loader

दिल्ली, गुजरात, हर जगह दंगाइयों को राजनीतिक संरक्षण मिला - कोर्ट

1984 के दंगों पर हाई कोर्ट का फ़ैसला देते हुए कोर्ट ने आज़ादी के बाद भारत मे हुए नरसंहारों पर भी तीखी टिप्पणी भी है। फ़ैसला 1993 के मुंबई दंगे, 2002 के गुजरात नरसंहार, 2008 के कंधमाल और 2013 के मुजफ़्फ़रनगर के नरसंहारों पर भी सवाल उठाता है। अदालत का एक निष्कर्ष यह भी है कि अल्पसंख्यकों का नरसंहार करने वालों को राजनीतिक समर्थन नहीं होता तो इस तरह की घटनाएँ नहीं होतीं। अदालत के अनुसार देश में मानवता के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों और नरसंहारों से निपटने के लिए कोई सख़्त क़ानून नहीं है। कोर्ट ने कहा कि ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए एक मजबूत क़ानूनी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि 84 के बाद हुए सारे नरसंहारों में अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिला और वे सजा से बचने में कामयाब होते रहे।

आज़ादी के वक़्त हुई हिंसा

दिल्ली हाई कोर्ट ने 207 पेज के अपने फ़ैसले की शुरुआत - 1947 में आज़ादी के वक़्त बँटवारे के दौरान हुई हिंसा के ज़िक़्र से की है। पहली ही लाइन में लिखा है कि 1947 की गर्मियों में देश ने विभाजन का दंश झेला और उस वक़्त बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। लाखों लोग उस हिंसा में मारे गए और लाखों बेघर हुए। हाई कोर्ट ने बँटवारे के वक़्त लाहौर में अपना घर छोड़ कर भारत आई जानी-मानी कवियत्री अमृता प्रीतम और उनकी एक कविता का भी ज़िक़्र किया है। हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में अमृता प्रीतम की कविता 'वारिस शाह से' की कुछ लाइनों का ज़िक़्र किया है। गौरतलब है कि इस कविता में अमृता प्रीतम ने बँटवारे के दौरान पंजाब में बोए गए नफ़रत के बीज का ज़िक़्र किया है। कोर्ट ने फ़ैसले में कविता की इन पँक्तियों का ज़िक़्र किया है।
‘किसी ने पाँचों दरिया में एक ज़हर मिला दिया है और यही पानी धरती को सींचने लगा हैइस ज़रख़ेज़ धरती से ज़हर फूट निकला है देखो, सुर्खी कहाँ तक आ पहुँचीऔर कहर कहाँ तक आ पहुँचाफिर जहरीली हवा वन जंगलों में जलने लगीउसने हर बांस की बांसुरी जैसे एक नाग बना दीनागोंं ने लोगों के होंठ डस लिए और डंक बढ़ते चले गएऔर देखते-देखते पंजाब के सारे अंग काले और नीले पड़ गए'’। इसके बाद हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में लिखा है 'दिल्ली की गलियों में हिंसा जारी है।'
फ़ैसले के दूसरे पैरे में हाई कोर्ट ने कहा है '37 साल बाद देश मानवता के ख़िलाफ़ हुई एक बड़ी हिंसा का गवाह बना। 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद 1 से 4 नवंबर 1984 को सिखों के ख़िलाफ़ जबरदस्त हिंसा हुई। इस हिंसा में अकेले दिल्ली में 2733 सिखों को मारा गया और उनके घर जला दिए गए। इसके अलावा अलावा देशभर में भी हजारों सिखों को मारा गया और उनके घरों को जलाया गया। हाई कोर्ट ने कहा है कि आज़ादी के बाद यह सबसे बड़ा नरसंहार था।

हिंसा करने वालों को मिला संरक्षण

हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा है कि 1984 में सिखों के ख़िलाफ़ हुई बड़े पैमाने पर इस हिंसा में शामिल लोगों को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा और ऊंचे पदों पर बैठे रहने के वजह से उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं हो पाई। सत्ता का दबाव इतना था कि  पीड़ितों की एफ़आईआर तक नहीं लिखी गई। हाई कोर्ट ने 5 लोगों की हत्या के इस मामले का ज़िक़्र करते हुए बताया है कि 21 साल के बाद यह मामला जाँच के लिए सीबीआई के पास आया. इस बीच सिख विरोधी हिंसा की जाँच के लिए 10 आयोग और जाँच समितियाँ बनीं लेकिन सब निष्प्रभावी रहे। 21 साल बाद सीबीआई ने इसकी जाँच शुरू की और सब एक के बाद एक गवाह सामने आए और अब इस मामले में दोषियों को सज़ा हो पाई है।
हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में इस मामले को अंजाम तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाने वाले दंगा पीड़ितों के वकील एच. एस. फुल्का की इस बात के लिए तारीफ़ की है कि उन्होंने हिंसा में मारे गए लोगों के दर्द को समझा और उन्हें इंसाफ़ दिलाने के लिए अथक प्रयास किए। हाई कोर्ट ने इस बात को भी रेखांकित किया है कि हमारे देश में भीड़ अगर लोगों की हत्या कर दे तो ऐसे बहुत ही कम मामलों में दोषियों को सज़ा मिल पाती है। यहाँ तक कि उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर तक दर्ज नहीं हो पाती। इसके लिए हाई कोर्ट ने 2002 में गोधरा कांड के बाद अहमदाबाद और आसपास के इलाक़ों में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा का हवाला भी दिया है।
फ़ैसले के पैरा 172 से पैरा 174 में हाई कोर्ट ने बिल्कीस बानो के केस का हवाला देते हुए बताया है कि उन्हें उनके साथ हुए बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने में काफ़ी मशक्क़त करनी पड़ी थी। इस मामले में मुंबई हाई कोर्ट ने भी माना था कि पुलिस ने मामले की ठीक से जाँच नहीं की। हालाँकि बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और दोषियों को सज़ा हुई। कोर्ट ने उड़ीसा के कंधमाल में हुई हिंसा का भी हवाला दिया है, जहाँ ईसाई मिशनरी को जलाकर मार दिया गया था। हाई कोर्ट ने कहा उस मामले में भी सरकारी राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था।
1984 anti sikh riots sajjan kumar Gujrarat massacre High Court - Satya Hindi
सिख विरोधी दंगों से जुड़े मामलों में सज़ा देने के लिए कोर्ट ने अलग तरह का रवैया अपनाने पर ज़ोर दिया है। सिख विरोधी हिंसा को 'मानवता के ख़िलाफ़ अपराध' मानने के अपने दावे के पक्ष में हाई कोर्ट ने फ़ैसले के पैरा नंबर 367 में विदेशों में हुई घटनाओं का भी ज़िक़्र किया है। हाई कोर्ट ने कहा है कि 'मानवता के ख़िलाफ़ अपराध' जैसे शब्दों का इस्तेमाल सबसे पहले ब्रिटेन, रूस और फ्रांस ने संयुक्त रूप से 28 मई 1915 में जारी एक घोषणापत्र में किया था।
यह घोषणापत्र तब तुर्की के ऑटोमन शासन के ख़िलाफ़ जारी किया गया था। आरोप था कि तुर्क और कुर्दों ने ऑटोमन प्रशासन की मदद से वहाँ रह रहे आर्मेनियाई लोगों का बड़े पैमाने पर क़त्लेआम किया था। इस घोषणापत्र के जरिए उस क़त्लेआम को मानवता के और सभ्यता के ख़िलाफ़ अपराध क़रार देते हुए इसके लिए पूरी तुर्की सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया था।

केंद्र सरकार को ठहराया ज़िम्मेदार

कोर्ट ने फ़ैसले में तुर्की की इस घटना का ज़िक़्र करके 1984 में सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए पूरी तरह तत्कालीन केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया है। कई जगह कहा गया है कि सिख विरोधी हिंसा में शामिल नेताओं को लंबे समय तक सरकारी और राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा। इसीलिए उनके ख़िलाफ़ बार-बार जाँच समिति और कमीशन आयोग बनाए जाने के बावजूद कार्रवाई नहीं हो पाई।
हाई कोर्ट ने फ़ैसले के पैरा 367.6 में कहा है कि नवंबर 1984 में दिल्ली में 2733 और पूरे देश में 3350 सिखों को बेरहमी से मारा गया और उनके घरों को जलाया गया। यह न तो पहली घटना थी और न ही आख़िरी। इस तरह की घटनाओं से आज़ादी के वक़्त बँटवारे के दौरान हुई हिंसा की यादें ताज़ा होती रही हैं।

अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा

हाई कोर्ट ने कहा है कि 1984 की तरह ही 1993 में मुंबई में हिंसा हुई। साल 2002 में गुजरात में तो साल 2008 में उड़ीसा के कंधमाल में और 2013 में उत्तर प्रदेश के मुजफ़्फ़रनगर में बड़े पैमाने पर एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ हिंसा हुई। फ़ैसले में कहा है कि इन सभी घटनाओं में देश में अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा हुई है। सत्ता के दबाव में जाँच एजेंसी को भी प्रभावित किया जाता रहा है। इसलिए इस तरह की हिंसा में पीड़ितों को इंसाफ़ नहीं मिल पाया।
1984 anti sikh riots sajjan kumar Gujrarat massacre High Court - Satya Hindi
कोर्ट ने कहा है कि ऐसी हिंसा के दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करके उन्हें सज़ा दिलवाना हमारे सिस्टम के सामने एक बड़ी चुनौती है।  'मानवता के ख़िलाफ़ होने वाले ऐसे अपराध' और 'नरसंहार' को अंजाम देने वाले लोगों के ख़िलाफ़ सख्त कार्रवाई करना एक चुनौती भरा काम है। क़ानून में ख़ामियों की वजह से इन्हें सज़ा नहीं मिल पाती, लिहाज़ा हाई कोर्ट ने इस समस्या के तुरंत समाधान की जरूरत पर जोर दिया है।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
क़मर वहीद नक़वी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

देश से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें