परम सुंदरी फिल्म का पोस्टर
29 अगस्त को रिलीज़ हुई परम सुंदरी दिल्ली के एक लड़के परम (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और केरल की लड़की सुंदरी (जाह्नवी कपूर) की प्रेम कहानी है। यह फ़िल्म प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई एक रोमांटिक कहानी होने का दावा करती है, लेकिन इसका केरल की संस्कृति और मलयाली किरदारों का चित्रण विवादों में घिर गया है। खासकर, जाह्नवी कपूर के किरदार सुंदरी को जिस तरह पेश किया गया है, उसे अपमानजनक बताया जा रहा है। वैसे हिंदी फ़िल्मों में दक्षिण भारतीय किरदारों का मज़ाक़ उड़ाने की बीमारी पुरानी है।
सुंदरी को फ़िल्म में एक ऐसी मलयाली लड़की के रूप में दिखाया गया है, जो हमेशा मोगरे के फूलों की लड़ी अपने बालों में सजाए रखती है, हाथियों से बातें करती है, और प्यास लगने पर नारियल के पेड़ पर चढ़ जाती है। सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल है जिसमें जाह्नवी नारियल के पेड़ पर चढ़ी दिख रही हैं। इसने इस सवाल को हवा दी कि क्या मलयाली लड़कियाँ वाकई ऐसी होती हैं? मशहूर फ़िल्म समीक्षक सौम्या राजेंद्रन ने इस फ़िल्म को “सामान्य, थकाऊ और आपत्तिजनक” करार दिया। उन्होंने लिखा कि केरल के खूबसूरत सेट और संगीत के पीछे एक ‘क्लीशे’ छिपा है, जो केरल को किसी अजनबी या विदेशी धरती की तरह पेश करता है।
सबसे हैरानी की बात यह है कि सुंदरी, जो फ़िल्म में केरल में पली-बढ़ी है, की मलयालम इतनी खराब है कि इसे सोशल मीडिया पर “नृशंस” तक कहा गया। यह सवाल उठता है कि क्या हिंदी सिनेमा दक्षिण भारतीय किरदारों को लेकर ऐसा लापरवाह रवैया क्यों रखता है?
दक्षिण भारत को लेकर स्टीरियोटाइप क्यों
परम सुंदरी कोई अपवाद नहीं है। हिंदी सिनेमा में दक्षिण भारतीय किरदारों को अक्सर मज़ाक का पात्र बनाया जाता रहा है। याद कीजिए फ़िल्म थ्री इडियट्स का किरदार चतुर रामलिंगम, जिसे अभिनेता ओमी वैद्य ने निभाया था। यह किरदार हिंदी को टूटी-फूटी भाषा में बोलता है और “चमत्कार” और “बलात्कार” जैसे शब्दों का गलत इस्तेमाल कर दर्शकों को हँसाता है। इस किरदार को दर्शकों ने खूब सराहा, लेकिन हर ताली इस बात की गवाही दे रही थी कि हिंदी भाषी दर्शक दक्षिण भारतीय किरदारों को किस नज़रिए से देखते हैं।
हिंदी सिनेमा में दक्षिण भारतीय किरदारों को या तो बहुत पढ़ा-लिखा इंजीनियर-डॉक्टर टाइप दिखाया जाता है या फिर भारी लहजे वाले, हास्यास्पद और “अनपढ़” जैसे चरित्रों में ढाला जाता है। इनका इस्तेमाल ज्यादातर हँसी उड़ाने या ठहाके लगवाने के लिए होता है। फ़िल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा ने एक साक्षात्कार में कहा, “हिंदी सिनेमा में दक्षिण भारतीय किरदारों को अक्सर ‘अन्य’ (outsider) की तरह दिखाया जाता है, ताकि दर्शक हँस सकें। लेकिन यह हँसी कई बार अपमानजनक हो जाती है।”
दक्षिण भारत को लेकर इतनी हीन भावना क्यों
क्या हिंदी सिनेमा का यह रवैया किसी सांस्कृतिक वर्चस्व या हीन भावना का नतीजा है? समाजशास्त्रियों का मानना है कि हिंदी सिनेमा क्षेत्रीय पहचानों को रूढ़ियों में बाँधकर सांस्कृतिक गलतफहमियाँ पैदा करता है। यह एक तरह का “सांस्कृतिक वर्चस्व” है, जिसमें हिंदी भाषी क्षेत्र अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ दिखाने की कोशिश करता है। लेकिन सच्चाई यह है कि दक्षिण भारत कई मायनों में उत्तर भारत से कहीं आगे है।
उत्तर बनाम दक्षिण: कुछ आँकड़े
शिक्षा: केरल: साक्षरता दर 96.2% (2021) तमिलनाडु: 80.3% उत्तर प्रदेश: 73% बिहार: 69.8%
स्वास्थ्य (शिशु मृत्यु दर, प्रति 1000 जन्म): केरल: 6 तमिलनाडु: 15 उत्तर प्रदेश: 41 बिहार: 46
आय (प्रति व्यक्ति, 2021-22):
केरल: ₹2.8 लाख
तमिलनाडु: ₹2.5 लाख
उत्तर प्रदेश: ₹70,000
बिहार: ₹50,000
जीडीपी योगदान (2022-23): दक्षिण भारत (केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना): भारत की जीडीपी में लगभग 30% योगदान।
उत्तर भारत (उत्तर प्रदेश, बिहार): लगभग 15%
ये आँकड़े साफ़ बताते हैं कि दक्षिण भारत शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास में उत्तर भारत से कहीं आगे है। फिर भी, हिंदी सिनेमा दक्षिण भारतीय संस्कृति को मज़ाक का विषय बनाकर अपनी हीन भावना को छिपाने की कोशिश करता है।
हिन्दी सिनेमा में सौंदर्य के मानक
हिंदी सिनेमा में एक और समस्या है सौंदर्य के मानकों की। परम सुंदरी में सुंदरी का किरदार जाह्नवी कपूर ने निभाया, लेकिन क्या केरल की कोई अभिनेत्री इस किरदार के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती थी? क्या केरल की श्यामल रंगत वाली लड़कियाँ बॉलीवुड के सौंदर्य के मानकों में फिट नहीं बैठतीं? यह वही समस्या है, जो ‘मैरी कॉम’ में देखने को मिली थी। मणिपुर से आने वाली मैरी कॉम को 2012 के लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक मिला था। लेकिन उनका किरदार निभाने के लिए प्रियंका चोपड़ा को चुना गया जो कहीं से भी मणिपुर की नहीं लगती। बाद में प्रियंका ने भी स्वीकार किया था कि उत्तर-पूर्व की किसी अभिनेत्री को यह किरदार निभाना चाहिए था।
भारत जैसे देश में, जहाँ रंग, रूप, भाषा, बोली और पहनावे की इतनी विविधता है, बॉलीवुड का यह आग्रह कि नायक-नायिका गोरे-चिट्टे और राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स से निकले अप्सराओं जैसे हों, न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि सांस्कृतिक विविधता का अपमान भी है।
हॉलीवुड का सबक़
हॉलीवुड भी कभी इस समस्या से ग्रस्त था। 1900 से 1960 के बीच अश्वेत किरदारों को गुंडे, मवाली, नौकर या मज़ाक का पात्र बनाया जाता था। लेकिन 1960-70 के दशक में सिविल राइट्स मूवमेंट और सिडनी पोइटियर जैसे अभिनेताओं के उभरने ने हॉलीवुड की तस्वीर बदली। आज डेंज़ल वॉशिंगटन, मॉर्गन फ्रीमैन, विल स्मिथ और हैली बैरी जैसे अश्वेत सितारे हॉलीवुड की शान हैं।
हॉलीवुड ने सीख लिया कि किसी राष्ट्र की ताकत उसकी विविधता में है, और सौंदर्य का कोई एक मानक नहीं हो सकता। लेकिन बॉलीवुड अभी भी इस सबक से कोसों दूर है।
हिंदी सिनेमा को यह समझने की ज़रूरत है कि दक्षिण भारतीय किरदारों को मज़ाक का पात्र बनाकर वह न केवल सांस्कृतिक गलतफहमियाँ बढ़ा रहा है, बल्कि देश की एकता को भी कमज़ोर कर रहा है। अगर भारत को एक मज़बूत राष्ट्र बनना है, तो उसे अपनी विविधता का सम्मान करना होगा। बॉलीवुड को चाहिए कि वह दक्षिण भारत की समृद्ध संस्कृति को गंभीरता से पेश करे और सौंदर्य के एकांगी मानकों से बाहर निकले। आखिरकार, सच्चा सौंदर्य विविधता में ही है।