अमरीका में उच्च शिक्षा संस्थानों पर डॉनल्ड ट्रम्प के हमले के बाद भारत के कुछ हलकों में काफी उत्साह और उत्तेजना देखी आ रही है। दूसरे की आपदा अपने लिए अवसर है, इस सिद्धांत को मानने वाले सोच रहे हैं कि अमरीकी विश्वविद्यालयों के अमरीकीकरण के अभियान के कारण जो श्रेष्ठ अध्यापक इस्तीफ़ा दे रहे हैं, उन्हें भारत बुलाया जा सकता है। ख़ासकर भारतीय मूल के अध्यापकों और शोधकर्ताओं को। 
हाल में यह समाचार भी आया कि हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी ने कई विषयों में पीएच डी में दाख़िले में अच्छी ख़ासी कटौती की है। हॉर्वर्ड का कहना है कि उसके पास पैसे की कमी है, जिस कारण वह शोध कार्यक्रमों में किफ़ायत करने को मजबूर है।लेकिन आलोचकों का कहना है कि प्रश्न पैसे का नहीं, नज़रिए का है। यह साफ़ है कि ट्रम्प की संकीर्णतावादी राष्ट्रवादी नीतियों के कारण अब शोध स्वतंत्र रूप से करना संभव नहीं रह गया है।
पैसे में कमी का कारण यह है कि सरकारी मदद अब उन्हीं संस्थाओं को दी जाएगी जो ‘उदारवादी’ और ‘वामपंथी’ नीतियों को समाप्त करने को तैयार होंगी। हॉर्वर्ड हो या कोलंबिया या दूसरे विश्वविद्यालय, कई मामलों में सरकार से समझौता करने को तैयार हो गए हैं। इसका असर मात्र समाज विज्ञान या मानविकी के विषयों के अध्ययन-अध्यापन पर नहीं पड़ रहा, विज्ञान की शिक्षा भी उससे प्रभावित हो रही है।
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नतीजा यह है कि नोबेल पुरस्कार विजेता  अर्थशास्त्री अभिजीत बैनर्जी और उनकी संगिनी एस्थर डफ़्लो जैसे अध्यापक एम आई टी छोड़कर ज्यूरिक यूनिवर्सिटी जा रहे हैं। एम आई टी ने ट्रम्प की कई शर्तों को मानने से इनकार कर दिया है। उसे इसके चलते आर्थिक नुक़सान होगा। दूसरे अध्यापक भी अमरीकी संस्थानों को छोड़कर दूसरे देशों का रुख़ कर रहे हैं। 
इसके अलावा ट्रम्प ने वीज़ा संबंधी नीतियों में जो सख्ती की है उससे  ग़ैर अमरीकी अध्येताओं के लिए मुश्किल खड़ी होने वाली है। विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों में और दाख़िलों में भी विविधता के पक्ष में जो सक्रियता थी, ट्रम्प प्रशासन उसे ख़त्म करने की माँग कर रहा है। ट्रम्प की नीतियों से स्वतंत्र शोध और अध्यापन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यही स्वतंत्रता बाहर के शोधार्थियों को आकर्षित करती थी। अब उस पर नियंत्रण के बाद नौकरी करते रहने के अलावा और कोई आकर्षण वहाँ बचा नहीं रह गया है।
यह सब देख कर कुछ लोगों में उम्मीद जग गई है कि ट्रम्प से परेशान अध्येताओं  और शोधार्थियों को भारत बुलाया जा सकता है। लेख लिखे जा रहे हैं कि भारत को ज्ञानाधारित अर्थव्यवस्था बनने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी में तो हम ऐसे काबिल लोगों को अपनी तरफ़ खींच ही सकते हैं!
नीति आयोग ने इस संबंध में पूरा दस्तावेज तैयार किया है।चीन के इसी प्रकार के कार्यक्रम का हवाला दिया जा रहा है जिसके अंतर्गत उसने चीनी मूल के अनेक अध्येताओं को बुलाने में सफलता हासिल की है। 
दिल्ली विश्वविद्यालय में एस्ट्रो फ़िज़िक्स के अध्यापक शोभित महाजन ने उन मुश्किलों का ज़िक्र किया है जो भारत में इस तरह की  किसी योजना के रास्ते आएगी। वेतन, आवास, शोध कार्यक्रमों को स्वीकृति मिलने आदि में ही ढेर सारी समस्याएँ पेश आएँगी। भारत के संस्थानों के अध्यापकों के वेतन और अमरीकी संस्थानों के वेतन में काफी फर्क है। काम करने की स्थिति भी भारत में बहुत असुविधाजनक है। 

भारत शोध पर अपने बजट का नगण्य हिस्सा खर्च करता है। पिछले 11 सालों में उच्च शिक्षा का बजट घटता चला जा रहा है। विज्ञान के नाम पर भारत के नीति निर्माताओं को आजकल बस ‘ए आई’ , दो अक्षर आते हैं। जिस देश का प्रधानमंत्री यह कहकर अपनी पीठ ठोंकता हो कि उसने नौजवानों के लिए रील बनाना आसान कर दिया है, वहाँ आविष्कार के बारे में सोचा ही जा सकता है।

इन सारी मुश्किलों से बड़ी एक दूसरी मुश्किल है।आख़िर अमरीकी विश्वविद्यालयों के अध्यापक क्यों उस जगह को छोड़ना चाहते हैं, जहाँ काम करना उनके लिए सपना था? जिसके लिए वे अपना देश छोड़कर आए? उसका कारण है ट्रम्प का संकीर्ण राष्ट्रवाद। ट्रम्प के आने के बाद परिसरों पर निगरानी बढ़ गई है। वैसे अध्यापकों की पहचान की जा रही है जो ‘अमरीकी मूल्यों के ख़िलाफ़’ हैं, जो ‘वामपंथी’हैं, जो नस्ली समानता के पक्षधर हैं, जो फ़िलिस्तीन समर्थक हैं और उन्हें बाहर करने का अभियान सा चलाया जा रहा है।
यह सब कुछ कुछ भारतवालों के लिए पहचाना हुआ है। जब ट्रम्प ने अमरीकी विश्वविद्यालयों को धमकी दी कि या तो वे ट्रम्प सरकार की नीतियों को मानें या सरकारी मदद से हाथ धो लें तो कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने तुरत घुटने टेक दिए। मैंने उसके बाद कोलंबिया के एक विद्वान को लिखा कि अमरीका उस रास्ते पर ठेला जा रहा है जिस पर भारत पिछले 11 साल से चल रहा है। उन्होंने विनोद में जवाब दिया कि हम सिर्फ़ यह उम्मीद कर रहे हैं कि उस रास्ते पर बहुत आगे न चले जाएँ। 

ट्रम्प सरकार पिछले 2 सालों से जो कुछ कर रही है, वह भारत सरकार पिछले 11 साल से कर रही है। विश्वविद्यालय वामपंथियों का अड्डा हैं, शोधार्थी और शिक्षक करदाताओं का पैसा बर्बाद करते हैं, आधुनिक शिक्षा भारतीय मूल्यों के ख़िलाफ़ है और हमें भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है, यह सब हम प्रधानमंत्री समेत अनेक मंत्रियों और अधिकारियों से बार बार सुनते रहे हैं। तो इस मामले में ट्रम्प तो हमारी सरकार के अनुयायी हैं।

अमरीका में तो फिर भी कई विश्वविद्यालय सरकार के ख़िलाफ़ अदालत गए और उसका प्रतिरोध किया। भारत में यह अकल्पनीय है।यहाँ तो प्रायः सभी कुलपति सरकारी राष्ट्रवाद के प्रवक्ता हैं।हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने एक सार्वजनिक सभा में अध्यापकों और छात्रों का आह्वान किया कि वे विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के भेस में छिपे ‘अर्बन नक्सलों’ को पहचानें  और उन्हें नेस्तनाबूद कर दें।
जो ट्रम्प के अमरीका से भाग रहा है, वह नरेंद्र मोदी के भारत क्योंकर आएगा? ट्रम्प के राष्ट्रवाद से आर एस एस का राष्ट्रवाद बेहतर कैसे है? हम सपना देख रहे हैं कि हम ‘पाँच सितारा’ वैज्ञानिकों और विद्वानों को लुभा लेंगे। लेकिन जो ‘पाँच सितारा’ भारतीय भारत से भगाए जा रहे हैं और बाक़ी देश उनके लिए दरवाज़े खोल रहे हैं, उनमें से कुछ को तो हम जानते ही हैं। अशोका यूनिवर्सिटी  ने राजनीतिशास्त्री प्रताप भानु मेहता को कहा कि उनकी आज़ादख़याली विश्वविद्यालय के लिए नुक़सानदेह है।अब वे अमरीका में पढ़ा रहे हैं। 
अशोका यूनिवर्सिटी के दूसरे भारतीय विद्वान अरविंद सुब्रमणियन ने भारत सरकार की नीतियों के कारण अमरीका वापस जाना तय किया। इन्हें छोड़ दें, भारतीय मूल के ही नोबेल पुरस्कार विजेता रसायन शास्त्री वेंकी रामकृष्णन ने 2016 में भारतीय विज्ञान कॉंग्रेस में शामिल होने के बाद क़सम खाई कि वे फिर कभी इसमें शामिल नहीं होंगे। उन्होंने सरकार छद्म विज्ञान के प्रचार की आलोचना की। उसके बाद से वेंकी राष्ट्रविरोधी हो गए! भारत के एक और रत्न अमर्त्य सेन को तो यह सरकार कई बारअपमानित कर चुकी है।सरकार के समर्थन से कई सालों  से रोमिला थापर के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार चलाया जा रहा है। यह क़तार लंबी है।
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यह जानी हुई बात है कि हमारे विश्वविद्यालयों के काबिल अध्येता  दिल्ली विश्वविद्यालय या जे एन यू या जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि में नियुक्ति की उम्मीद छोड़ बैठे हैं। वहाँ अभी नियुक्ति की मुख्य शर्त क्या है, यह अब एक खुला राज है। हम अपने अच्छे विद्यार्थियों को अब निजी विश्वविद्यालयों में आवेदन करने के लिए कहते हैं। हमें मालूम है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी जगह उनकी समाई नहीं है। ऐसे माहौल में अमरीका का कोई भी विद्वान इन संस्थानों में आने की सोच ही कैसे सकता है जहाँ श्रेष्ठता की कोई क़दर नहीं है ?
अमरीका में अकादमिक आज़ादी के ख़ात्मे का अभी पहला दौर है। भारत में पिछले 11 साल में परिसर प्रतिभाओं की क़त्लगाह में तब्दील हो चुके हैं। भले ही प्रतिभा का खून सड़क पर बहता नहीं दीखता लेकिन इसकी खबर क्या अमरीकावालों को नहीं है? फिर वे आत्महत्या के लिए भारत क्योंकर आएँगे?