फ़िल्मी गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर के हाल के एक इंटरव्यू के एक छोटे से हिस्से ने भारत के बहुत पुराने मसले पर बहस को फिर से जगा दिया है। यह मसला है भारत में मुसलमानों को ‘ग़ैर मुसलमान’ इलाक़ों में मकान न मिलने का। जावेद अख़्तर की पत्नी शबाना आज़मी ने 2008 में बतलाया था कि उन्हें मुसलमान होने की वजह से उनके अपने शहर मुंबई में मकान देने से इनकार कर दिया गया।
2025 में इस घटना को याद करते हुए जावेद अख़्तर ने इस इनकार का तर्क खोजा। उन्हें मालूम हुआ कि बेचारा मकान मालिक सिंधी था और उसका परिवार 1947 के बँटवारे में अपना घर बार छोड़कर भागने को मजबूर हुआ था। जावेद अख़्तर ने उसके मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की और कहा कि बँटवारे की नाइंसाफ़ी का ज़ख़्म गहरा था और उसी वजह से उसके मन में मुसलमानों के लिए दुराव पैदा हो गया था। उसे समझने की ज़रूरत है।
जावेद अख़्तर ने आज भारत में मुसलमानों को मकान न मिलने के लिए पाकिस्तान के निर्माण, बँटवारे और पाकिस्तान से हिंदुओं की बेदख़ली को ज़िम्मेवार ठहराया। वे पाकिस्तानी को कह रहे थे कि आज भारत में मुसलमानों के साथ होने वाले भेदभाव के लिए वे ज़िम्मेवार हैं। शबाना आज़मी ने अपने उसी इंटरव्यू में कहा कि उन्हें मालूम हुआ है कि सैफ़ अली ख़ान को भी उन्हीं की तरह मकान देने से इनकार किया गया क्योंकि वे मुसलमान हैं। उनके घर में उन पर हुए हमले के बाद सैफ़ ने 2025 में याद किया कि कोई 15 साल पहले उन्हें मुसलमान होने के कारण मकान देने से मना कर दिया गया था।
जावेद अख़्तर ने मज़ाक़िया लहजे में कहा कि यह विडंबना है कि शबाना को मुसलमान माना जाता है। जावेद अख़्तर बार बार ख़ुद को नास्तिक कहते रहे हैं। यानी कम से कम उनके साथ तो मुसलमान वाला व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए था। सैफ़ अली ख़ान को चलताऊ ज़ुबान में आधा मुसलमान कहा जा सकता है क्योंकि उनकी माँ हिंदू हैं। लेकिन इससे फ़र्क नहीं पड़ता। नास्तिक होने का लाभ जावेद अख़्तर को नहीं मिलेगा। असल बात आपका नाम है जो मुसलमानी जान पड़ता है। वह काफ़ी है इनकार के लिए।
जिस पाकिस्तानी कलाकार ने मकान के मामले में मुसलमानों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया था जावेद अख़्तर ने उस पर तंज कसते हुए कहा कि वे और शबाना तो सड़क पर सो रहे हैं! यानी उसका आरोप ग़लत है कि उनके साथ या भारत में मुसलमानों के साथ मकान के मामले में कोई भेदभाव हो रहा है।
जावेद अख़्तर जानते हैं कि वे ग़लत बोल रहे है और उनका तर्क कमजोर है। उन्हें मकान देने से इनकार करने वाले के मन में उसके साथ या उसके पूर्वज के साथ जावेद अख़्तर के हममज़हबों के द्वारा किए अन्याय की याद रही होगी। उसके ज़रिए वे उसके इनकार की व्याख्या कर सकते हैं। लेकिन वे बाक़ी मामलों की व्याख्या कैसे करेंगे? भारत के अलग-अलग शहरों में रोज़ाना मकान खोजते हुए हज़ारों हज़ार मुसलमानों को बार-बार जब मकान देने से मना किया जाता है, क्या उसका कारण भी मना करने वालों के या उनके पुरखों के साथ मुसलमानों के द्वारा किया गया कोई अन्याय है?
जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के अध्यापक मोहसिन आलम भट और आसफ़ अली के द्वारा किए गए एक अध्ययन के ज़रिए यह मालूम होता है कि यह भेदभाव व्यवस्थागत और संरचात्मक है। उन्होंने दिल्ली और मुंबई में कोई 200 लोगों के साथ इंटरव्यू और गहरी बातचीत के माध्यम से यह नतीजा निकाला कि यह भेदभाव व्यापक है और बढ़ता जा रहा है। उन्होंने किराएदारों का मकान ख़रीदनेवलों, बिचौलियों और मकान मालिकों से बात करके अपनी रिपोर्ट तैयार की। उसमें यह भी पाया गया कि कुछ पहले तक जहाँ थोड़े दबे ढँके तरीक़े से मना किया जाता था, कोई बहाना बनाया जाता था,अब खुलेआम मना कर दिया जाता है।
मेरे कई मुसलमान मित्रों ने, जिनमें पत्रकार, अध्यापक, अधिकारी, व्यापारी शामिल हैं, मकान खोजते हुए बार-बार यह इनकार झेला है। उन्हें बिचौलिए अब पहले ही कह देते हैं कि न्यू फ़्रेंड्स कॉलोनी, मालवीय नगर जैसे इलाक़ों में या हिंदू बहुल अपार्टमेंट्स में उन्हें मकान खोजने में वक्त बर्बाद नहीं करना चाहिए। उन्हें मशविरा दिया जाता है कि वे या ओखला जैसी जगह में अपने लिए जगह तलाश करें। यानी मुसलमान बहुल इलाक़ों में ही घर खोजें। यह मसला सिर्फ़ दिल्ली या मुंबई का नहीं। पटना, लखनऊ, बैंगलोर, पुणे, हर जगह मुसलमानों को उनके चाहे हुए इलाक़ों में शायद ही घर मिले।
जावेद अख़्तर ऐसे लोगों को क्या जवाब देंगे? क्या यह जवाब है कि पाकिस्तान बनने के बाद यह तो उन्हें बर्दाश्त करना ही पड़ेगा? कि सभी हिंदुओं के मन में विभाजन के चलते अन्याय का भाव जीवित है? इसके लिए चूँकि मुसलमान ज़िम्मेवार माने जाते हैं, उन्हें आज भी हिंदू सजा दे रहे हैं?
या अन्याय का यह भाव और कारणों से भी पैदा होता है? मसलन, औरंगज़ेब के द्वारा की गई ‘ज़्यादतियाँ’ या राणा प्रताप के ख़िलाफ़ अकबर का युद्ध? अन्याय का भाव सिर्फ़ 75 साल तक ही क्यों सीमित रहे? वह 500 साल पुराना क्यों न हो?
अभी मैं पटना में था। वहाँ एक मित्र से इस विषय में बात हो रही थी। उन्होंने बतलाया कि उनके बग़ल के अपार्टमेंट में बिल्डर ने कोई 6 मुसलमानों को फ्लैट दे दिए। यह अनहोनी बात थी। उनके एक पड़ोसी ने कहा, अब देखिएगा मुर्ग़े, मीट की दुकान खुलेगी। मोहल्ले में गंदगी बढ़ जाएगी। मेरे मित्र ने कहा, सफ़ाई का ज़िम्मा मुनिस्पैलिटी का है। वह ध्यान रखेगी। लेकिन पड़ोसी का असंतोष बना हुआ था। क्या जावेद अख़्तर इसे भी एक वाजिब वजह मानेंगे जिसके कारण मुसलमानों को मकान देने से मना किया जा सकता है? मुसलमानों का मांसाहार हिंदुओं की शुचिता के भाव को आहत करता है। क्या यह पर्याप्त कारण नहीं कि वे मुसलमानों को मकान न लेने दें? क्या मुसलमानों को यह नहीं समझना चाहिए?
मकान के मामले में भेदभाव सबसे ज़्यादा मुसलमानों को झेलना पड़ता है। उससे शायद कुछ ही कम दलितों को। कई बार वे नाम बदल कर या आधा नाम बतलाकर मकान लेते हैं। लेकिन अब मकान मालिक आधार कार्ड देखना चाहते हैं। दलितों के साथ शहरों में मकान के मामले में भेदभाव की व्याख्या जावेद अख़्तर कैसे करेंगे? किस ऐतिहासिक अन्याय की याद के कारण सवर्ण हिंदू दलितों को मकान नहीं देते?
असल मामला भेदभाव का है। ऊँच नीच का और छूआछूत का। जावेद अख़्तर जिस उर्दू के लेखक हैं, उसी ज़ुबान के उनके पुरखे प्रेमचंद को हिंदू समाज की यह बुनियादी कमजोरी मालूम थी। उन्होंने आज से 100 साल पहले लिखा था कि जाति के कारण भेदभाव की भावना हिंदू समाज के मूल में है। चूँकि एक हिंदू दूसरे हिंदू से जाति के कारण भेदभाव करता है, उसे मुसलमानों के साथ भेदभाव स्वाभाविक ही लगता है। उनके मुताबिक़ सांप्रदायिकता का वैचारिक आधार जातिवाद है। उसमें अलग-अलग स्तर का छूआछूत है। मुसलमानों को मकान न देने के पीछे यही विचारधारा है।
जावेद अख़्तर हिंदुओं की नस में घुसी हुई भेदभाव की इस विचारधारा पर उँगली नहीं रखते। शायद मुसलमान होने के कारण हिंदुओं की इस बीमारी के बारे में बात करने में उन्हें झिझक हो। लेकिन हमें तो अपनी सच्चाई मालूम है। फिर हम जावेद अख़्तर को क्यों न बताएँ कि हम आपके शिष्टाचार के क़ायल हैं लेकिन अपनी सच्चाई से मुँह मोड़ने से हमारा भी नुक़सान होगा?