सुप्रीम कोर्ट ने अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के मामले में बुधवार को बिल्कुल अलग रुख अपनाया। कोर्ट ने उनको लेख वगैरह लिखने की छूट दे दी। कोर्ट ने एसआईटी से सवाल किया कि आप उनके डिवाइस की जांच क्यों करना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के मामले में दर्ज दो एफआईआर पर ही एसआईटी को ध्यान देने के लिए कहा। कोर्ट ने पूछा कि आप प्रोफेसर के डिवाइस की जांच क्यों करना चाहते हैं। कोर्ट ने यह भी साफ कर दिया कि प्रोफेसर की अंतरिम जमानत अगले आदेश तक जारी रहेगी। यह मामला प्रोफेसर महमूदाबाद के 'ऑपरेशन सिंदूर' पर सोशल मीडिया पोस्ट से संबंधित है।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने हरियाणा सरकार को निर्देश दिया कि SIT की जांच केवल उन दो FIR के विषय तक ही सीमित रहे, जो इस मामले का आधार हैं। कोर्ट ने कहा, "SIT जांच रिपोर्ट को लोकल कोर्ट में दाखिल करने से पहले इस कोर्ट के सामने पेश किया जाए।"
महमूदाबाद के वकील, सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने आशंका जताई थी कि SIT इससे जुड़े मामलों की भी जांच कर सकती है। इस पर कोर्ट ने हरियाणा के अतिरिक्त महाधिवक्ता से स्पष्ट कहा कि जांच का दायरा केवल दो FIR तक ही रहेगा और इसे विस्तार नहीं दिया जा सकता। कहीं और घुसने की जरूरत क्या है। कोर्ट ने यह भी पूछा, "FIR रिकॉर्ड में हैं, फिर भी आपको उनके डिवाइस (लैपटॉप, मोबाइल, टैब आदि) की क्या जरूरत है?"
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद, जो अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं, को 18 मई को हरियाणा पुलिस ने दिल्ली में उनके घर से गिरफ्तार किया था। यह गिरफ्तारी 'ऑपरेशन सिंदूर' पर उनकी फेसबुक पोस्ट के बाद हुई, जिसे हरियाणा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया और एक स्थानीय भाजपा युवा मोर्चा नेता योगेश जठेरी ने आपत्तिजनक माना।
इन पोस्ट में महमूदाबाद ने सेना की संयमित कार्रवाई की तारीफ की थी, लेकिन साथ ही युद्ध उन्माद और दिखावे की देशभक्ति पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह द्वारा दी गई मीडिया ब्रीफिंग को "प्रतीकात्मक" बताया, लेकिन कहा कि यदि यह जमीनी हकीकत में नहीं बदला तो यह "पाखंड" ही होगा। यानी उनके कहने का मतलब यह था कि आप सोफिया और व्योमिका को हिन्दू-मुस्लिम एकता और महिला सशक्तिकरण के नाम पर प्रेस ब्रीफिंग में प्रदर्शित कर रहे हैं। लेकिन यह काम जमीनी स्तर पर भी होना चाहिए। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाया जा रहा है। मुस्लिमों को बुलडोजर से टारगेट किया जा रहा है।
दोनों FIR में भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 (राष्ट्रीय अखंडता को खतरे में डालने), 196 (सामुदायिक सौहार्द बिगाड़ने), 197 (राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक दावे), 299 (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने), और 353 (सार्वजनिक उपद्रव) जैसी कड़ी धाराओं के तहत आरोप लगाए गए हैं। दूसरी FIR में धारा 79 (महिला की गरिमा का अपमान) भी जोड़ी गई।
21 मई को सुप्रीम कोर्ट ने प्रोफेसर को अंतरिम जमानत दी थी, लेकिन जांच को रोकने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने हरियाणा के पुलिस महानिदेशक को 24 घंटे के भीतर तीन वरिष्ठ IPS अधिकारियों (जो हरियाणा या दिल्ली के निवासी न हों) का SIT गठन करने का निर्देश दिया, जिसमें एक महिला अधिकारी भी शामिल हो। कोर्ट ने महमूदाबाद को जांच में सहयोग करने और अपना पासपोर्ट जमा करने का आदेश दिया। साथ ही, उन्हें मामले से संबंधित कोई पोस्ट, लेख, या भाषण देने से रोक दिया गया।
बुधवार 28 मई की सुनवाई में, जब कपिल सिब्बल ने जमानत शर्तों में ढील की मांग की, तो कोर्ट ने कहा कि प्रतिबंध केवल FIR से संबंधित विषयों पर हैं, न कि उनकी सामान्य अभिव्यक्ति पर। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, "वह (प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद) लिख और बोल सकते हैं, लेकिन जांच के के बारे में नहीं। उनके लेख आदि लिखने पर कोई मनाही नहीं है।" कोर्ट ने अगली सुनवाई जुलाई में तय की है।
इसी कोर्ट ने पिछली सुनवाई पर प्रोफेसर की सोशल मीडिया पोस्ट को "डॉग व्हिसलिंग" करार देते हुए कहा कि उनकी भाषा में दोहरे अर्थ हो सकते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि एक शिक्षित व्यक्ति को ऐसी परिस्थितियों में तटस्थ और सम्मानजनक भाषा का उपयोग करना चाहिए था। कोर्ट ने यह भी चेतावनी दी थी कि अगर अन्य शिक्षक या छात्र प्रोफेसर के समर्थन में विरोध करते हैं, तो कोर्ट कड़ा आदेश पारित करेगा।
महमूदाबाद की गिरफ्तारी से अकादमिक और सिविल सोसायटी में व्यापक हलचल हुई। कई लोगों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला बताया। अशोका यूनिवर्सिटी ने अंतरिम जमानत पर राहत जताई, जबकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने उनकी गिरफ्तारी को मानवाधिकार उल्लंघन मानते हुए हरियाणा डीजीपी से एक सप्ताह में विस्तृत रिपोर्ट मांगी।
यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन पर बहस को तेज कर रहा है। लेकिन हरियाणा सरकार की कार्रवाई की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी यही हरकत हुई। वहां पुणे की एक इंजीनियरिंग छात्रा को ऑपरेशन सिंदूर पर मात्र किसी पोस्ट को शेयर करने के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया। सोमवार को बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई की। बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार और पुलिस को कड़ी फटकार लगाते हुए छात्रा की फौरन रिहाई का आदेश दिया। अदालत ने टिप्पणी की आखिर यह हो क्या रहा है। आप किसी को उसके विचार व्यक्त करने से कैसे रोक सकते हैं। आप उसे परीक्षा देने से कैसे रोक सकते हैं। जब सरकार ने कोर्ट में कहा कि परीक्षा के दौरान छात्रा को पुलिस सुरक्षा दी जाएगी। इस पर कोर्ट ने और कड़ा रुख अपनाया। कोर्ट ने कहा कि क्या छात्रा कोई अपराधी है।
बता दें कि इंडियन एक्सप्रेस में लिखे गए लेख में प्रताप भानु मेहता ने सुप्रीम कोर्ट के पिछली सुनवाई पर दिए गए आदेश को आलोचनात्मक नजरिए से देखा था। मेहता ने कहा कि प्रोफेसर की सोशल मीडिया पोस्ट में ऐसा क्या लिखा है जिसे जज साहिबान पढ़कर पांच मिनट में फैसला नहीं ले सकते। जाने माने चिंतक अपूर्वानंद ने सत्य हिन्दी पर लिखे गए अपने स्तंभ में लिखा- पढ़े लिखे मुसलमान अब उन लोगों के लिए समस्या बनते जा रहे हैं। अपूर्वानंद का भी यही सवाल है कि प्रोफेसर ने ऐसा क्या गलत लिख दिया था। अपूर्वानंद का लेख आप यहां पढ़ सकते हैं- अली खान महमूदाबादः पढ़े लिखे मुसलमानों से उन्हें इतनी नफरत क्यों है