजनीतिक दल जब सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था तो राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, काफी दिनों तक तमाम राजनीतिक कोशिशें होती रहीं। 

बीजेपी का भी लिया साथ 

फिर एक दिन फरवरी 1997 में नई राजनीतिक जोड़ी बन गई। विधानसभा चुनावों के बाद भी किसी दल की सरकार नहीं बन पाने की वजह से बीएसपी नेता बीजेपी से दोस्ती के लिए तैयार हो गए। बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी आरएसएस के आदेश पर आगे बढ़े। राजनीति में नया प्रयोग हुआ, छह-छह महीने के लिए दोनों दलों के मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला हुआ, इसमें पहली बारी मायावती के मुख्यमंत्री बनने की थी। 

उत्तर प्रदेश में बीएसपी  ने 2007 के विधानसभा चुनावों में सबको  हैरान कर दिया । बीएसपी ने 403 में से 206 सीटों पर जीत हासिल की। उसे 30 फीसदी वोट मिले थे। इस चुनाव में बीएसपी ने अपने दलित एजेंडा से आगे जाकर ब्राह्मणों को साथ लिया था । लेकिन उसके बाद बीएसपी की फिर सरकार  नहीं बन पाई। 2012 में  बीएसपी को सिर्फ 80 सीटें और 25.9 फीसदी वोट मिला। 

इससे अगले चुनाव यानी 2017 में बीएसपी को केवल 19 सीटें ही मिल पाई और वोट प्रतिशत गिर कर 22.2 रहा।  लोकसभा चुनावों में भी जहां 2009 में बीएसपी को 20 सीटें मिलीं थी, मगर अगले चुनाव 2014 में एक भी सीट नहीं मिली। फिर 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और उसके 10 सांसद लोकसभा पहुंचे।

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पश्चिमी यूपी की सियासत

उत्तर प्रदेश में पहले चरण का चुनाव दस फरवरी को होना है जब पश्चिमी उत्तरप्रदेश में वोट डाले जाने हैं, लेकिन बीएसपी वहां इस बार कोई बड़ी भूमिका में नहीं दिखती। समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रीय लोकदल के साथ हाथ मिला कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। इसमें उसे किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी से हुई नाराजगी का फायदा भी मिल सकता है। बीजेपी ने पिछले चुनाव में यहां बेहतर प्रदर्शन किया था, वो अपना घर बचाने में लगी है।

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लोकसभा में विश्वास मत प्रस्ताव की बहस के दौरान बीजेपी नेता प्रमोद महाजन ने कहा था कि लोकसभा या विधानसभा रोडवेज की बस नहीं है कि आपने खिड़की से रुमाल रख दिया तो सीट आपकी हो गई। यहां फैसला बहुमत के आधार पर होता है। यानी बीएसपी के शब्दों में कहें तो “जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी”। बहनजी शायद इस बात को बेहतर तरीके से समझती होंगी।

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