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भारत-चीन रिश्ते में क्या पेच है कि रह-रह कर तनाव बढ़ जाता है?

दुनिया के दो सबसे पुरानी सभ्यताओं के बीच सदियों से चल रहे रिश्ते में ऐसा क्या पेच है कि रह-रह कर तनाव बढ़ जाता है? क्या वह शक और सुबहे की नींव है, या सभ्यताओं का टकराव है या अपने-अपने रणनीतिक और आर्थिक फ़ायदे -नुकसान की बात है या कोई तीसरी ताक़त है जो इन दो देशों के बीच खटास की वजह बनती रहती है।

मधुर शुरुआत

इन सवालों की पड़ताल शुरू कर सकते हैं 1949 से, जब माओ त्सेतुंग के नेतृत्व में हुई चीनी क्रांति और चीन को नए देश के रूप में स्वीकार करने वाले देशों में भारत भी था, जो ख़ुद दो साल पहले ही कई सौ सालों की ग़ुलामी से बाहर निकला था। यह एक बेहतर और मधुर रिश्तों की शुरुआत थी। चीन को मान्यता देने वाले पहला एशियाई देश भारत था।
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यह दोस्ती और गाढ़ी हुई जब भारत ने च्यांग काई शेक के ताईवान के बदले बीजिंग को स्वीकार किया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे स्थापित होने में मदद की।

तिब्बत का सवाल

लेकिन दोनों के बीच शक की नींव भी कुछ दिन बाद ही पड़ गई जब तिब्बत का मामला सामने आया। शुरू में जवाहर लाल नेहरू अलग व स्वतंत्र तिब्बत के पक्षधर नहीं थे, पर वह उसकी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना चाहते थे और दो देशों के बीच एक बफर स्टेट के रूप में भी उसे बनाए रखना चाहते थे। बीजिंग का साफ़ मानना था कि तिब्बत बहु-सांस्कृतिक चीन का एक हिस्सा है और वह देश का हिस्सा बने रह कर भी अपनी संस्कृति को बचाए रख सकता है।
इस पृष्ठभूमि में ही 1951 में दलाई लामा  व उनके प्रतिनिधियों ने चीनी सत्ता के प्रमुख माओ त्सेतुंग, चाओ एन लाई और देंग शियाओ पिंग से मुलाक़ात करने के बाद एक समझौते पर दस्तखत किया। भारत यही चाहता था।

पंचशील

इसके बाद ही 1959 में पंचशील के सिद्धांत पर चीन और भारत के बीच एक समझौते पर दस्तख़त हुआ।  
पंचशील के सिद्धांत का व्यावहारिक पक्ष यह था कि हाल ही में आज़ाद हुए मुल्क भारत को अपने विकास पर ध्यान देना था, किसी तरह के नए विवाद में नहीं पड़ना था।

तिब्बत में दिक्क़त

पंचशील के सिद्धान्त से भारत के रिश्ते चीन से मजबूत हो रहे थे। यह चीन के लिए भी मुफ़ीद था क्योंकि भारत चीन के अंदर रहते हुए तिब्बत को स्वीकार कर रहे था। 
कुछ दिनों में यह साफ हो गया कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और उसका सिस्टम देश के अंदर ही धर्म से संचालित किसी स्वायत्त क्षेत्र (इसे हम थियोक्रेटिक स्टेट भी कह सकते हैं) को नहीं पचा पा रहा था।

तिब्बत में विद्रोह

दलाई लामा भी बदले हुए चीन को नहीं समझ रहे थे। वह चीनी झंडे के अंदर पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे। क्रांति से उपजे देश में आज की तरह 'वन कंट्री टू सिस्टम' की अवधारणा नहीं थी। तिब्बत में 1959 में विद्रोह हुआ, उसे बुरी तरह कुचला गया, सैकड़ों लोग मारे गए, हज़ारों ने भाग कर भारत के धर्मशाला में शरण ली।
तिब्बत के सवाल और दलाई लामा व उनके लोगों को दिए गए आश्रय ने भारत और चीन के बीच संदेह का जो बीज बोया, वह आज तक बरक़रार है।

सीमा विवाद की शुरुआत

लगभग इसी समय यानी 1959 में ही चीनी प्रधानमंत्री चाओ एन लाई ने अंग्रेजों के जमाने में 1914 में दोनों देशों के बीच खींची गई सीमा रेखा मैकमोहन लाइन को मानने से इनकार कर दिया। मैकमहोन लाइन को सीमा नहीं मानने से सीमा से जुड़े असंख्य सवाल खड़े हो गए जिनका निपटारा आज तक नहीं हुआ है।
चीन को यह बिल्कुल नागवार गुजरा कि उसके यहाँ से भागे हुए दलाई लामा भारत में शरण ही नहीं लिए हुए हैं, अलग सरकार (गर्वनमेंट इन एग्जाइल यानी निर्वासित सरकार) चला रहे हैं।
सरकार ही नहीं चला रहे हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग तिब्बत की माँग कर रहे हैं और तिब्बत के सवाल को जिंदा रखे हुए हैं। भारत और तिब्बत के बीच की 1962 की लड़ाई की यही पृष्ठभूमि है।

1962 के बाद

यह अदावत आगे बढ़ी। चीन ने अक्साइ चिन से शिनजियांग तक का रास्ता बना लिया। जब 1954 में चीन ने नया नक्शा छापा और उसमें अक्साइ चिन को अपना हिस्सा बताया तो भारत ने कोई विरोध नहीं किया था। लेकिन 1962 के बाद भारत ने इस मुद्दे को उठाया और अक्साइ चिन-शिनजियांग रास्ते का विरोध किया।
यह तल्ख़ी और आगे बढ़ी। चीन ने अक्साइ-चिन का एक छोटा सा हिस्सा पाकिस्तान को लीज़ पर दे दिया। उसने कराकोरम हाईवे भी बना दिया जो शिन जियांग को पाक-अधिकृत कश्मीर से जोड़ता है और इसी लीज़ वाले इलाक़े में है। भारत का भड़कना स्वाभाविक था, पर वह आवाज़ उठाने के सिवा क्या कर सकता था?

1965, 1971 के युद्ध

इसके बाद रिश्तों में थोड़ा सा ठहराव आया। भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध में चीन ने पाकिस्तान को सिर्फ जुबानी समर्थन दिया था। 
चीन ने अमेरिका की तरह पाकिस्तान को खुल कर समर्थन नहीं दिया। भारत-पाकिस्तान 1965 की जंग में भी चीन ने पाकिस्तान की कोई मदद नहीं की थी।

संबंधों में सुधार

भारत में 1977 में पहली बार ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनी और अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो दोनों देशों के बीच रिश्तों में अहम बदलाव हुआ। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते बहाल हुए। वाजपेयी ने चीन की यात्रा की।

देंग का चीन

चीन में उस समय तक माओ त्सेतुंग की मौत हो चुकी थी, चाओ एन लाई का पराभव हो चुका था, देंग शियाओ पिंग के हाथ में पार्टी की कमान आ चुकी थी। देंग ने उस समय तक चीन को बदलने और उसे कट्टरपंथी कम्युनिज्म की सरंचना से निकाल कर बाज़ारवादी व्यवस्था पर चलाने का मन बना लिया था। इस बाज़ारवादी व्यवस्था पर चलने के लिए यह ज़रूरी था कि ध्यान आर्थिक विकास पर हो, सीमा विवाद या किसी बेवजह के झंझट पर नहीं। चीन ने भारत के साथ रिश्ते इसी लिए मजबूत किए।
राजीव गाँधी के 1984 में प्रधानमंत्री बनने तक चीन इस रास्ते पर आगे निकल चुका था। उसका ध्यान भारत के बाज़ार पर भी था और इसकी आर्थिक प्रगति पर भी। उसने प्रस्ताव दिया कि फिलहाल सीमा विवाद को टाल दिया जाए और इसे छोड़ सभी मुद्दों पर रिश्तों को आगे बढ़ाया जाए। यह बेहद महत्वपूर्ण इसलिए था कि उसके बाद ही चीन और भारत सही अर्थों में एक साथ हुए और दोनों के बीच पहली बार मजबूत रिश्ते बनने लगे।

मोदी और चीन

भारतीय जनता पार्टी और उसके आईटी सेल के लोग चाहे जो कहें पर सच यह है कि इस बदली व्यवस्था में आगे चल कर सबसे अधिक फ़ायदा नरेंद्र मोदी को ही हुआ। 
गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने चीन की दो बार यात्रा की, वहाँ की सौ से ज़्यादा कंपनियों को गुजरात में जगह दी। उनके समय ही गुजरात में दो विशेष आर्थिक क्षेत्र बने जिनमें सिर्फ चीनी कंपनियों को जगह दी गई, उन्हें कई तरह की छूट दी गईं।
नतीजा यह हुआ कि गुजरात में आज चीन का सबसे बड़ा निवेश है, चीन की पचासों कंपनियों ने अरबों डॉलर का निवेश किया है और हज़ारों लोगों को नौकरी दी है।

दो देशों के बीच तीसरी ताक़त!

बीच बीच में दोनों देशों के बीच थोड़ी बहुत नोंकझोंक भी हुई। चीन ने अरुणाचल प्रदेश के मुद्दे पर कई बार सवाल उठाए, कश्मीर के लोगों को नत्थी किया हुआ वीज़ा देना शुरू किया, संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ दिया। लेकिन कुल मिला कर रिश्ते पटरी से नहीं उतरे। यह एक बड़ी बात है।
चीन के साथ बड़ी दिक्क़त अमेरिका को लेकर है और दोनों देशों के बीच यह तीसरी ताक़त है जो इन दो देशों के रिश्ते को प्रभावत करती है। चीन इससे परेशान है कि अमेरिका उसे रोकने के लिए भारत का इस्तेमाल कर रहा है और नई दिल्ली जानबूझ कर इस खेल में शामिल है।
जिस तरह तिब्बत को लेकर संदेह का बीज बोया गया था, उसी तरह एक बार फिर संदेह का बीज बोया जा चुका है। दक्षिण चीन सागर में भारत की दिलचस्पी, चार चीन विरोधी देशों को मिला कर बनी संधि से भारत की दोस्ती, और जापान से नज़दीकी बीजिंग को परेशान करने के लिए काफी है।
इसी तरह पाकिस्तान से चीन की नज़दीकी, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा और गोल्डन नेकलेस परियोजना से भारत को घरेने की रणनीति चीन के ख़िलाफ वातावरण बनाने के लिए काफी है।
इसलिए चीन और भारत को अमेरिका और पाकिस्तान की ग्रंथि से निकलना होगा। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति क्या इतनी आसान होती है? शायद नहीं। दोनो देशों के बीच के रिश्ते को इसी तीसरी ताक़त और कूटनीति के खेल को समझना होगा। 
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प्रमोद मल्लिक
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