चूँकि नए वैरिएंट में एंटीबाडीज को धोखा देने की तरह की शक्ति पायी गयी है लिहाज़ा टीका चुनते समय यह देखना होगा कि क्या इसमें टी-सेल रेस्पोंस पैदा करने की क्षमता है और है तो कितनी? साथ ही क्या यह टीका बदलते म्यूटेंट्स, स्ट्रेन और वैरिएंट्स पर भी प्रभावी है। इसके अलावा दरअसल मानव शरीर में प्रतिरोधी क्षमता एंटीबाडीज के अलावा टी-सेल की प्रतिक्रिया से भी होती है।
शोध के अनुसार वैसे भी जब वायरस फेफड़ों के रक्त वाहिनियों पर हमला करता है तो इम्यून सेल बढ़ जाते हैं जो बिलीवरडिन मोलिक्यूल में इजाफा करते हैं। यानी एक चक्रीय क्रम पैदा होता है। नतीजा यह होता है कि एंटीबाडीज का बड़ा हिस्सा निष्क्रिय हो जाता है और वायरस फेफड़ों की रक्त कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देता जिससे और इम्यून सेल्स बढ़ने लगते हैं। इन दोनों कारणों से आसपास के टिश्यूज में मौजूद बिलीवरडिन और बिलीरुबिन का स्तर बढ़ जाता है। जितना ज़्यादा ये दोनों मोलिक्युल बढ़ते हैं उतना ही वायरस को एंटीबाडीज से छिपने का अवसर मिलता है। यही कारण है कि अन्य सामान्य वायरसों से अलग कोरोना आज पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के लिए सवा साल बाद भी पहेली बना हुआ है।
इस शोध-निष्कर्ष के बाद कोरोना के लिए बनाई जाने वाली वैक्सीन के शोधकर्ताओं को अपना नज़रिया बदलना होगा और चिकित्सा/उपचार के तरीक़े में भी व्यापक बदलाव संभव है। कारण: शरीर में मौजूद इस प्राकृतिक तत्व के व्यवहार को बदलना होगा क्योंकि इस तत्व की जितनी ज़्यादा मौजूदगी होगी उतना ही वायरस को सुरक्षा मिलेगी और एंटीबाडीज प्रभावहीन होगा। मूल शोधकर्ता संस्था फ्रांसिस किर्क इंस्टीट्यूट नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसिस किर्क के नाम पर बना है जिन्होंने सन 1953 में शरीर में डाईओक्सिरिबोन्युक्लेइक एसिड (डीएनए) का आविष्कार किया। इस आविष्कार ने आनुवंशिकी विज्ञान ही नहीं भौतिकी, चिकित्सा और अपराध-अनुसंधान की दुनिया में क्रांति ला दी। नए शोध से संभव है कोरोना के ख़िलाफ़ कोई संजीवनी मिल सके।
अभी तक वायरस की पहचान, रोग का उपचार, म्यूटेशन प्रक्रिया पर और संक्रामकता पर प्रभावी रोक नहीं लग पाना विज्ञान की ही नहीं मानव-मस्तिष्क की सीमा बताता है।
वैज्ञानिक दो दर्जन से ज़्यादा घातक कोरोना वैरिएंट्स पहचान चुके हैं। सबसे ताज़ा है भारत का दोहरा म्यूटेंट B.1. 617 रोग। इसकी पहचान के लिए आरटी-पीसीआर (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन—पालीमरेस चैन रिएक्शन) को जो चिकित्सा विज्ञान गोल्ड टेस्ट मानता था अब कह रहा है कि यह प्रामाणिक नहीं है। इसके चार मुख्य कारण बताये गए। सैंपल प्रभावित लोकेशन से न लेना, सही समय पर न लेना, वायरस का अपना चरित्र और साइकिल थ्रेशहोल्ड (सीटी) वैल्यू की परिभाषा में मतभेद। वैज्ञानिक अब मानने लगे हैं कि अभी तक उपलब्ध वैक्सीन ज़रूरी नहीं कि हर नए म्यूटेंट पर समान रूप से प्रभावी हो। कुछ माह पहले जब यह विश्वास हो गया कि कोरोना संकट दुनिया में ख़त्म हो रहा है उसी समय ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में नए वैरिएंट्स मिले जो अमेरिका और भारत सहित कई देशों में फैले। वायरोलॉजी और जेनेटिक विज्ञान की सर्वमान्य अवधारणा थी कि एक ब्लड स्ट्रीम में एक ही वायरस के दोहरे वैरिएंट्स नहीं होते। लेकिन भारत में पाया गया वैरिएंट इसे ग़लत साबित करता हुआ ज़्यादा संक्रामक निकला। वैक्सीन के ज़रिये शरीर में बनी एंटीबाडीज को भी यह धोखा दे सकता है।