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वह झूठा तो है लेकिन मेरा अपना झूठा है 

राजनीति में झूठ बोलने से क्या जनता को कोई दिक़्क़त नहीं है? अमेरिका में तो मीडिया ने ट्रम्प के झूठ की लंबी फेहरिस्त तक छापी है। इस पर शोध हुए हैं कि उनके लगातार झूठ बोलने और ग़लत तथ्यों की जानकारी देने की ख़बरें छपने के बावजूद जनता और झूठ क्यों माँगती है। 
अपूर्वानंद

अंग्रेज़ी पढ़ा लिखा हत्यारा कहता है 

‘मुझे कहीं छिपना है, पुलिस पीछे पड़ी है'

आधुनिक प्रेमिका कहती है, ‘खून, अरे लाओ, पट्टी कर दूँ’

औरत से कहता है अभिजात अपराधी, ‘धन्यवाद।’

(यह एक शब्द में संस्कृति है)

पट्टी करती जब सर झुका कामिनी

मानो संवाद में बड़ा अभिप्राय भर कहता है, 

‘तुमने पूछा नहीं खून कैसे लगा?’

‘यह मैं पूछना नहीं चाहती 

इस समय मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि तुम मुश्किल में हो।’

हत्या की संस्कृति में प्रेम नहीं होता है 

नैतिक आग्रह नहीं 

प्रश्न नहीं …

‘हत्या की संस्कृति’ शीर्षक से रघुवीर सहाय की यह कविता जाने क्यों इन दिनों बार-बार याद आ रही है! अंग्रेज़ी पढ़ा लिखा, अभिजात और आधुनिक, इन विशेषणों पर ध्यान तो देना ही चाहिए लेकिन उससे अधिक मारक है इस पूरे कार्य व्यापार को संस्कृति कहना। हत्यारा हत्या के अपने कृत्य को छिपा नहीं रहा बल्कि एक तरह से प्रेमिका को चुनौती दे रहा है कि वह जो उसकी मरहम पट्टी कर रही है तो क्या यह नहीं समझ रही कि उसके हत्या के कृत्य को ऐसा करके वह जायज़ ठहरा रही है। प्रेमी को मुश्किल से बचाने के लिए छिपा लेना, भले ही वह हत्या करके क्यों न आया हो, यही प्रेमिका का कर्तव्य है। उकसाने पर भी वह सवाल नहीं करना चाहती। नहीं चाहती क्योंकि सवाल का जवाब तो उसे मालूम ही है। पुरानी नीति कविताओं की तरह इस छोटी-सी कविता के आख़िरी अंश में कवि इस पर अपना निष्कर्ष देता है। जिसे उसने संस्कृति कहा था, वह वास्तव में हत्या की संस्कृति है। आधुनिक प्रेमिका और अभिजात अपराधी के बीच जो कुछ हो प्रेम नहीं है। इस हत्या की संस्कृति में किसी नैतिकता की जगह नहीं। प्रेम, नैतिकता और प्रश्न करने की क्षमता का सीधा रिश्ता है। जब प्रश्नों का अभाव हो जाए तो नैतिकता का बचा रह जाना सम्भव नहीं है।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

क्या मामला प्रश्न की क्षमता का जितना नहीं उतना प्रश्न की इच्छा का है। प्रश्नहीनता हत्या की संस्कृति को बढ़ावा देगी ही। वह हत्यारे को, छिपाने और बचाने की जुगत खोजती है क्योंकि हत्यारा आख़िर अपना है। प्रेमिका यह नहीं कह सकती कि उसे खून की वजह मालूम न थी। इशारतन ही सही, वह वजह बता दी गई है। प्रेमिका के लिए वह महत्त्वपूर्ण नहीं। मालूम हो जाने पर भी प्रेमी के प्रति उसका नज़रिया नहीं बदलनेवाला। प्रेमिका के इस रवैय्ये के कारण प्रेमी सच छिपाने की कोशिश भी नहीं करता।

प्रश्न लेकिन सब एक तरह के नहीं होते। उनकी मोटा-मोटी दो श्रेणियाँ मानी जा सकती हैं: क्या हुआ था या क्या है? दूसरे क़िस्म का प्रश्न है: क्यों और कैसे? इस दूसरे से लगा हुआ सवाल है ठीक या ग़लत? पहले को मात्र संज्ञानात्मक कहा जा सकता है और दूसरे-तीसरे को नैतिक दायरे का। जो हुआ वह क्यों और कैसे हुआ, इस सवाल से संबंध हमारी विश्व दृष्टि का है। क्यों और कैसे के बाद निर्णय करना होता है कि जो हुआ वह ठीक हुआ या ग़लत।

मनोवैज्ञानिकों की समझ यह है कि संज्ञान भी इतना सरल व्यापार नहीं। देखना दृष्टिनिरपेक्ष नहीं। क्यों हमें कुछ दिखलाई पड़ता है और कुछ नहीं? दृष्टि को कुछ लोग विचारधारा कहेंगे, कुछ विश्वदृष्टि। तो हमारा संज्ञान अभिप्रेरित या अनुकूलित भी हो सकता है। अर्थात् वह हमारी विश्व दृष्टि से प्रेरित या अनुकूलित होता है। कुछ हम देखते हैं और कुछ नहीं देखते। या देखकर भी नहीं देखते। यह सब कुछ इस पर टिका है कि हम क्या देखना चाहते हैं।

जीवन या विश्व के प्रति मेरा नज़रिया मेरे संज्ञान को संचालित करता है। अगर मैं नया तथ्य मान लूँ जो अब तक के माने हुए झूठ के ख़िलाफ़ है तो वह मेरी जीवन मूल्य व्यवस्था की नींव हिला देगा। क्या मैं इतना असुरक्षित होने को तैयार हूँ?

‘हत्यारा हो लेकिन वह मेरा है।’ रघुवीर सहाय की कविता का एक शीर्षक यह भी हो सकता है। हत्या के तथ्य से यहाँ इनकार नहीं है लेकिन उसे लेकर बेपरवाही है। अमेरिका में राजनीतिक मनोवैज्ञानिकों के एक दल ने एक अध्ययन किया। ‘वे झूठे हो सकते हैं लेकिन वे मेरे अपने झूठे हैं’, इस शीर्षक से ब्रायोनी स्वायर थाम्पसन और उनके सहयोगियों ने इसे प्रकाशित किया

मेरा अपना झूठा झूठ बोल रहा है, यह कोई ख़बर नहीं और इससे कोई उज़्र भी नहीं। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि जनता को अगर यह मालूम भी हो जाए कि उसकी सूचना ग़लत थी और वह इसे मान भी ले तो भी उस सूचना के स्रोत के प्रति उनकी भावना या रुख़ में फ़र्क़ नहीं आएगा। मान लीजिए एक समूह किसी एक बात में विश्वास करता है। इसका आधार कोई सूचना है। वह ग़लत है। ग़लत सूचना को ठीक करनेवाले तथ्य जब उस समूह के सामने पेश किए जाते हैं तो वह अपने विश्वास पर पुनर्विचार तो कर सकता है लेकिन ग़लत सूचना देनेवाले व्यक्ति या राजनेता के प्रति उसकी भावना शायद ही बदलती है। यह प्रयोग और अध्ययन ट्रम्प के संदर्भ में किया गया।

ट्रम्प का अपनी जनता से झूठ बोलने का कीर्तिमान है। ट्रम्प के झूठ फ़ौरन मीडिया द्वारा पकड़ भी लिए जाते रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत से उलट अमेरिका की जनता के पास सही सूचना के स्रोतों की कमी नहीं है। फिर भी ट्रम्प की जनता उनसे अपना समर्थन वापस लेने का निर्णय नहीं करती। क्यों?

जनता को झूठ मालूम हो तो?

अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने इस गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रयोग और अध्ययन किए। उन्होंने पाया कि ऐसा नहीं है कि अगर जनता को मालूम हो कि उनका नेता उनको लगातार गुमराह कर रहा है तो वे उसके प्रति अपने समर्थन पर पुनर्विचार न करें लेकिन यह आनुपातिक रूप से बहुत कम होता है और अगर हो भी तो स्थायी नहीं रहता।

ग़लत सूचना स्मृति को प्रभावित करती रहती है। उसे दुरुस्त कर लेने के बाद भी वह तर्क क्षमता पर असर डालती है। इसे मिथ्यासूचना के प्रभाव का नैरंतर्य कहा गया है। एकबार सूचना सही मान ली गई तो उसके आधार पर बने विश्वास में परिवर्तन करना कठिन होता है। 

मिथ्या सूचना का प्रभाव उसके ग़लत साबित होने के बाद भी चुनाव करने या सोचने के तरीक़े पर पड़ता रहता है, इसके लिए ज़रूरी है कि एक तरह की धारणा को गढ़ने या पुष्ट करनेवाले झूठों का सिलसिला बनाया जाए। इसीलिए इक्का-दुक्का झूठ से काम नहीं चलता, उसका अम्बार खड़ा करना पड़ता है। एक झूठ दूसरे से गुँथा रहता है और वे सब मिलकर झूठ की एक मज़बूत रस्सी बना देते हैं।

इन सारे प्रयोगों और अध्ययनों से यह बात निकल कर आई कि अगर समाज विभाजित है और विभाजन रेखा के एक तरफ़ की जनता या मतदाता को यक़ीन है कि उसके साथ ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है तो सच और झूठ का प्रश्न उसके लिए अप्रासंगिक है। वह सिर्फ़ यह देखता है कि वह जिस प्रकार का समाज या देश चाहता है, उसे हासिल करने में उसकी मदद कौन कर सकता है।

एक दूसरे अध्ययन ने इसे और भी कठोर और नग्न रूप में पेश किया। एक झूठे लफ़्फ़ाज़ की अपील क्यों प्रामाणिक होती है, इस सवाल का जवाब इस अध्ययन में दिया गया है। (The Authentic Appeal of the Lying Demagogue: Proclaiming the Deeper Truth About Political Illegitimacy) ऐसा नहीं कि किसी झूठे लफ़्फ़ाज़ का समर्थन लोग इसलिए करते हैं कि उसे वे सद् गुण संपन्न मानते हैं। ऐसा होता तो ट्रम्प को उनके मतदाता उदार और ईमानदार मानते। लेकिन ट्रम्प के बारे में उनका ख़याल यह नहीं है। वे ट्रम्प के झूठ को जायज़ ठहराने की कोशिश करते यह कहकर कि यही सच है। लेकिन वे इसकी मजबूरी नहीं मानते। बल्कि वे ट्रम्प के झूठ को स्थापित मान्यता के विरुद्ध एक प्रतीकात्मक विरोध मानते हैं। दूसरे शब्दों में वे उसके झूठ को ज़रूरी मानते हैं।

इसका अर्थ यह है कि जनता अपने नेता से अब सच की अपेक्षा ही नहीं करती। वह जितना झूठ बोलता जाता है, उतना ही अधिक प्रामाणिक होता जाता है क्योंकि यह झूठ जनता को उसकी मान्यता को वैध ठहराने में मदद करता है। तो जनता और झूठ और झूठ माँगती है। नेता उसे झूठ की लगातार सप्लाई जारी रखकर संतुष्ट करता है।

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मक्कारी इस प्रकार सिर्फ़ नेता की नहीं और जनता बेचारी सूचनाविहीन निरीह भी नहीं। मक्कारी उसकी तरफ़ से भी है। कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान ट्रम्प के झूठ या मिथ बोले उनकी जनता के लिए ख़तरनाक थे क्योंकि उनसे उनके जीवन मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ था। फिर भी ट्रम्प समर्थक नेता से वफ़ादारी वापस लेने के मूड में नहीं। आख़िर वह कौन सी चीज़ है जो अपने स्वास्थ्य और जीवन से भी अधिक प्यारी है जिसके लिए ट्रम्प के लोग अपनी बलि देने को तैयार हैं?

वह है उनमें और ट्रम्प में अमेरिका की कल्पना को लेकर ऐसी सहमति जिसमें कोई दरार नहीं है। ट्रम्प के पहले तक उस कल्पना को लेकर समाज और राजनीति में संकोच रहा है। ट्रम्प ने उस संकोच के पर्दे को फाड़ दिया है। इससे उनकी जनता में भी साहस आया है।

यह जनता झूठ को दुरुस्त करने के प्रयासों को अपने ऊपर हमले की तरह देखती है। वह जनता सूचनारहित या सूचनाहीन नहीं। वह सूचना की शत्रु जनता में बदल गई है। वह सूचना चाहती ही नहीं।

इसलिए ट्रम्प को यह हिम्मत मिलती है कि वह न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अख़बारों को ही झूठा साबित कर दें। अगर पत्रकारों पर हमला हो या उन्हें दंडित किया जाए तो जनता रुष्ट नहीं, प्रसन्न और संतुष्ट ही होगी।  

तो क्या सच हार मान ले? क्या झूठ का प्रतिकार ही न किया जाए?  क्या विभाजित समाज में कोई साझा सच न होगा? ये ही मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उनके प्रयोगों से यह भी आशा बँधती है कि अगर मिथ्या सूचना के बरअक्स सत्य पेश किया जाता रहे तो जनता में पुनर्विचार की प्रेरणा जगती है। साथ ही इस अंतरनिर्भर और एक अंतःसंबद्ध विश्व में एक दूसरी मूल्य व्यवस्था प्रतिष्ठित दिखलाई पड़े तो भी वह अपने चुनाव पर पुनर्विचार कर सकती है। उसे यह यक़ीन भी होना चाहिए कि व्यक्ति के अपने जीवन, समाज का एक दूसरा आदर्श है जिसमें कुछ लोग उतनी ही दृढ़ता से यक़ीन करते हैं तो भी वह अपने चुनाव के बारे में फिर से सोच सकती है। इसके मायने यही हैं कि संज्ञानात्मकता की एक ही अभिप्रेरणा की तानाशाही नहीं होनी चाहिए। प्रतियोगी अभिप्रेरणा के टिके रहने से ही संशोधन का अवसर बचा रहेगा। यानी वह कवि बचा रहे जो कह सके कि बिना प्रश्न पूछे हत्यारे को छिपा लेना प्रेम नहीं है। है वह अनैतिक ही। प्रेम की संस्कृति में प्रश्न अनिवार्य है।

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