जेएनयू हिंसा में जैसे-जैसे नयी जानकारियाँ आ रही हैं, वे पुलिस के रवैये और इस मामले में उसकी भूमिका पर संदेह को बढ़ा रही हैं। चाहे वह हिंसा के दिन पुलिस के रवैये का मामला हो या फिर जाँच में लीपापोती करने का। अब जेएनयू हिंसा का सबसे ज़्यादा शिकार हुए साबरमती हॉस्टल के दो वार्डनों के बयान पुलिस के रवैये पर सवाल खड़े करते हैं। दोनों वार्डनों का कहना है कि उन्होंने जेएनयू कैंपस में पाँच जनवरी को शाम चार ही हाथों में लाठी और रॉड लिए नकाबपोशों की भीड़ को देखा था और उसी समय उन्होंने पुलिस और जेएनयू सुरक्षा कर्मियों को इसकी सूचना दे दी थी। इसके बावजूद चार घंटे तक कोई सहायता नहीं मिली।
जेएनयू: वार्डनों ने 4 बजे ही नकाबपोशों को देखकर पुलिस को दे दी थी सूचना
- दिल्ली
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- 12 Jan, 2020
साबरमती हॉस्टल के दो वार्डनों का कहना है कि उन्होंने जेएनयू कैंपस में पाँच जनवरी को शाम चार ही हाथों में लाठी और रॉड लिए नकाबपोशों की भीड़ को देखा था और उसी समय उन्होंने पुलिस और जेएनयू सुरक्षा कर्मियों को इसकी सूचना दे दी थी।

होस्टल के वार्डन से हाथों में लाठी और रॉड लिए नकाबपोशों की भीड़ के बारे में जानकारी मिलने के बाद भी पुलिस का नहीं पहुँचना क्या सवाल खड़े नहीं करता है? उन वार्डनों को हिंसा की आशंका हो रही थी तो फिर पुलिस इसे क्यों नहीं सूँघ पाई? जेएनयू में तब दर्जनों नक़ाबपोश लोगों ने कैंपस में छात्रों और अध्यापकों पर हमला कर दिया था। इसमें विश्वविद्यालय की छात्र संघ अध्यक्ष आइशी घोष गंभीर रूप से घायल हो गईं थीं। इस हमले में घायल कम से कम 34 लोगों को हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। तब हिंसा के दौरान पुलिस के रवैये को लेकर सवाल खड़े किए गए थे। कहा जा रहा था कि पुलिस चाहती तो इस हिंसा को रोक सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।