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चुनावी बॉन्ड फ़ैसला रोकने लिए SC बार अध्यक्ष ने राष्ट्रपति को ख़त क्यों लिखा?

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष आदिश अग्रवाल ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से इलेक्टोरल बॉन्ड के फ़ैसले के खिलाफ प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस के माध्यम से इसको प्रभावी होने से रोकने की मांग की है। इसके साथ ही उन्होंने मामले की दोबारा सुनवाई होने तक फ़ैसले को रोकने के लिए भी कहा। एससीबीए के अध्यक्ष आदिश अग्रवाल ने मुर्मू को लिखे पत्र में कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे फैसले नहीं देने चाहिए जो संवैधानिक गतिरोध पैदा करें और संसद की महिमा को कमजोर करें।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष का यह ख़त तब आया है जब इलेक्टोरल बॉन्ड काफ़ी विवादों में रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़-साफ़ और सीधे-सीधे कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध था, अपारदर्शी था और असंवैधानिक था। सुप्रीम कोर्ट ने दावा किया कि पोल बॉन्ड योजना चंदे को गुमनाम करके भारतीय मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है, जो संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है। वैसे, बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए इस इलेक्टोरल बॉन्ड पर सरकार को छोड़कर सबको कभी न कभी आपत्ति रही। 2019 में चुनाव आयोग ने भी कड़ी आपत्ति की थी। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला गया तो इसने भी लगातार सवाल पूछे। विपक्षी पार्टियाँ गड़बड़ी का आरोप लगाती रहीं। चुनाव सुधार से जुड़े लोग इसको पीछे ले जाने वाला क़दम बताते रहे। तो सवाल है कि ऐसा होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट बार अध्यक्ष इलेक्टोरल बॉन्ड के पक्ष में ऐसा क़दम क्यों उठा रहे हैं?

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इस सवाल का जवाब जानने से पहले यह जान लें कि इलेक्टोरल बॉन्ड पर विवाद क्या रहा है। सबसे पहले इस विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था का प्रावधान 2017 के बजट के ज़रिये सामने लाया गया था। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया था कि इससे हमारा लोकतंत्र मज़बूत होगा, दलों को होने वाली फ़ंडिंग और समुची चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या इन मक़सद में यह कामयाब होता दिखा या फिर इलेक्टोरल बॉन्ड के प्रावधान क्या ऐसे थे?

इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद इस पर सबसे ज़्यादा सवाल पारदर्शिता और कालेधन को लेकर ही हुआ। एडीआर जैसी इलेक्शन-वाच संस्थाओं और इस विषय के जानकार लोगों ने इस प्रावधान की शुचिता और उपयोगिता पर गंभीर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।

सवाल तो यह भी उठे कि इस बॉन्ड का प्रस्ताव न तो वित्त मंत्रालय, न तो निर्वाचन आयोग और न ही रिज़र्व बैंक की किसी आधिकारिक या प्रशासकीय प्रक्रिया के तहत आया था। आरोप लगाया गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी व्यवस्था शुरू करने का फ़ैसला सरकार चलाने वाले लोगों के शीर्ष स्तर और व्यक्तिगत इच्छा के तहत आया था। 

इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला जब सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा था तो 2019 में चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड का ज़ोरदार शब्दों में विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि इससे राजनीतिक दलों को पैसे देने की प्रक्रिया की पारदर्शिता कम होगी। आयोग ने यह भी कहा था कि यह पीछे ले जाने वाला कदम है। 
भारत की जन प्रतिनिधि क़ानून की धारा 29 सी के अनुसार, 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देने का प्रावधान है। लेकिन, वित्तीय अधिनियम 2017 के क्लॉज़ 135 और 136 के तहत इलेक्टोरल बॉन्ड को इसके बाहर रखा गया।

इसके अलावा यह व्यवस्था भी की गई कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव आयोग को दिए गए अपने आमदनी-ख़र्च के हिसाब किताब में इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी देना अनिवार्य नहीं है।

इससे न तो इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का पता चलता है और न ही इसके ज़रिए जिसे पैसे दिए जा रहे हैं, उसका पता चलता है। राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब में यह दर्ज नहीं होता है और चुनाव आयोग को इसकी कोई जानकारी नहीं होती है।

इलेक्टोरल बॉन्ड काले धन को बढ़ावा दे सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कंपनीज़ एक्ट की धारा 182 के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि कोई कंपनी अपने सालाना मुनाफ़ा के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं दे सकती। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को इससे बाहर रखा गया है। इसका नतीजा यह हुआ कि बेनामी या शेल कंपनी के ज़रिए पैसे दिए जा सकते ते। शेल कंपनियों के पास काला धन होता है। इस तरह बड़े आराम से काला धन चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है और किसी को पता भी नहीं चलेगा।

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बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अग्रवाल ने कहा है कि पूरी कार्यवाही की दोबारा सुनवाई की जाए, ताकि भारत की संसद, राजनीतिक दलों, कॉरपोरेट्स और आम जनता को पूर्ण न्याय सुनिश्चित किया जा सके।'

ईटी की रिपोर्ट के अनुसार अग्रवाल ने लिखा है, 'चुनावी बॉन्ड योजना वित्त अधिनियम, 2017 के प्रावधानों के कारण लागू हुई, जिसने अन्य बातों के अलावा, भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, आयकर अधिनियम 1961, और कंपनी अधिनियम, 2013 के प्रावधानों में संशोधन किया।' उनके पत्र में कहा गया, 'इसलिए, योजना के पीछे विधायी मंशा पर संदेह करना ग़लत होगा।'

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लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार ऑल इंडिया बार एसोसिएशन के लेटर हेड पर भेजे गए एक पत्र में उन्होंने तर्क दिया है कि जब चंदा दिया गया था तब चुनावी बॉन्ड योजना कानूनी और वैध थी। उनका तर्क है कि दानदाताओं, जिनमें कॉर्पोरेट संस्थाएं शामिल हैं, ने भारत की सरकार और संसद द्वारा प्रदान की गई वैध व्यवस्था का पालन किया।

उन्होंने कहा, '22,217 चुनावी बॉन्ड जो विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा कॉर्पोरेट चंदा के माध्यम से विभिन्न कॉर्पोरेट संस्थाओं से प्राप्त किए गए थे, पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक थे। जिस दिन चंदा दिया गया था उस दिन वैध और कानूनी नियम का उल्लंघन करने के लिए किसी कॉर्पोरेट इकाई को कैसे दंडित किया जा सकता है? भले ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगा दी हो, यह रोक केवल संभावित प्रभाव से लागू होगी, पूर्वव्यापी रूप से नहीं। जब कोई कानूनी या संवैधानिक रोक नहीं थी, और जब स्पष्ट प्रावधान और संशोधित कानून थे जो कॉर्पोरेट संस्थाओं को योगदान देने में सक्षम बनाते थे, तो अब उन्हें कैसे दोषी ठहराया जा सकता है और दंडित किया जा सकता है।'

पत्र में कॉर्पोरेट दानदाताओं की पहचान और राजनीतिक दलों को उनके योगदान को उजागर करने के संभावित परिणामों की ओर भी इशारा किया गया है। अग्रवाला ने उत्पीड़न के ख़तरे की चेतावनी दी है जिसका सामना इन कॉर्पोरेट संस्थाओं को करना पड़ सकता है यदि उनका विवरण सार्वजनिक किया जाता है।

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क़मर वहीद नक़वी
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