इस वक़्त भारत निर्वाचन आयोग लगातार चर्चा में बना हुआ है। लोकसभा में नेता, प्रतिपक्ष, राहुल गांधी लंबे समय से निर्वाचन आयोग पर चुनावों में धांधली करने का आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन इस बार राहुल गांधी का कहना है कि उनके पास चुनावों में धांधली के पुख्ता सबूत हैं। राहुल गांधी इन सबूतों को ‘एटम बॉम’ बोल रहे हैं। उनका कहना है कि ये सबूत इतने ठोस हैं कि जैसे ही इनकी घोषणा होगी, निर्वाचन आयोग कहीं दिखाई नहीं पड़ेगा। नई दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की लीगल सेल की वार्षिक बैठक में बोलते हुए राहुल गांधी ने यहाँ तक कहा कि लोगों को पता नहीं है लेकिन सच यही है कि भारत में ‘चुनाव आयोग मर चुका है’। 

यह बात सभी जानते हैं कि बीते सालों में राहुल गांधी ने निर्वाचन आयोग से जब भी सवाल पूछा उन्हें कभी भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव, हरियाणा, लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र चुनाव ऐसे ऐसे उदाहरण लेकर आए हैं जिससे आयोग की निष्पक्षता और ईमानदारी पर सवाल खड़े हो रहे हैं। निर्वाचन आयोग से हर बार प्रश्न किया गया पर आयोग ने विपक्ष को इस तरह नकार दिया जैसे विपक्ष का अस्तित्व ही नहीं है।
अब राहुल गांधी खुलकर कह रहे हैं कि निर्वाचन आयोग वोटों की चोरी कर रहा है, लोगों के वोट करने के अधिकार को छीन रहा है। बाहर बैठकर देखने में राहुल गांधी की भाषा किसी को भी बहुत कठोर लग सकती है लेकिन पिछले कुछ सालों में निर्वाचन आयोग जिस तरीक़े से काम कर रहा है उसे देखते हुए राहुल गाँधी की यह भाषा कठोर नहीं लगती बल्कि इस भाषा को आवश्यक कहा जाना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में यह ट्रेंड बन गया है जिसमें निर्वाचन आयोग विपक्ष के सवालों को टालने का आदी हो गया है। 
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बजट सत्र के दौरान राहुल गांधी ने धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए यह कहा था कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों के बीच के समय, यानि लगभग 5 महीने के बीच महाराष्ट्र में 70 लाख नए वोटर जोड़ दिए गए। जबकि 2019 के विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों(2024) के बीच, 5 सालों में मात्र 32 लाख वोटर ही जोड़े गए थे। राहुल गांधी ने यह सवाल खुलकर देश की संसद में उठाया लेकिन इस संबंध में कभी भी चुनाव आयोग ने संतोषजनक जवाब तक नहीं दिया। चुनाव आयोग ने ऐसा रुख अपनाया जैसे यह सवाल ही अस्तित्व में नहीं है, जैसे कुछ हुआ ही न हो?  
ऐसी ही धांधली की शिकायतें हरियाणा चुनावों के दौरान और लोकसभा चुनावों के दौरान भी आयीं, लेकिन तब भी निर्वाचन आयोग ने जवाब देना तक उचित नहीं समझा। अब यही काम निर्वाचन आयोग बिहार में कर रहा है। बिहार में आनन-फ़ानन में लायी गई मतदाता पुनरीक्षण प्रक्रिया (SIR) में लाखों बिहारवासियों के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं। लगभग एक साल पहले हुए लोकसभा चुनावों में जितने मतदाता, मतदाता सूची में शामिल थे उसमें से लगभग 65 लाख मतदाताओं को सूची से बाहर कर दिया गया है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं कि किस तरह बिहार में SIR लागू करवाया गया, किस तरह संबंधित फॉर्म को भरने के लिए बिहार के लोगों के बीच भेजा गया और किस किस्म के तथाकथित वॉलंटियर्स को चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया में लगाया। 

चुनाव आयोग ने सिर्फ़ अपनी बात मनवाने और अपने एजेंडे के तहत कार्यवाही करने के लिए भारत की रीढ़ बन चुके दस्तावेजों-आधार कार्ड, वोटर कार्ड आदि- को SIR प्रक्रिया में मानने से इनकार कर दिया। अपने ‘मिशन’ में लगे ECI ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय की उस सलाह को भी मानने से इनकार कर दिया जिसके तहत सर्वोच्च अदालत ने आयोग से कहा था कि SIR के दौरान आधार कार्ड और वोटर कार्ड जैसे दस्तावेजों को मानना चाहिए।

 न्यायालय ने यह भी कहा था कि उद्देश्य यह होना चाहिए कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को वोट करने का अधिकार मिले लेकिन इसके उलट आयोग ने 65 लाख लोगों के वोट करने के अधिकार को ही समाप्त कर दिया। जो प्रक्रिया साल भर चलती थी उसे मात्र एक महीने में समेट दिया गया। लगभग 35 लाख वोटरों के बारे में कोई जानकारी नहीं है, आयोग का कहना है कि ये वो मतदाता है जो या तो स्थायी रूप से राज्य से बाहर चले गए हैं या फिर उन्हें खोजा नहीं जा सका है। जबकि एक सच यह भी है कि जल्दी में करवायी गई इस प्रक्रिया में लाखों बिहारवासी तमाम कारणों से शामिल ही नहीं हो सके। कई प्रदेश के बाहर अस्थायी रोजगार में हैं जिन्हें आसानी से छुट्टी नहीं मिलती, कई ऐसे हैं जो हर दिन कमाने खाने वाले मजदूर हैं जो अचानक से घोषित की गई इस पुनरीक्षण प्रक्रिया के लिए अपने परिवार को भूखा नहीं रख सकते। 

यदि यह प्रक्रिया एक साल तक के लिए चलाई जाती तो संभव था कि ये असंगठित सेक्टर का यह श्रमिक वर्ग, जिसे संविधान ने वोट करने का बराबर अधिकार दिया है, वो भी मतदाता सूची में अपना नाम शामिल करवा पाता। बड़ी अजीब बात यह है कि जब 65 लाख वोटरों को सूची से हटाया गया है उसी समय लगभग 12 हज़ार नए बूथ भी बना दिए गए हैं।

किसके लिए किया?

निर्वाचन आयोग जो भी कर रहा है असल में इसे मतदाता सूची की आड़ में दशकों से भारत में रह रहे लोगों की नागरिकता को चुनौती के रूप में समझा जाना चाहिए। जिन लोगों के नाम मतदाता सूची में नहीं है असल में उन्हें भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा बनने से रोक दिया गया है, इस देश में रहने के लिए उनकी लोकतांत्रिक योग्यता को नष्ट कर दिया गया है। यदि इस घोटाले को लेकर राहुल गांधी सवाल उठा रहे हैं और विपक्ष मुखर हो रहा है तो इसे जनहित में ही समझा जाना चाहिए। यदि विपक्ष का सबसे बड़ा नेता यह सवाल ही नहीं उठाएगा कि लोगों के वोट देने के अधिकार को एक संवैधानिक संस्था निगलती जा रही है जिससे एक खास दल विशेष को फ़ायदा हो सके, तो कौन उठाएगा?

चुनाव आयोग जो भी कर रहा है उस बात को जनता तक पहुँचाये जाने की जरूरत है क्योंकि इससे संबंधित अदालती लड़ाई बहुत ही सब्जेक्टिव हो चुकी है। लोकतंत्र में निष्पक्षता साबित करने की जिम्मेदारी संस्थाओं पर होनी चाहिए, उनपर आरोप लगाने वाले याची पर नहीं। और याची जब पूरा का पूरा विपक्ष हो तब तो अदालतों का दायित्व और बढ़ जाता है कि वह दायित्व संस्थाओं को मजबूर करे कि वो अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता साबित करें। लेकिन दुर्भाग्य से यह सब देखने को नहीं मिल रहा है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति को एक पार्टी द्वारा की जाने वाली नियुक्ति बना दिया गया और सुप्रीम कोर्ट बस देख रहा है, चुप रहा, मौन रहा।

पहले सर्वोच्च अदालत अपने तमाम फैसलों में कितनी बार यह दोहरा चुकी है कि बिना निष्पक्ष चुनाव करवाए लोकतंत्र को बनाये रखा नहीं जा सकता है। तो सवाल यह उठता है कि जिस आयोग को सरकार नियुक्त कर रही है वो सरकार पर सवाल कैसे उठाएगा? अपनी मर्जी के अधिकारी को मुख्य निर्वाचन आयुक्त(CEC) बनाकर मोदी सरकार अपने मन माफ़िक़ काम करवा रही है अगर इस किस्म के आरोपों को ख़त्म करने की मंशा सरकार या न्यायालय दोनों में होती तो CEC चुनने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये रखने के लिए हस्तक्षेप किया जाता, जोकि नहीं किया गया। 
चुनाव आयोग ने जिस तरह महाराष्ट्र में शिवसेना-शिंदे बनने दिया और शिवसेना का मूल चुनाव चिह्न इस पार्टी को दे दिया गया उससे आयोग की निष्पक्षता बाजार में आकर खड़ी हो गयी। जिस तरह एक चुनी हुई विधानसभा का मानमर्दन होता रहा, मनमर्जी से दल-बदल विरोधी कानून इस्तेमाल किया जाता रहा और जनता द्वारा चुनी गई विधानसभा को सत्ता की ताक़त से पलट दिया गया और सुप्रीम कोर्ट सिर्फ़ ‘सुनवाई’ और बहस करता रहा, जिसके बारे में आज तक कोई फैसला नहीं कर सका, उससे तो यही लगता है कि इस देश में कठोर केंद्र सरकार संविधान को अपनी उँगलियों में नचा सकती है। 

चुनाव आयोग बिल्कुल भरोसे में है कि सुप्रीम कोर्ट से उसे कोई ऐसा फैसला सुनने को नहीं मिलेगा, जिससे उसके मिशन को रोका जा सके। क्योंकि सभी जानते हैं कि इलेक्टोरल बांड इस सदी का सबसे बड़ा धोखा था लेकिन इस मामले में भी चुनाव आयोग की लापरवाही, निर्लज्जता पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई सख़्त रूख नहीं अपनाया।

इलेक्टोरल बांड के ज़रिए उगाहे गए अवैध धन के संबंध में आज तक कोई भी ठोस फैसला नहीं आया। लगभग यही कहानी ईवीएम की है। चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट को यह ‘समझाने’ में कामयाब रहा कि पूरी तरह से वीवीपैट आधारित चुनाव करवाने की जरूरत नहीं, वीवीपैट से निकलने वाली सभी पर्चियों का सत्यापन करना जरूरी नहीं है। विपक्ष की आवाज को, चुनाव आयोग की ‘सुविधा-असुविधा’ के नरेटिव के बीच फँसाकर, सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दिया। सवाल यह है कि यदि लगभग 60% वोटों का प्रतिनिधित्व करने वाला विपक्ष किसी चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता से असंतुष्ट है तो क्या इसके लिए कदम नहीं उठाए जाने चाहिए?  
क्या न्यायपालिका और चुनाव आयोग ने कभी सोचा है कि अगर पूरा विपक्ष न्यायपालिका और संस्थाओं पर से मुट्ठी भर भी भरोसा कम करके तमाम राज्यों के अपने वोटरों तक अपने अविश्वास को पहुँचा दे तो क्या इन संस्थाओं के मायने बचेंगे? कुर्सी पर बैठा भारत का मुख्य न्यायाधीश प्रधानमंत्री को घर में आमंत्रित करके पूजा अर्चना करता है और इसे महज एक शिष्टाचार की बात समझकर भूल जाया जाय? संस्थाएं व्यक्तिपरक चरित्र को धारण कर रही हैं जबकि उनका चरित्र संस्थान के मूल चरित्र से प्रेरित होना चाहिए। 
विमर्श से और खबरें
भारत में लोकतंत्र अपने अवसान पर है, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है, और इसमें जो सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाली संस्थाएं हैं वो हैं- भारत का निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका। एक संस्था ने पूरे विपक्ष को लावारिस बना दिया है तो दूसरी संस्था ने ‘भारत के लोगों’ को। जब अदालतें आम लोगों की तरफ़ झुककर संविधान और कानून की व्याख्या नहीं करतीं और जब चुनाव आयोग विपक्ष की ओर झुककर अपनी नीति तय नहीं करता तब यह समझ लेना चाहिए लोकतंत्र में स्थायी तालेबंदी की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यह एकदिन मुझ तक भी पहुंचेगी और उनतक भी जो इस कॉलम को पढ़ रहे हैं। इसलिए राहुल गांधी जैसे लोगों का ऐसी अपारदर्शी संस्थाओं के विरुद्ध खड़े होना और जनता के सहयोग से लोकतांत्रिक विरोध करना जरूरी लगने लगता है।