प्रधानमंत्री मोदी ने आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए 370 सीटें और एनडीए के लिए 400 सीटों का लक्ष्य रखा है। वह लगातार यह दावा कर रहे हैं। देश के करीब आठ दशक के संसदीय इतिहास में किसी आम चुनाव में इस तरह से सीटें हासिल करने का दावा शायद पहले कभी नहीं किया गया। मानो भाजपा की जीत तो सुनिश्चित है ही, बात सिर्फ़ जीत के फासले की है।
वास्तव में इस दावे का अपना एक मनोविज्ञान भी है। यह एंटी इंकबेंसी के खिलाफ़ जनता को अपने पक्ष में करने का एक तरीका है। और उससे भी कहीं अधिक यह विपक्षी गठबंधन इंडिया पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश है। क्या सचमुच भाजपा के पक्ष में एक बड़ी 'चुनावी लहर' हिलोरे मार रही है? सवाल का जवाब तलाशने में देश के अब तक हुए लोकसभा चुनावों पर नज़र डालने से कुछ मदद मिल सकती है।
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अव्वल तो यह कि मई 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा को मिली सफलता के बाद से मोदी ही भाजपा का चेहरा हैं। भाजपा की उस जीत को 'मोदी लहर' कहा गया। मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत का सिलसिला न केवल जारी रहा, बल्कि उसने 2014 में मिली 282 सीटों के मुक़ाबले 2019 में 303 सीटें हासिल कीं। और अब 2024 में लक्ष्य भाजपा के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 का है।
वैसे, सीटों के आँकड़ों के मामले में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अब भी पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को लोकसभा चुनावों में मिली सफलता से काफी दूर है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने 1951-52 से 1962 तक शुरुआती तीन आम चुनावों में लगातार जीत हासिल की थी। 26 जनवरी, 1950 को देश के गणतंत्र बनने के बाद 1951-52 में पहले आम चुनाव हुए थे। यह बहुदलीय लोकतंत्र की दिशा में देश का पहला क़दम था, जिसमें नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने लोकसभा की कुल 489 सीटों में से 479 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 364 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने 44.99 फीसदी वोट हासिल किए थे। इसके पांच साल बाद 1957 में हुए आम चुनाव में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने 490 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसकी सीटें बढ़कर 371 हो गईं। उसके वोट भी बढ़कर 48.12 फीसदी हो गए। नेहरू के नेतृत्व में 1962 में हुए तीसरे आम चुनाव में कांग्रेस की सीटें घटकर 361 हो गईं और उसका वोट भी गिरकर 44.72 फीसदी पर आ गया।  कहने की ज़ररूत नहीं कि आजादी के आंदोलन के एक नायक नेहरू का कद तब के किसी भी राजनीतिक दल के नेता से कहीं अधिक बड़ा था। फिर भी, उन्होंने एकतरफ़ा जीत के दावे के बजाय बहुदलीय लोकतंत्र को परिपक्व करने का ही काम किया। 
1966 में प्रधानमंत्री बनने के सालभर बाद ही इंदिरा गांधी को 1967 में आम चुनाव का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस ने 516 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन पहली बार उसका आँकड़ा 300 से नीचे चला गया और वह 283 सीटें ही जीत सकी। उसके वोट में भी गिरावट आई और यह 40.78 फीसदी हो गया। लेकिन 1971 में समय से पहले कराए गए चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 352 सीटें जीतीं। उसे 43.48 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस विभाजन के बाद जिन परिस्थितयों में 1971 के चुनाव हुए थे और उसमें इंदिरा गांधी को जिस तरह की सफलता मिली, दरअसल इसे देश के संसदीय इतिहास में पहली 'चुनावी लहर' कहा जा सकता है।

मगर 1977 में हुए अगले लोकसभा चुनाव में उनके खिलाफ़ चली 'जनता लहर' ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया। इमरजेंसी और जबरिया नसबंदी के कारण इंदिरा सरकार बेहद बदनाम हो चुकी थी। फिर भी, जनता पार्टी 300 का आँकड़ा पार नहीं कर सकी थी और उसे 295 सीटें ही मिली थीं।

उसे कुल 41.32 फीसदी वोट मिले थे। यह 'जनता लहर' उत्तर भारत से नीचे उतरते-उतरते शांत हो गई। दक्षिण भारत में उसका असर नहीं था। कांग्रेस ने दक्षिणी राज्यों की बदौलत 154 सीटें हासिल की थीं।

1977 में सत्ता से बेदखल होने के महज ढाई साल बाद ही 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 353 सीटें जीतकर वापसी की थी। कांग्रेस को 42.69 फीसदी वोट मिले थे। जाहिर है, मोदी के नेतृत्व में हुए पिछले दो चुनावों में भाजपा नेहरू और इंदिरा को मिली सीटों की तुलना में अब भी काफी पीछे रही है।
विश्लेषण से और
जहाँ तक 400 की बात है, तो अब तक केवल एक बार, 1984 में कांग्रेस ने यह कमाल किया था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी की अगुआई में कांग्रेस ने 404 सीटें जीती थीं और उसे 49.1 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन यह अपवाद ही है, क्योंकि यह चुनाव इंदिरा गांधी शहादत की छाया में हुए थे, और कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिला था। 

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से पिछले एक दशक में भाजपा ने खुद को चौबीस घंटे काम करने वाली चुनावी मशीनरी में बदल दिया है। इसके बावजूद भाजपा के लिए 370 और एनडीए के 400 सीटों का लक्ष्य आसान नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जब भाजपा के लिए 370 सीटों और एनडीए के लए 400 सीटों की बात करते हैं, तो इससे यह भी होता है कि वह सहयोगी दलों से करीब 30-35 सीटों की उम्मीदें ही कर रहे हैं। यानी उन्हें एनडीए के सहयोगी दलों से 2014 और 2019 की तुलना में कम ही उम्मीद है! क्या एनडीए के सहयोगी दल इस पर गौर करेंगे?

2014 में भाजपा को 282 सीटें और एनडीए को 336 सीटें मिली थीं। यानी सहयोगी दलों ने 54 सीटें जीती थीं। भाजपा को 31 फीसदी और एनडीए को 38.5 फीसदी वोट मिले थे।

इसी तरह 2019 में भाजपा को 303 सीटें और एनडीए को 353 सीटें मिली थीं। यानी सहयोगी दलों को 50 सीटें मिली थीं। भाजपा का वोट बढ़कर 37.36 फीसदी और एनडीए का 45 फीसदी हो गया था। भाजपा ने इधर छोटे छोटे अनेक दलों को एनडीए में जोड़ा है और उनकी संख्या 30 से भी अधिक है, लेकिन हकीकत यह भी है कि पिछली बार की तुलना में शिवसेना से लेकर लोकजनशक्ति पार्टी तक विभाजित है। इस चुनाव में अकाली दल और भाजपा के एक साथ आने की सूरत अब तक बन नहीं पाई है। 

यह भी हकीकत है कि 2014 और 2019 में आम तौर विपक्ष बिखरा हुआ था। यह स्थिति आज भी है, लेकिन इंडिया गठबंधन के सदस्यों ने धीमी गति से ही सही उत्तर प्रदेश, दिल्ली और महाराष्ट्र सहित कुछ राज्यों में सीटों के तालमेल को अंतिम रूप दे दिया है। बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के कुछ विधायक टूटे हैं, लेकिन वहां एनडीए के मुकाबले इंडिया गठबंधन के आरजेडी तथा कांग्रेस एकजुट हैं। इसकी तसदीक रविवार को पटना के गांधी मैदान में हुई  इंडिया गठबंधन की पहली चुनावी रैली कहा जा सकता है। इसमें तेजस्वी यादव के साथ ही राहुल गांधी और अखिलेश यादव पूरी एकजुटता के साथ नजर आए।  उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में इंडिया गठबंधन की स्थिति अब भी भाजपा और एनडीए से बेहतर है। कर्नाटक को छोड़कर भाजपा कभी भी दक्षिण के किसी अन्य राज्य में कोई खास प्रभाव नहीं दिखा सकी है। 
भाजपा के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 सीटें हासिल करने का मतलब है कि समूचा विपक्ष और बीजेडी तथा वाईएसआर कांग्रेस जैसे भाजपा के गैरएनडीए मित्र दल 140-142 सीटों में सिमट जाएं? यानी पिछली बार की तुलना में इन दलों को 40-50 कम सीटें मिलें। क्या नवीन पटनायक और वाईएसआर रेड्डी के साथ ही केसीआर इसके लिए तैयार हैं? 

अंत में 370 सीटों का दावा और भाजपा कार्यकर्ताओं को हर बूथ से 370 अतिरिक्त वोट लाने का टारगेट प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की बेताबी को ही दिखा रहा है। यह अपने काम पर भरोसे से अधिक चुनाव प्रबंधन का काम अधिक लगता है। यह देश के 96.8 करोड़ मतदाताओं के विवेक पर प्रश्चचिन्ह भी है, जिन्हें मतदान के रूप में भारतीय संविधान ने एक बड़ी ताक़त दी है।