मौसम की मार से देश के 151 ज़िलों में खेती को, पेड़-पौधों को और यहाँ तक कि दुधारू पशुओं तक को काफ़ी नुक़सान पहुँच सकता है। मतलब यह कि देश के 20 प्रतिशत से ज़्यादा ज़िलों में फ़सलों में गिरावट आ सकती है। मौसम का प्रकोप अगर ऐसे ही जारी रहा तो देश में कृषि आय में 15 से 18 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। असिंचित इलाक़ों में तो यह गिरावट 20 से 25 प्रतिशत भी हो सकती है।और यह बहुत ज़्यादा दूर की बात नहीं, बल्कि अगले कुछ वर्षों में ही मौसम का प्रकोप हमारी खेती पर भारी पड़ सकता है। यह गम्भीर चेतावनी भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद की वार्षिक समीक्षा रिपोर्ट में सामने आई है।
मौसम मॆं हो रहे बदलाव चिंताजनक
भारत में लगभग आधी आबादी का जीवनयापन खेती पर टिका है। देश के कुल आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा क़रीब 17 प्रतिशत है। हाल के वर्षों में मौसम के व्यवहार में आए तमाम बदलाव, औसत तापमान में वृद्धि, कहीं-कहीं सामान्य से कहीं ज़्यादा गरमी, सामान्य से बहुत ही ज़्यादा वर्षा और प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और आवृत्ति में लगातार हो रही बढ़ोतरी आदि के अध्ययन के बाद जो निष्कर्ष सामने आये हैं, वह चिन्ताजनक हैं।भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद का कहना है कि मौसम के रुख़ में यह बदलाव लगातार और तेज़ी से हो रहा है और इसे रोकने के लिए तत्काल क़दम उठाने होंगे। परिषद एक सरकारी संस्था है, जो कृषि मंत्रालय के तहत काम करती है।मौसम की मार से खेती को और पेड़-पौधों को जो नुक़सान पहुँच सकता है, वह तो चिन्ता की बात है ही, लेकिन खेती में आने वाली गिरावट और समस्याओं का असर लोगों के जीवन पर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर पड़ता है, जिससे कई और समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं।मिसाल के तौर पर झारखंड के साहिबगंज ज़िले में तापमान और बरसात की घट-बढ़ से धान की फ़सलों को नुक़सान पहुँचाने वाले कुछ नये कीट पनप गये। इन कीड़ों पर जब क़ाबू नहीं पाया जा सका, तो यहाँ के माल पहाड़िया आदिवासी निचले संथाल बहुल इलाक़ों में बसने आ गये, जिसने नये सामाजिक तनावों को जन्म दिया।
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ऊपरी इलाक़ों में जाने को मजबूर हैं किसान
इसी तरह हिमाचल में भी सेब का उत्पादन करने वाले किसान अब ऊँचाई वाले इलाक़ों में स्थानान्तरित हो रहे हैं क्योंकि हिमाचल के निचले इलाके तापमान वृद्धि और लगातार बढ़ते कंक्रीट के विकास से गरम होते जा रहे हैं, सेब को जैसा ठंडा वातावरण चाहिए, उसके लिए किसानों को ऊपरी इलाक़ों में जाने को मजबूर होना पड़ रहा है।इसी तरह लुधियाना के बोरलाग इंस्टीट्यूट के मुताबिक़ 2010 में पंजाब में गेहूँ की फ़सल में 26 प्रतिशत की गिरावट भी मौसम के कारण ही आई थी। वजह थी वसन्त के मौसम में घनघोर वर्षा और फिर तापमान में आई अचानक तेज़ी। इसी कारण उस साल पंजाब में गेहूँ की फ़सल काफ़ी कम हुई।भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद का कहना है कि गेहूँ की खेती करने वाले इलाक़े में से क़रीब 32 प्रतिशत भूभाग पर अचानक बढ़ जानेवाले तापमान का ख़तरा मँडरा रहा है। यह कुल भूभाग हुआ क़रीब 90 लाख हेक्टेयर।इन चुनौतियों का सामना करने के लिए परिषद ने स्थानीय परिस्थितियों का अध्ययन कर वहाँ की ज़रूरत के हिसाब से नये तरीक़े अपनाने का फ़ैसला किया है। जैसे कि गुजरात के आणंद ज़िले में किसानों को कहा गया है कि माहू से बचाव के लिए वह सरसों की बुआई 10 से 20 अक्तूबर के बीच ही करें। परिषद की समीक्षा रिपोर्ट का कहना है कि हवा की रफ़्तार 2 किलोमीटर प्रति घंटा से ज़्यादा रहने और औसत तापमान के 19 से 25.5 डिग्री सेल्सियस के बीच रहने से माहू का प्रकोप बढ़ा।
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