उत्तर प्रदेश की दलित राजधानी माने जाने वाले शहर आगरा में प्रदेश की सबसे बड़ी दलित नेता मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपनी चुप्पी तोड़ दी और कहा कि मैं गैर-हाज़िर नहीं थी। विधानसभा चुनावों के ऐलान से काफी पहले से मायावती मैदान में नज़र नहीं आ रही थीं। चुनावों का ऐलान हो गया, उसके बाद भी लंबे समय तक बीएसपी अध्यक्ष कहीं नहीं दिख रहीं थीं। नतीजा हुआ कि यह हवा बनने लगी कि मायावती इस चुनाव को ठीक से लड़ना नहीं चाहती या फिर इस तरह की चुप्पी बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए है। चुनाव को बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच मुकाबले का माना जाने लगा। 

अखिलेश यादव चुनाव से पहले ना केवल सक्रिय हो गए थे बल्कि उन्होंने बहुत से छोटे छोटे राजनीतिक दलों के साथ दोस्ती कर ली और गठबंधन बना लिए। बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी से बहुत से मजबूत नेताओं अपने पाले में खींच लिया, मायावती तब भी चुप रही। अब मायावती के कई समर्थक विचारक इसे मायावती की चुनावी रणनीति का हिस्सा बता रहे हैं, तो कुछ दावा कर रहे हैं - “ ‘बहनजी’ अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ चुनाव की तैयारी में लगी थी, सबसे पहले उन्होंने उम्मीदवार भी तय कर दिए। सबसे ऊपर मायावती का दलित वोटर पूरी तरह उनके साथ जुटा हुआ है, वो कहीं नहीं जाने वाला, बीस फ़ीसदी दलित आबादी और उसमें करीब दस फीसदी जाटव आबादी हमेशा उनके साथ रहा है और रहेगा।” 

हो सकता है कि उनकी बात में दम हो, लेकिन क्या यही रणनीति मायावती हमेशा नहीं अपनाती रही हैं? क्या हमेशा वे अपने ‘राजभवन’ में चली जाती हैं? यदि ऐसा नहीं है तो इस ‘डिनायल मोड’ से बीएसपी को कोई फायदा नहीं होने वाला।