loader

मजरूह सुल्तानपुरी: मैं अकेला ही चला था... याद है न ये लफ़्ज़ 

मजरूह सुल्तानपुरी की पुण्यतिथि- 24 मई पर विशेष

भारतीय उपमहाद्वीप की शायरी और सिनेमाई गीतकारी का इतिहास तो क्या वर्तमान भी कालजयी शायर मजरूह के ज़िक्र के बग़ैर अधूरा है। पाकिस्तान के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सहित कई अजीम शायरों को हम जानते हैं जिन्होंने व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखे लफ्ज़ों के लिए माफ़ी न माँगते हुए बाख़ुशी जेल की सलाखें चुनीं। शेष दुनिया में भी हर्फ़ों के ज़रिए मुख़ालिफ़त के लिए कई क़लमकारों को यातना शिविरों में डाला गया। हिंदुस्तान में ऐसा सबसे बड़ा नाम मजरूह सुल्तानपुरी का था। उन्होंने आज़ाद क़लम की हिफ़ाज़त के लिये जेल जाना मंज़ूर किया, झुकना नहीं।

मजरूह इंक़लाबी शायर थे लेकिन ज़्यादातर अवाम उन्हें सिनेमाई गीतकार के तौर पर मानता-जानता है। शायद कम से कम भारत में तो ऐसा ही है कि सिनेमा से वाबस्ता 'लोकप्रिय' बड़ी-बड़ी क़लमों को बड़े-बड़े आलोचक हाशिए पर डालने की कवायद करते हैं। गोया 'पॉपुलर' होना कोई गुनाह हो! अलबत्ता सिनेमाई गीतकारी में भी सुल्तानपुरी जी की पायदारी बेमिसाल और ज़बरदस्त अलहदा है।

ताज़ा ख़बरें

आज़ादी से दो साल पहले, तब के मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक एआर कारदार ने बंबई में हुए एक मुशायरे में उन्हें सुना और चंद पलों में दीवानगी की हद तक उनके प्रशंसक हो गए। उन्होंने मजरूह से अपनी फ़िल्मों के लिए गीत लिखने के लिए कहा, लेकिन यह प्रस्ताव निर्ममता के साथ उसी मानिंद ठुकरा दिया गया, शैलेंद्र ने जैसे राज कपूर को इंकार किया था। आख़िरकार सांझे दोस्त जिगर मुरादाबादी ने उन्हें गीत लिखने के लिए राज़ी किया। वह फ़िल्म 'शाहजहाँ' थी। महान गायक कुंदन लाल सहगल (केएल सहगल) ने मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीत 'जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे' को गहरी शिद्दत के साथ स्वर दिया। यह गीत सहगल की रूह के क़रीब था। सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कई बार कहा था कि इस नगमे को उनके जनाजे पर ज़रूर बजाया जाए।

इसके बाद मजरूह ने फ़िल्मी दुनिया में क़लम के दम पर वह जगह बनाई कि कहा जाता है कि बेशुमार फ़िल्में सिर्फ़ उनके लिखे गीतों की वजह से 'सुपर हिट' की श्रेणी में आईं। उनकी क़लम का सफर सन् 2000 तक जारी रहा।

1949 में बंबई में मज़दूरों की हड़ताल हुई। तब सपनों की यह माया नगरी यथार्थ के धरातल पर श्रमिक आंदोलनों के लिए भी जानी जाती थी। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस हड़ताल में शिरकत करते हुए एक ऐसी इंक़लाबी प्रतिरोधी नज़्म पढ़ी, हुकूमत ने जिसे अपने ख़िलाफ़ बग़ावत माना। तब सख़्त मिज़ाज मोरारजी देसाई गवर्नर थे। उनकी हिदायत पर उन्हें आर्थर रोड जेल में डाल दिया गया। उनके साथ बलराज साहनी की गिरफ्तारी भी हुई। 

मजरूह सुल्तानपुरी और बलराज साहनी, दोनों से कहा गया कि वे माफ़ी माँग लेंगे तो रिहा कर दिए जाएँगे। मार्क्स और लेनिन के मुरीद मजरूह सुल्तानपुरी और बलराज साहनी ने माफ़ी माँगने से साफ़ इंकार करते हुए जेल में रहना मंजूर किया। अलबत्ता जेल में रहकर भी सुल्तानपुरी लिखते रहे।

तब राज कपूर ने उन्हें आर्थिक मदद की पेशकश की थी लेकिन मजरूह ने इसे नामंजूर कर दिया। इसके बाद अति स्वाभिमानी सुल्तानपुरी को अपने वक़्त के महान शो मैन ने अपनी किसी आगामी-अघोषित फ़िल्म के गीत लिखने के लिए किसी तरह राज़ी किया और उसका पारिश्रमिक उनके परिवार तक पहुँचाया। 1950 में लिखा गाना राज कपूर ने 1975 में अपनी फ़िल्म 'धर्म- कर्म' में इस्तेमाल किया। वह गाना था: 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...।'

अदब के मंदिर में मजरूह सुल्तानपुरी के लफ़्ज़ों के अनगिनत चिराग पूरे एहतराम के साथ जल रहे हैं। उनका एक नजीर शेर है, जिसे दुनिया भर में अक्सर दोहराया जाता है: 

'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।'

शायराना हर्फ़ों की ऐसी कारीगरी दुर्लभ है। इसमें शुमार हौसले का शिखर ग़जब है। यक़ीनन उनका कारवाँ बहुत लंबा चला।

सिनेमा से और ख़बरें

तकरीबन पचास साल के अपने फ़िल्म गीतकारी के कारवाँ में उन्होंने एक से एक गीत दिए जो सुनने वालों की रगों में दौड़ते हैं। 'दोस्ती' फ़िल्म को गीतों के लिए भी जाना जाता है। उसके एक गीत 'चाहूँगा मैं तुझे सांझ-सवेरे' के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को 1965 में फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला। सुल्तानपुरी को 1993 में दादा साहब फालके अवार्ड से भी नवाजा गया।

खुद को मूलत: शायर मानने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ने क़रीब 300 फ़िल्मों के लिए 4000 से ज़्यादा गीत लिखे। इनमें से ज़्यादातर को 'अमर गीतों' का दर्जा हासिल है।

1 अक्टूबर 1919 में निज़ामाबाद में जन्म लेने वाले मजरूह सुल्तानपुरी के पिता उन्हें चिकित्सक बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आर्युवेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई की। लेकिन शब्दों के साधक को डॉक्टरी कहाँ करनी थी? सो डॉक्टर असरारुल हक़ ख़ान ने बाक़ायदा ज़िद के साथ क़लम पकड़ते हुए ख़ुद को नया नाम 'मजरूह' दिया। इसका एक अर्थ 'घायल' भी होता है। खैर, 24 मई, 2000 को जनाब मजरूह सुल्तानपुरी नाम के एक युग का जिस्मानी अंत मुंबई में हुआ।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अमरीक
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

सिनेमा से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें