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ये प्रश्न करें कि कहीं हम आज़ादी तो खोते नहीं जा रहे हैं? 

तिरंगा झंडा इस समय संघीय सरकार के हर अन्याय पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। उसे ढकने के लिए। हमारा कर्तव्य इस पर्दे को हटाने का है। क्या आज के दिन हम कश्मीर में बिना किसी प्रक्रिया के बर्खास्त कर दिए गए कश्मीरी राज्य कर्मियों के लिए इंसाफ़ की बात कर सकते हैं?
अपूर्वानंद

स्वतंत्रता का दिन है। लेकिन आज भाव स्वतंत्रता का नहीं। न उल्लास का है। चारों तरफ़ से दबाए जाने का है। स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में अनिवार्य उपस्थिति का आदेश, अपने घर पर तिरंगा लगाकर उसकी फ़ोटो भेजने का आदेश, ज़बरन सबको सरकारी तिरंगा ख़रीदने का हुक्म। बिना पूछे सरकारी कर्मचारियों की तनख़्वाह से तिरंगा शुल्क काट लेना। जो घर तिरंगा न लगाए उसकी तस्वीर खींचने के लिए पड़ोसियों को उकसाना। एक निगाह का अहसास जो आपके राष्ट्रवाद को ताड़ रही है।

असल भाव ज़बरदस्ती का है। यह हिंसा के अलावा कुछ नहीं। और यह तिरंगे की आड़ में की जा रही है। ताकि लोग न इसे समझ पाएँ और न इसका विरोध कर पाएँ। लेकिन यह तो गाँधी ने कहा था, जिनका नाम शायद आज सबसे ज़्यादा लिया जाए कि गीता उन्हें प्रिय है लेकिन अगर कोई उनकी कनपटी पर बंदूक़ रखकर गीता पढ़ने को कहे तो वे ऐसा करने से इंकार कर देंगे।

जब सरकार आपको आपका प्रिय काम करने के लिए आदेश देने लगे तो पहला कर्तव्य उससे इंकार करने का है। आप स्वेच्छा का सरकारीकरण या राज्यीकरण अगर होने देते हैं और सोचते हैं कि यह तो मेरी ख़ुद की मर्ज़ी है, तो आप वास्तव में ख़ुद को धोखा दे रहे होते हैं।

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यह छलपूर्ण नियंत्रण हमने इस सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद 2 अक्तूबर और गाँधी की आड़ में होते हुए देखा था जब सरकार ने संस्थानों को उस दिन स्वच्छता दिवस मनाने का आदेश दिया। हमने अधिकारियों, कुलपतियों, अध्यापकों को भी झाड़ू लेकर सफ़ाई का नाटक करते हुए देखा। फिर योग दिवस। योग का राजकीय नाटक पूरे देश में सबने किया। शिक्षा संस्थान, जो युवकों को सत्य की खोज ईमानदारी से करने की शिक्षा देते हैं इसमें पेश पेश रहे। भूलकर कि वे ज्ञान या विद्या अर्जन या सृजन के पहले सिद्धांत का उल्लंघन कर रहे हैं। वे स्वच्छता, योग का प्रदर्शन कर रहे थे, यह जानते हुए कि जो वे कर रहे हैं, वह मात्र दिखावा है। 

यह दिखावा करते उनकी इज्जत ख़ुद उनके छात्रों की निगाह में क्या रही, इसकी क्या उन्हें परवाह थी? जब हम अपनी प्रतिष्ठा से ही बेपरवाह हो जाएँ तो फिर हमें नष्ट होने से कौन रोक सकता है?

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इस तरह जब एक पूरा देश और उसमें भी उसके महाजन यह जानते हुए कि वे जो कर रहे हैं, वह असत्य है, उसे करते रहें तो उसके पतन का आरंभ होता है। किसी उदात्त भाव का सड़कछापीकरण उसे नष्ट करने की शुरुआत है। यह जनतंत्र के नाम पर किया जाता है। जैसे तिरंगा के खादी होने की पाबंदी हटाकर पालीएस्टर तिरंगे का उत्पादन। खादी तिरंगे में एक प्रयास का भाव था, वह उसे बनाने और उसे हासिल करने, दोनों में ही था। बचपन में अपने घरों में तिरंगा फ़हराने के लिए हम खादी संस्थान से जाकर तिरंगा लाते थे। अब कहा जा रहा है कि उस प्रयास की ज़रूरत नहीं। 

जैसे योग दिवस के नाटक के लिए योग सीखने की ज़रूरत नहीं, उसकी मुद्रा में फ़ोटो खिंचवाने भर का काम करना है ताकि अधिकारियों को वह भेजा जा सके।

असत्य और धोखे की संस्कृति ही तब देश की संस्कृति बन जाती है।

स्वाधीनता दिवस का पहला संदेश है अपनी स्वतंत्रता की हर क़ीमत पर रक्षा करना। और दूसरों की स्वतंत्रता के लिए भी कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार रहना। स्वतंत्रता का भाव न्याय और समानता के भाव से अनिवार्य रूप से जुड़ा है। क्या आज का तिरंगा हमारे भीतर इन भावों को जगा पा रहा है?

तिरंगा झंडा इस समय संघीय सरकार के हर अन्याय पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। उसे ढकने के लिए। हमारा कर्तव्य इस पर्दे को हटाने का है। क्या आज के दिन हम कश्मीर में बिना किसी प्रक्रिया के बर्खास्त कर दिए गए कश्मीरी राज्य कर्मियों के लिए इंसाफ़ की बात कर सकते हैं? या हम लाल चौक को तिरंगा बना दिए जाने से अभिभूत हैं? यह देखे बिना कि वह तिरंगा चौक जनशून्य है।

और वह एक रूपक है। जनतंत्र है, जन नहीं है। राष्ट्रवाद बहुत है, चारों तरफ़ है, यहाँ तक कि वह हमारा दम घोंट रहा है, नहीं है तो राष्ट्र। स्वाधीनता दिवस है, नहीं है स्वाधीनता। इस स्वाधीनता को हमने धीरे धीरे अपने सामने ख़ुद से छीने जाते हुए देखा है। जब आपके पास यह फ़ोन आ रहा हो कि अपने चुनाव पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़िए या जब सर्वोच्च न्यायालय पीएमएलए ( प्रीवेन्शन अव मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट) पर मुहर लगा रहा हो और आप तिरंगा लहराने में व्यस्त और मस्त हों तो मान लेना चाहिए कि आप व्यक्ति के तौर पर अपनी हत्या का जश्न मना रहे हैं।

जब आपकी सरकार आपको अपने अधिकारों की बात करने के लिए लज्जित करने लगे और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य के नाम पर उन अधिकारों का अपहरण कर ले तो आपका अधिकार सिर्फ़ तिरंगा फहराने का रह जाता है।

आज का दिन हम सबके लिए अपनी, यानी सबकी आज़ादी सुनिश्चित करने के संघर्ष में अपनी भूमिका तय करने का दिन होना चाहिए। आज़ादी का मतलब है अपना हक़। दूसरों का हक़। वह दलित बच्चा जो स्कूल के मटके से पानी पीने के चलते मार डाला गया, उसके अधिकार के लिए क्या सिर्फ़ दलित समाज को सड़क पर होना चाहिए? क्या आफ़रीन फ़ातिमा के लिए जिसकी माँ का घर इलाहाबाद में बुलडोज़र से ढहा दिया गया, सिर्फ़ आफ़रीन फ़ातिमा अदालत में खड़ी होगी? 

क्या मध्य प्रदेश के खरगौन, गुजरात के शकरपुर, उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में जिन घरों पर बुलडोज़र चलाया गया या असम में जो घर रोज़ तोड़े जा रहे हैं, उनमें रहनेवाले सिर्फ़ अपने घरों से बेदख़ल किए जा रहे हैं या यह इस राष्ट्र से उनकी बेदख़ली है? उनकी आज़ादी का क्या?

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जो उन सबके लिए आवाज़ उठाने के चलते आज हिंदुस्तान की जेलों में हैं, क्या आज हम उनकी आज़ादी के बारे में सोचने के लिए दो मिनट भी निकाल पाएँगे? क्या हम गाँधी के इन शब्दों को आज के दिन पढ़कर उनका अर्थ अपने लिए समझ पाएँगे?

“अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संगठन की स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करके ही हम अपने लक्ष्य (स्वाधीनता) की तरफ़ कदम बढ़ा पाएँगे… हमें इन प्राथमिक अधिकारों की हिफ़ाज़त अपने प्राणों से करनी होगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है अभिव्यक्ति उस वक्त भी अबाधित हो जब वह चोट पहुँचाए…लोगों के सभा के अधिकार की सच्ची प्रतिष्ठा तभी है जब लोगों की सभाएँ क्रांतिकारी योजनाओं पर विचार कर रही हों।”

गाँधी ने आगे कहा, “नागरिक आज़ादी… स्वराज की तरफ़ पहला कदम है। यह राजनीतिक और सामाजिक जीवन की प्राण वायु है। यह आज़ादी की बुनियाद है। इसमें किसी भी प्रकार के …समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है।”
हम आज तिरंगा फहराते हुए ज़रूर प्रश्न करें, ख़ुद से सवाल करें कि कहीं हमने आज़ादी की बुनियाद ही तो नहीं खोद डाली है? कहीं हमने नागरिक अधिकारों के सवाल पर समझौता तो नहीं कर लिया है?
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