आज के भारतीय समाज में जैसे-जैसे राजनीति और नौकरशाही की ओर से विकास के नारे को आक्रामक लहजे के साथ पेश किया जा रहा है वैसे-वैसे एक समांतर विमर्श भी सामने आ रहा है और मुखरित भी हो रहा है। और वो समांतर विमर्श है प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का। कला की हर विधा में भी इन दिनों प्रकृति केंद्रित विचारों, कृतियों और नाट्य प्रस्तुतियों की संख्या भी बढ़ रही है। और न सिर्फ़ भारतीय समाज में बल्कि विश्व स्तर पर इस तरह के सामाजिक आंदोलन उभर रहे हैं जिनमें `किसका विकास और कैसा विकास’ जैसे प्रश्न उठ रहे हैं। क्या प्रकृति का विनाश कर आदमी अपने भविष्य को बचा पाएगा? किंतु एक ओर प्रकृति का विनाश जारी है तो दूसरी ओर उसे संरक्षित करने का अभियान भी चल रहे हैं और विकास के नारे के पीछे जो असली मंसूबें हैं वो भी, आहिस्ता आहिस्ता ही सही, उजागर हो रहे हैं।