आज के भारतीय समाज में जैसे-जैसे राजनीति और नौकरशाही की ओर से विकास के नारे को आक्रामक लहजे के साथ पेश किया जा रहा है वैसे-वैसे एक समांतर विमर्श भी सामने आ रहा है और मुखरित भी हो रहा है। और वो समांतर विमर्श है प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का। कला की हर विधा में भी इन दिनों प्रकृति केंद्रित विचारों, कृतियों और नाट्य प्रस्तुतियों की संख्या भी बढ़ रही है। और न सिर्फ़ भारतीय समाज में बल्कि विश्व स्तर पर इस तरह के सामाजिक आंदोलन उभर रहे हैं जिनमें `किसका विकास और कैसा विकास’ जैसे प्रश्न उठ रहे हैं। क्या प्रकृति का विनाश कर आदमी अपने भविष्य को बचा पाएगा? किंतु एक ओर प्रकृति का विनाश जारी है तो दूसरी ओर उसे संरक्षित करने का अभियान भी चल रहे हैं और विकास के नारे के पीछे जो असली मंसूबें हैं वो भी, आहिस्ता आहिस्ता ही सही, उजागर हो रहे हैं।
`जंगल में बाघ नाचा’: प्रकृति बचाओ दुनिया बचाओ
- विविध
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- 3 Jul, 2024

मामला धीरे-धीरे पूरे हिमालय क्षेत्र को बचाने का होता जा रहा है। इसलिए रंगमंच और नाटक जैसे सांस्कृतिक कर्म की जिम्मेदारी भी बनती है। पढ़िए, `जंगल में बाघ नाचा’ के नाट्य मंचन में प्रकृति को कैसे दिखाया गया।
पिछले हफ्ते राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और दिल्ली पर्यटन की ओर से गांधी स्मृति और दर्शन समिति, राजघाट में हुए बाल नाटकों के समारोह में एक ऐसा नाटक था जो `विकास बनाम संरक्षण’ वाली बहस को आगे बढ़ाने वाला था। नाटक का नाम था `जंगल में बाघ नाचा’। वैसे बाघ नाचता नहीं है। वो तो अपने शिकार पर झपट्टा मारता है। खासकर जंगली जानवरों पर। लेकिन कल्पना की दुनिया में ऐसा हो सकता है कि बाघ भी नाचे। और इस नाटक में ये विश्वसनीय भी लगा क्योंकि बाघ भी प्रकृति का हिस्सा है और वो भी अपने को बचाने का कुछ तो यत्न करेगा। जब जंगल नहीं बचेंगे तो बाघ का क्या होगा?