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प्रतीकात्मक तस्वीर

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा,भारत के मुसलमान अपनी पहचान को खोने के लिए सहमत नहीं होंगे 

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बुधवार को विधि आयोग के 14 जून 2023 के नोटिस पर अपनी आपत्ति दर्ज की है। आयोग ने समान नागरिक संहिता पर राय और प्रतिक्रिया मांगी थी। बोर्ड के प्रवक्ता डॉ. एसक्यूआर इलियास ने बताया कि  यूसीसी पर विधि आयोग को हमने अपनी  प्रतिक्रिया और आपत्तियों से अवगत करा दिया है।  बोर्ड ने अपनी आपत्तियों का विवरण देते हुए विधि आयोग को भेजे गए पत्र में कहा है कि आयोग द्वारा आमंत्रित किए जाने वाले सुझावों की शर्तें गायब हैं। ऐसा लगता है कि जनमत संग्रह के लिए इतना बड़ा मुद्दा सार्वजनिक डोमेन में लाया गया है। बोर्ड ने अपने पत्र में कहा कि यह मुद्दा पूरी तरह से कानूनी मुद्दा होने के बावजूद राजनीति और मीडिया के लिए प्रोपेगेंडा का पसंदीदा मुद्दा बन गया है। पूर्व के आयोग ने इस मुद्दे की जांच की थी और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। लेकिन इतने कम समय के भीतर, बिना कोई खाका बताए हुए कि आयोग करना  क्या चाहता है,  फिर से इस पर जनता की राय मांगना आश्चर्यजनक है।  

यह पहलू मुसलमानों की पहचान से जुड़ा हुआ है

बोर्ड ने अपनी आपत्ति दर्ज कराते हु्ए कहा है कि मुसलमानों की मौलिक धार्मिक पुस्तक, धार्मिक ग्रंथ के रूप में पवित्र कुरान, सुन्नत और फ़िक़्ह (इस्लामी कानून) है, जो संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के मामले हैं। जो कि किसी धर्म को मानने वालों को उसमें निर्धारित नियमों का पालन करने का आदेश देते हैं। इस्लाम के अनुयायी स्वयं को उन नियमों से बंधा हुआ पाते हैं। मुसलमानों का व्यक्तिगत संबंध उनके व्यक्तिगत कानूनों द्वारा निर्देशित होते हैं जो कि सीधे पवित्र कुरान और सुन्नत (इस्लामी कानून) से लिया गया है। यह पहलू उनकी पहचान से जुड़ा हुआ है। भारत के मुसलमान अपनी इस पहचान को खोने के लिए सहमत नहीं होंगे जिसकी देश के संवैधानिक ढांचे में जगह है। बोर्ड ने कहा है कि राष्ट्रीय अखंडता, सुरक्षा और भाईचारे को बनाए रखा जाना चाहिए। अपने देश की विविधता को बनाए रखने के लिए जरुरी है कि अल्पसंख्यकों और आदिवासी समुदायों को अपने स्वयं के व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित होने की अनुमति दी जाए। 
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पर्सनल लॉ धार्मिक-सांस्कृतिक अधिकारों के अनुरूप है

बोर्ड ने विधि आयोग को भेजे इस पत्र में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 29 को संयुक्त रूप से पढ़ने से स्पष्ट होता है कि विभिन्न समुदायों द्वारा कई पर्सनल लॉका प्रचलन भारतीयों के धार्मिक-सांस्कृतिक अधिकारों के अनुरूप है। विभिन्न समुदायों और जनजातियों के धार्मिक-सांस्कृतिक मानदंडों के अनुसार ऐसे कानूनों को हमारे देश में एक मजबूत लोकतंत्र के चमकदार उदाहरण के रूप में मानना चाहिए। मौजूदा क़ानूनों में धार्मिक सिद्धांत और प्रथागत जनजातीय छूट देश के प्रमुख धार्मिक समूहों और रीति-रिवाजों की अपरिहार्य स्थिति को दर्शाती हैं। जिन्हें ऐसे कोडों में समाप्त नहीं किया जा सकता है। बोर्ड ने कहा है कि संभावित समान नागरिक संहिता के दायरे और प्रकृति का विश्लेषण करने का अभ्यास केवल मौजूदा पारिवारिक कानूनों जिसमें  सामान्य और व्यक्तिगत दोनों आते हैं का विश्लेषण करके ही किया जा सकता है। ऐसे विश्लेषण के दो आधार हैं। जिसमें पहला आधार है कि , क्या मौजूदा सामान्य या समान पारिवारिक कानून वास्तव में एक समान हैं?  दूसरा आधार है कि  क्या मौजूदा संहिताबद्ध समुदाय आधारित पर्सनल लॉ एक समान हैं?

भारत में समान पारिवारिक कानून, 'समान' नहीं है 

बोर्ड ने बताया है कि उसने मौजूदा नागरिक कानूनों का विश्लेषण किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मौजूदा सामान्य और समान पारिवारिक कानून वास्तव में एक समान नहीं हैं। यहां तक ​​कि मौजूदा संहिताबद्ध समुदाय आधारित कानून भी एक समान नहीं हैं। अपने पत्र में  बोर्ड ने कहा है कि, भले ही समान नागरिक संहिता का सवाल सरल लगता है लेकिन यह जटिलताओं से भरा हुआ है। इन जटिलताओं को संविधान सभा ने 1949 में भी महसूस किया था।  जब समान नागरिक संहिता पर बहस हुई थी तब एक ही दिन की बहस में मुस्लिम समुदाय का कड़ा विरोध देखा गया। बहस के अंत में डॉ. अम्बेडकर के स्पष्टीकरण को याद करना प्रासंगिक है। हमारे देश का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ भारत का संविधान है। जिसे विवेकपूर्ण तरीके से और देश को एकजुट रखने के इरादे से बनाया गया है। जो कि स्वयं एक समान प्रकृति का नहीं है। भिन्न-भिन्न व्यवहारों का समायोजन हमारे संविधान का स्वभाव है। इसके जरिए विभिन्न समुदायों को अलग-अलग अधिकारों का हकदार बनाया गया है। विभिन्न धर्मों को अलग-अलग सुविधाएं दी गई हैं।  
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सीसीपी भी संपूर्ण भारत में समान रूप से लागू नहीं

बोर्ड ने कहा है कि 'एकरूपता' का प्रक्षेपण विभिन्न धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों की स्थापित प्रणालियों को उखाड़ने के लिए एक वैध आधार नहीं है। स्थापित सामान्य और कथित तौर पर भी समान कानून प्रकृति में पूरी तरह एक समान नहीं होते हैं। जैसा कि विस्तार से बताया गया है, गोवा नागरिक संहिता विविधता से भरी हुई है। यहां तक ​​कि भारत के संविधान में भी विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों और विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता (सीसीपी ) भी भारत के संपूर्ण क्षेत्र में समान रूप से लागू नहीं होती है।यहां तक ​​कि हिंदू विवाह अधिनियम, जो विशेष रूप से एक समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को विनियमित करने के लिए बनाया गया है, भारत में सभी हिंदुओं पर समान रूप से लागू नहीं होता है। विशेष विवाह अधिनियम पक्षों को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में ले जाता है और विवाह की निषिद्ध डिग्री के लिए प्रथागत कानूनों को कमजोर करता है।

सरकार इस पर पूरी तरह से चुप है

बोर्ड ने कहा है, बहुसंख्यकवादी नैतिकता को एक कोड के नाम पर व्यक्तिगत कानूनों, धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों का स्थान नहीं लेना चाहिए। 21वें विधि आयोग द्वारा तैयार परामर्श रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद, केंद्र सरकार इस पर पूरी तरह से चुप है कि। उसे बताना चाहिए कि क्या उसने इसे पूरी तरह से या आंशिक रूप से स्वीकार किया है। सरकार ने यह भी नहीं बताया है कि उसने 21वें विधि आयोग के निष्कर्षों की व्याख्या करने के लिए क्या कदम उठाए हैं। यदि सरकार ने 21वें विधि आयोग के संपूर्ण या कुछ निष्कर्षों को खारिज कर दिया था, तो उसने इस तरह की अस्वीकृति के अपने कारण का खुलासा नहीं किया है।  
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