लद्दाख के मशहूर जलवायु कार्यकर्ता, इंजीनियर और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक की 26 सितंबर, 2025 को हुई गिरफ्तारी ने पूरे भारत में हंगामा मचा दिया है। लेह पुलिस ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत गिरफ्तार किया और राजस्थान के जोधपुर सेंट्रल जेल भेज दिया। उन पर आरोप है कि उन्होंने भड़काऊ भाषण देकर हिंसा को बढ़ावा दिया। लेकिन वांगचुक ने इन आरोपों को पूरी तरह खारिज किया और कहा कि उनकी लड़ाई शांतिपूर्ण है और सिर्फ संवैधानिक मांगों के लिए है। यह गिरफ्तारी 24 सितंबर को लेह में हुई हिंसक झड़पों के बाद हुई, जहां लद्दाख को ज्यादा स्वायत्तता और अधिकार देने की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे थे। इन झड़पों में कम से कम चार आम लोग मारे गए और 90 से ज्यादा घायल हुए। यह लद्दाख में कई दशकों की सबसे भयानक हिंसा थी।
सोनम वांगचुक कोई आम इंसान नहीं हैं। उन्हें तकनीकी शिक्षा में उनके शानदार योगदान के लिए रमन मैग्सेसे अवॉर्ड जैसे प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया है। इसके अलावा, उन्होंने भारत के सैनिकों के लिए खास काम किए हैं, खासकर लद्दाख जैसे सीमावर्ती इलाकों में। उनकी पहल ने सेना को सहायता दी और स्थानीय लोगों का समर्थन बढ़ाया। मेरे विचार में, ऐसे व्यक्ति को सम्मान और प्रोत्साहन मिलना चाहिए, न कि जेल की सजा। उनकी गिरफ्तारी को मैं न सिर्फ गलत मानती हूँ, बल्कि इसे केंद्र सरकार की शर्मिंदगी का कारण भी समझती हूँ। सरकार को इस दमनकारी कदम पर गहरा आत्ममंथन करना चाहिए। मौजूदा सरकार के लिए यह बहुत ही गलत फैसला साबित होने वाला है।  
यह गिरफ्तारी कोई पहली घटना नहीं है। यह 2019 में अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद से लद्दाख में बढ़ते तनाव का नतीजा है। उस समय जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांटा गया और लद्दाख को बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। वांगचुक की गिरफ्तारी उनकी पांचवीं भूख हड़ताल के खत्म होने के तुरंत बाद हुई, यह भूख हड़ताल 10 सितंबर से शुरू हुई और 35 दिन तक चलने वाली थी। लेकिन स्थानीय हिंसा के कारण शांति की अपील करते हुए उन्होंने भूख हड़ताल वापस ले ली थी। यह इस हिमालयी इलाके में सरकार की सख्ती और दमन को उजागर करता है। 
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मैं देखती हूँ कि यह घटना लोकतंत्र, संघीय ढांचे और सीमावर्ती इलाकों में स्थानीय लोगों की आवाज को कुचलने के गंभीर सवाल उठाती है। यहां राष्ट्रीय सुरक्षा का बहाना बनाकर लोगों के अधिकार छीने जा रहे हैं। लद्दाख की सिर्फ तीन लाख आबादी को नेपाल जैसे आंदोलनों से जोड़ना बिल्कुल गलत है। नेपाल में सत्ता बदलने की लड़ाई थी, लेकिन लद्दाख पिछले छह साल से शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रहा है। मैं मानती हूँ कि यह तुलना न सिर्फ अनुचित है, बल्कि लद्दाख के लोगों की शांतिपूर्ण कोशिशों को बदनाम करने की साजिश भी है।

मुख्य मांगें: संवैधानिक सुरक्षा और स्व-शासन की मांग

लद्दाख का आंदोलन लेह एपेक्स बॉडी (LAB) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) जैसे संगठनों के नेतृत्व में चल रहा है। यह चार मुख्य मांगों पर आधारित है, जो इस इलाके की खास समस्याओं को सामने लाती हैं। लद्दाख का पर्यावरण बहुत नाजुक है, आबादी कम है और 99% लोग अनुसूचित जनजाति से हैं। ये मांगें 2020 से जोर पकड़ रही हैं और 2019 के बदलाव के बाद की परेशानियों से जुड़ी हैं, जैसे स्थानीय संस्कृति का खत्म होना, पर्यावरण को नुकसान और स्थानीय लोगों का नियंत्रण खोना।

बीजेपी अपनी ही मांग से पीछे हटी

पहली मांग है कि लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किया जाए। इससे लद्दाख को अपनी जमीन, जंगल, पानी और खनन पर खुद फैसले लेने का हक मिलेगा। मैं समझती हूँ कि यह मांग इसलिए जरूरी है क्योंकि यहां 97-99% लोग जनजातीय हैं, जैसा पूर्वोत्तर भारत में होता है। इससे स्थानीय पहचान और संसाधनों को बाहरी लोगों के शोषण से बचाया जा सकता है। बीजेपी ने 2019 के चुनावी घोषणापत्र और 2020 के स्थानीय चुनावों में इस वादे को दोहराया था, लेकिन अब पीछे हट गई। मैं देखती हूँ कि खनन (ग्रेनाइट, चूना पत्थर, यूरेनियम) और सौर परियोजनाओं में बड़ी कंपनियों के हित इस रास्ते में रोड़ा हैं। ये कंपनियां स्थानीय लोगों के अधिकारों से ज्यादा अपने मुनाफे को तरजीह दे रही हैं। यह लद्दाख के लोगों के साथ घोर अन्याय है।

सेना की मदद करने वाले खुद कमज़ोर

दूसरी मांग है पूर्ण राज्य का दर्जा और एक मजबूत विधानसभा है। इससे लद्दाख में लोकतंत्र वापस आएगा। अभी सारी ताकत केंद्र के नियुक्त उपराज्यपाल (LG) के पास है। लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (LAHDCs) जैसे स्थानीय संगठन सिर्फ नाम के लिए रह गए हैं। 6,000 करोड़ रुपये के सालाना बजट में से सिर्फ 600 करोड़ रुपये उनके पास हैं। संसाधनों पर फैसले बाहर के लोग लेते हैं। सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया है। इससे सीमावर्ती गांवों में नाराजगी बढ़ी है, जो देश की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी हैं। यहां के लोग सेना को मदद देते हैं, लेकिन खुद को कमजोर महसूस करते हैं। यह स्थिति देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा है।

नौकरियों में पक्षपात क्यों

तीसरी मांग है कि लद्दाख में अपना लोक सेवा आयोग (PSC) बने, ताकि सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों को मौका मिले। पिछले छह साल से कोई नई भर्ती नहीं हुई। बाहर के लोग प्रशासन पर कब्जा जमाए हुए हैं। इससे बेरोजगारी बढ़ी है और लद्दाखी लोग अपने ही इलाके में हाशिए पर हैं। आरक्षण की नीतियां (जैसे जनजातियों के लिए 80%) तय हुई थीं, लेकिन काम नहीं हुआ। जम्मू, श्रीनगर और चंडीगढ़ के ठेकेदार बाजार पर कब्जा कर रहे हैं। मेरे हिसाब से, यह पक्षपात दिखाता है क्योंकि बड़े अधिकारी (LG, DGP, मुख्य सचिव) जम्मू से हैं। यह स्थानीय लोगों के साथ भेदभाव का स्पष्ट उदाहरण है।
चौथी मांग है कि लेह और कारगिल को अलग-अलग एक-एक लोकसभा सीट मिले। लद्दाख इतना बड़ा इलाका है कि एक सांसद सबकी जरूरतें नहीं देख सकता। इससे बौद्ध-बहुल लेह और मुस्लिम-बहुल कारगिल की अलग-अलग जरूरतें पूरी होंगी। सरकार ने 2026 तक सीटों पर रोक का बहाना बनाकर इसे खारिज कर दिया, जबकि जम्मू-कश्मीर में बदलाव किए गए। मैं इसे केंद्र की सत्ता बनाए रखने और आबादी में हेरफेर की चाल मानती हूँ। यह लद्दाख के लोगों की आवाज को और कमजोर करने की कोशिश है।

जनजातियों को बराबर का अधिकार और रक्षा ज़रूरी

ये मांगें भारत के संविधान से जुड़ी हैं, जो सभी इलाकों को बराबर अधिकार और जनजातियों की रक्षा की बात करता है। लेकिन सरकार बार-बार इन मांगों को नजरअंदाज कर रही है। मैं समझती हूँ कि यह दिखाता है कि वह स्थानीय लोगों की बजाय अपनी रणनीति और पैसे कमाने को ज्यादा अहमियत दे रही है। यह न सिर्फ लद्दाख के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए खतरनाक है।

भारत में आदिवासी इलाकों का दमन: लद्दाख की कहानी 

भारत में जहां-जहां आदिवासी रहते हैं, वहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है। लेकिन आज तक की सरकारें, जो कॉर्पोरेट्स के हितों को प्राथमिकता देती रही हैं, ने आदिवासियों की बुनियादी जरूरतों का भी ध्यान नहीं रखा। इसके बजाय, उन्होंने अमीरों और बड़ी कंपनियों के लिए सारी सुविधाएं दीं, खासकर पुलिस और प्रशासन का दुरुपयोग करके। इसीलिए भारत में आदिवासी इलाकों में अशांति और दमन की स्थिति बनी रहती है। जैसे ही स्थानीय लोग अपने अधिकार, अपनी पहचान और अपने पर्यावरण को बचाने की बात शुरू करते हैं, सरकारें डर जाती हैं। फिर शुरू होता है दमन और पुलिस की बर्बरता। अब ठीक यही सब लद्दाख में भी हो रहा है। 

लद्दाख जैसे खूबसूरत और संवेदनशील इलाके को इस तरह जलाने की कोशिश सरकार को नहीं करनी चाहिए। यह इलाका अपनी अनूठी संस्कृति, नाजुक पर्यावरण और सामरिक महत्व के लिए जाना जाता है। फिर भी, सरकार इसे कॉर्पोरेट्स के हवाले करने की कोशिश कर रही है, जो स्थानीय लोगों के लिए खतरा है। मैं मानती हूँ कि यह न सिर्फ लद्दाख के लोगों के साथ अन्याय है, बल्कि पूरे देश के लिए एक गलत मिसाल है। लद्दाख जैसे इलाके को कॉर्पोरेट्स के लिए लूट का बाजार बनाने की बजाय, सरकार को स्थानीय लोगों की संस्कृति, पर्यावरण और अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए।

दमन की रणनीति और लोकतंत्र पर हमला 

वांगचुक की गिरफ्तारी NSA के तहत हुई है। NSA एक बहुत सख्त कानून है, जो बिना मुकदमे के किसी को एक साल तक जेल में रख सकता है। मेरे विचार में, यह गिरफ्तारी लद्दाख में सरकार के दमन के बड़े पैटर्न को दिखाती है। यह कोई अचानक हुई घटना नहीं है। सरकार ने वांगचुक को निशाना बनाने के लिए कई कदम उठाए। गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले, 24 सितंबर को, उनकी NGO ‘स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख’ (SECMOL) का विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (FCRA) लाइसेंस रद्द कर दिया गया। सरकार ने कहा कि इसमें पैसे का गलत इस्तेमाल हुआ, लेकिन वांगचुक ने इसे पूरी तरह झूठ बताया।
 इससे पहले, उनके हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव लर्निंग (HIAL) का पट्टा रद्द किया गया। कारण बताया गया कि 2018 से बकाया राशि 14 करोड़ से बढ़कर 37 करोड़ हो गई और 135 एकड़ जमीन पर कोई विश्वविद्यालय नहीं बना। लेकिन मैं पूछती हूँ, क्या सरकार ने उन्हें काम करने का मौका दिया? ये सारी कार्रवाइयां, राजद्रोह का मुकदमा और CBI की जांचें वांगचुक को बदनाम करने की साजिश का हिस्सा हैं। सरकारी पक्ष के लोग और कुछ मीडिया उन्हें "विदेशी ताकतों से समर्थित उत्तेजक" बता रहे हैं। 
उन पर आरोप है कि वे चीनी हितों के लिए भारत के बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचा रहे हैं। लेकिन मैं देखती हूँ कि इन आरोपों के पीछे कोई ठोस सबूत नहीं है। यह सब उनकी आवाज को दबाने और उनके आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश है। यह सब लद्दाख को बदनाम करने, सोनम वांगचुक को दोषी बनाने के लिए बीजेपी के आईटी सेल और गोदी मीडिया का फैलाया हुआ प्रॉपगंडा है।
सरकार की यह रणनीति नई नहीं है। कश्मीर और मणिपुर जैसे इलाकों में भी सरकार विरोध को राष्ट्र-विरोधी बताकर कुचलती रही है। NSA जैसे सख्त कानून का इस्तेमाल एक ऐसे व्यक्ति पर करना, जो गांधीवादी तरीके से उपवास करता है और कभी हिंसा का सहारा नहीं लेता, मेरे हिसाब से बिल्कुल गलत है। यह लोकतंत्र पर सीधा हमला है। विपक्षी दल जैसे कांग्रेस, आप और CPI(M) ने इसे लोकतंत्र की हत्या बताया है। उन्होंने 24 सितंबर की हिंसा की न्यायिक जांच और वांगचुक की तुरंत रिहाई की मांग की है। 
मैं समझती हूँ कि इस तरह की कार्रवाइयां सीमावर्ती इलाकों के लोगों को और अलग-थलग करेंगी। ये लोग देश की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी हैं। वांगचुक खुद कहते हैं कि स्थानीय लोग सेना को हर तरह की मदद देते हैं जैसे खाना, रास्ता और दूसरी जरूरतें पूरी करते हैं। लेकिन अगर सरकार उनकी आवाज दबाएगी, तो यह समर्थन कैसे बचेगा?
सरकार की नीतियां और दमनकारी रवैया पूरी तरह निंदनीय है। 26 अगस्त, 2024 को पांच नए जिलों (लेह में शम, नुब्रा, चांगथांग; कारगिल में जांस्कर, द्रास) की घोषणा की गई। सरकार इसे प्रशासनिक सुधार बता रही है, लेकिन मैं इसे बीजेपी के लिए चुनावी फायदा लेने और आबादी में हेरफेर की चाल मानती हूँ। इससे स्क्यांगचुतांग (पांग) में 40,000 एकड़ का सौर पार्क जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स को रास्ता मिलेगा। ये प्रोजेक्ट्स चरागाहों, ग्लेशियरों और स्थानीय आबादी को नुकसान पहुंचाएंगे। 
बाहरी मजदूरों की भीड़ से लद्दाख की संस्कृति और पहचान खतरे में पड़ सकती है। हाइड्रो प्रोजेक्ट्स और खनन जैसे काम कॉर्पोरेट कंपनियों को फायदा पहुंचा रहे हैं। जापान-भारत का सौर सौदा, जो गीगावाट स्तर पर पहुंच गया है, इसका उदाहरण है। मैं देखती हूँ कि ये नीतियां भारत के अन्य जनजातीय इलाकों की तरह लद्दाख को भी लूट रही हैं। सरकार का यह रवैया घोर निंदनीय है। वह न सिर्फ अपने वादे तोड़ रही है, बल्कि स्थानीय लोगों की आवाज को कुचल रही है और कॉर्पोरेट्स को फायदा पहुंचा रही है। यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।

सामुदायिक एकता और सरकार की साजिश

सरकार ने लद्दाख में धार्मिक आधार पर लोगों को बांटने की कोशिश की। लेह में ज्यादातर बौद्ध हैं और कारगिल में मुस्लिम। लेकिन LAB और KDA की एकता ने इस साजिश को नाकाम कर दिया। 2022 में शिया मुस्लिमों ने बौद्ध मठ के लिए जमीन दान की, जिसने 42 साल पुराने विवाद को खत्म किया। मेरे विचार में, यह एकता भारत में, जहां धार्मिक ध्रुवीकरण आम है, बहुत दुर्लभ है। लेकिन सरकार इसे खतरे के रूप में देख रही है। वह नहीं चाहती कि लद्दाख के लोग एकजुट होकर अपनी मांगें उठाएं। इसीलिए वह दमन का रास्ता चुन रही है। मैं मानती हूँ कि यह रवैया न सिर्फ गलत है, बल्कि लद्दाख जैसे संवेदनशील और खूबसूरत इलाके को अशांति की आग में झोंक रहा है। सरकार को यह समझना चाहिए कि लद्दाख की शांति और स्थिरता देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है।

व्यापक प्रभाव: पर्यावरण, आबादी और राष्ट्रीय सुरक्षा

लद्दाख की मांगें सिर्फ अधिकारों की नहीं, बल्कि जीवन-मरण के सवालों से जुड़ी हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से "एशिया के जल मीनार" कहे जाने वाले ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इससे पानी की भारी कमी हो रही है। पर्यटन भी बढ़ रहा है। 2022 के पहले आठ महीनों में 4.5 लाख लोग लद्दाख आए। यह संसाधनों पर भारी दबाव डाल रहा है। बड़े प्रोजेक्ट्स से लद्दाख की 3.04 लाख आबादी (8 लोग प्रति वर्ग किमी) पर खतरा मंडरा रहा है। इससे स्थानीय लोग अपनी जमीन और पहचान खो सकते हैं। भूमि कानूनों में बदलाव, जैसे 'नौटोर' प्रथा का उपायुक्त के नियंत्रण में जाना, बंजर जमीन को हड़पने का रास्ता खोल रहा है। इससे बाहरी लोग फायदा उठा रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो इस तरह के दमन से सीमावर्ती इलाकों में अशांति बढ़ सकती है। पाकिस्तान का गिलगित-बाल्टिस्तान ज्यादा स्वायत्तता पा रहा है, जबकि लद्दाख अपने अधिकार खो रहा है। मैं समझती हूँ कि यह देश के संघीय ढांचे में असमानता दिखाता है। भारत-चीन और पाकिस्तान के साथ विवादों को सुलझाने और तिब्बत को स्वायत्तता देने की मांगें शांति की बात करती हैं। लेकिन सरकार का रवैया सैन्यवादी है, जो लद्दाख जैसे इलाकों को और अस्थिर कर सकता है।
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वांगचुक की गिरफ्तारी लोकतंत्र पर बड़ा हमला है। मैं देखती हूँ कि यह एक ऐसी आवाज को चुप करा रही है, जो शांतिपूर्ण तरीके से अपने हक की बात कर रही थी। इससे शांतिपूर्ण आंदोलन उग्र हो सकता है, जो भारत के संघीय ढांचे और सीमावर्ती इलाकों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा। समाधान के लिए सरकार को 2019 के वादों को पूरा करना होगा और लद्दाख के लोगों से खुलकर बात करनी होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो लद्दाख अलगाव का नया केंद्र बन सकता है। विपक्षी दलों की तरह, हिंसा की न्यायिक जांच और वांगचुक की तुरंत रिहाई से विश्वास बहाल हो सकता है। 
मेरे विचार में, लद्दाख का यह संघर्ष दिखाता है कि भारत को अपने दूर-दराज के इलाकों में सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है। सरकार को अपनी गलत नीतियों पर गंभीरता से सोचना होगा और लद्दाख जैसे संवेदनशील इलाके को कॉर्पोरेट्स के हवाले करने की बजाय स्थानीय लोगों के हक को प्राथमिकता देनी होगी।