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ढोल, गँवार, सूद्र, पसु, नारी वाली चौपाई में 'ताड़ना' का अर्थ पीटना है या समझना?

बिहार में राजद के मंत्री के एक बयान से एक बार फिर तुलसी दास को लेकर बहस छिड़ गई है। इस सिलसिले में रामचरितमानस की एक चौपाई केंद्र में है जिसमें सुंदरकांड में समुद्र राम से कहते हैं कि ढोल-गँवार-सूद्र-पसु-नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।

इस चौपाई में प्रयुक्त ताड़ना शब्द लंबे समय से विवाद में रहा है कि यहाँ इसका क्या अर्थ है। कुछ लोग कहते हैं कि यहाँ ताड़ना का मतलब 'समझना' है यानी शूद्र-नारी आदि समझे जाने के अधिकारी हैं। कुछ और लोग कहते हैं कि ताड़ना का अर्थ पीटना है। यानी ये सब पीटे जाने के लायक़ हैं।

आइए, हम समझने की कोशिश करते हैं कि यहाँ ताड़ना का क्या अर्थ होगा और क्यों।

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किसी भी शब्द का अर्थ उसके आसपास के परिप्रेक्ष्य से ही समझा जा सकता है। इसलिए पहले समझना होगा कि समुद्र किस संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग कर रहा है।

प्रसंग तब का है जब राम के लंका अभियान में समुद्र बाधा बना हुआ था और वह राम व उनकी सेना को रास्ता नहीं दे रहा था। तीन दिनों तक विनय करने के बाद भी समुद्र ने मार्ग नहीं दिया। तब राम ने लक्ष्मण से कहा कि धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सुखा देता हूँ। इसके बाद राम ने अग्निबाण से निशाना साधा जिससे समुद्र के अंदर अग्नि जल उठी और समुद्र गिड़गिड़ाता हुआ राम के समक्ष उपस्थित हुआ।

समुद्र ने राम के पैर पकड़ लिए और माफ़ी माँगते हुए कहा कि आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी - इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है। इसके बाद वह कहता है कि आपने अच्छा ही किया जो मुझे सबक़ सिखाया।

ठीक इसके बाद वह लाइन आती है - ढोल, गँवार, सूद्र, पसु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी। पूरी चौपाई इस तरह है - 

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥ 

ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी । 

यानी समुद्र डाँट खाए व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहा है। ख़ुद को जड़ बताने के बाद राम द्वारा ख़ुद को 'सबक़ सिखाए जाने' को उचित बता रहा है और 'ढोल' सहित ऐसी श्रेणियाँ गिना रहा है जो 'ताड़ना' के लायक है।

अब ताड़ना का अर्थ अगर 'पिटाई' लगाया जाए तो वह यहाँ ठीक बैठता है क्योंकि समुद्र इस वाक्य से पहले ख़ुद को दंड दिए जाने और सबक़ सिखाए जाने को उचित बता रहा है। इसके साथ यह भी है कि 'ढोल' को तो पीटा ही जाता है।

कुछ लोग यहाँ ढोल को ढोर यानी मवेशी कर देते हैं। लेकिन यह सही नहीं। दो कारणों से। पहला कारण यह कि इस चौपाई में पशु (पसु) का भी ज़िक्र है। सो पशु के साथ ढोर को अलग से जोड़ने का कोई मतलब नहीं। दूसरे, पशुओं या मवेशियों को भी हाँका ही जाता है। अगर ताड़ना का अर्थ 'समझना' लिया जाए तो पशुओं-मवेशियों को भला कैसे 'समझा' जा सकता है? आपकी जानकारी के लिए 'ढोल' शब्द का पूरे मानस में तीन और जगह इस्तेमाल हुआ है और उन तीनों जगहों पर उसका अर्थ बजने वाला ढोल ही है।

और सबसे बड़ी बात यह कि जब बात दंड दिए जाने और सबक़ सिखाए जाने की हो रही है तो समुद्र क्यों कहेगा कि ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी को 'समझा' जाना चाहिए?

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‘समझो’ शब्द का इस्तेमाल कोई कब करता है? मेरी मजबूरी समझो, मेरी बात को समझो - यह कोई तभी कहता है जब कोई अपनी ग़लती को 'नहीं' मानता। जब कोई अपनी सफ़ाई देता है, अपने काम को सही ठहराता है। यहाँ समुद्र कोई सफ़ाई नहीं दे रहा। वह तो मान रहा है कि मैं जड़ हूँ, डाँट के लायक़ हूँ। ऐसे में ताड़ना का अर्थ भी वही निकलता है कि ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी की ही तरह मैं भी पिटाई के लायक हूँ।

यह तो रहा प्रसंग के आधार पर ताड़ना का अर्थ। लेकिन हमारे पास एक और तरीक़ा है यह पता लगाने का कि तुलसीदास ताड़ना से क्या समझते या समझाते हैं।

पूरे रामचरितमानस में ताड़ना या ताड़न का दो और जगह प्रयोग हुआ है। एक बार तब जब मंदोदरी को मेघनाद की मृत्यु का संवाद मिलता है और दूसरी बार तब जब राम के बाण से बिंधे रावण के सर और भुजाएँ मंदोदरी के समक्ष गिरते हैं और वह पति की गति देखकर छाती पीटती है।

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दोनों चौपाइयाँ देखें।

मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी।।

नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा।

मंदोदरी छाती 'पीट-पीटकर' और बहुत प्रकार से पुकार-पुकार कर बड़ा भारी विलाप करने लगीं। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे।

पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुषसँभारा।। 

उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना।

पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह सँभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं।

आपने देखा कि दोनों ही चौपाइयों में ताड़न/ताड़ना का अर्थ (छाती) पीटना ही है।

जब यहाँ ताड़न/ताड़ना का अर्थ पीटना है तो ढोल-गँवार-सूद्र-पसु-नारी वाली चौपाई में भी उसका वही अर्थ होना चाहिए।

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नीरेंद्र नागर
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