फिलवक़्त बहरे कानों पर दस्तक देकर दिल्ली से किसान वापस खेतों की ओर लौट गये पर वे फिर आएँगे क्योंकि उनके दिल्ली आने की वजह ज्यों-की-त्यों है।
ज्ञात और स्वीकृत इतिहास के अनुसार सिंधु घाटी की सभ्यता के समय और उसके पूर्व से दुनिया के इस भूभाग में, जो अब अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान-भारत और बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है, खेती होती रही है।
आज के भौगोलिक बँटवारे के नज़रिये से देखें तो भारत में दुनिया के सबसे बड़े भूभाग में खेती होती है। भले ही देश की जीडीपी का यह क़रीब 15 % है पर क़रीब 31% मज़दूरों और 60 % से ज्यादा आबादी का बोझ भारत में खेती ही ढोती है।
खेती के उत्पादों के निर्यात में हम लगातार विकास कर रहे हैं। पर बीते तीन दशकों में हमारे यहाँ उतने किसान सल्फ़ास खाकर, फाँसी लगाकर या अन्य किसी तरीक़े से काल के गाल में समा गए जितने वयस्क इराक़, लीबिया, सीरिया में संयुक्त रूप से युद्ध/गृहयुद्ध में बीते कुछ सालों में मारे गए हैं।
मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद किसान छिटपुट तौर पर और संगठित रूप से भी उनके वादों के लगातार झूठे पाए जाने के ख़िलाफ़ लाठी-गोली तक खाने सामने आए हैं। मंदसौर में गोली खाने से लेकर नाशिक से मुंबई तक तपती गर्मी में हज़ारों किसानों ने पैदल मार्च निकालकर देश के मध्य-वर्ग के मानवीय हिस्से को अपनी तकलीफ़ के पक्ष में आकृष्ट किया है। इसी वज़ह से इस बार के दिल्ली मार्च को न चाहते हुए भी राष्ट्रीय मीडिया को दर्ज़ करना पड़ा, विश्लेषण करने के प्रयास हुए और सोशल मीडिया ने तो उसे हाथों हाथ लिया।
कृषि क्षेत्र मोदी राज में काफ़ी उथल-पुथल का शिकार रहा। 2014-15 में तो इसकी विकास दर ऋणात्मक दर्ज़ हुई थी, 2015-16 में यह कुल 0.7 फ़ीसदी बढ़ी, 2016-17 में 4.9% और 2017-18 में 2.1%।
मनमोहन सरकार की विरासत में यह 5.6% थी। उत्पादन में कमी के बावजूद अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में 'बेरहम' फ़ैसलों के सबसे ज़्यादा शिकार किसान हुए। उनके उत्पादों के दाम इतने गिर गए कि टमाटर, आलू, लहसुन, अनार, दूध और तमाम अन्य सीज़नल फ़सली उत्पाद किसान मंडियों की सड़कों पर फेंक-फेंक ख़ाली हाथ घर वापस लौटे!
अगर हम मौजूदा सरकार की नीति बनाने वाले नीति आयोग की नज़र से किसानों के लिए भविष्य को समझें तो भारत के कृषि क्षेत्र को हर साल कम से कम 11% का विकास करना चाहिए। इस आँकड़े से कोई अर्थशास्त्री सहमत नहीं कि 11% की विकास दर से किसानों को 2022 तक फ़सल के लाभकारी/दुगने दाम मिलने लग जाएँगे। उनका आकलन है कि कम से कम यह दर 15% हो, तभी कुछ संभावना 2022 तक बन सकती है। पर मोदीजी की बाक़ी नीतियों से तो कृषि क्षेत्र 5-6% विकास दर भी हासिल करता नहीं दिख रहा तो आँकड़ों की इन क़वायदों का कोई अर्थ भी है क्या?36 हज़ार ने आत्महत्या की
बीते तीन सालों में आँकड़ों की तमाम बाज़ीगरी के बावजूद क़रीब 36 हज़ार किसान सरकारी फ़ाइलों में आत्महंतक के तौर पर दर्ज़ हुए हैं। सबसे आगे रहा महाराष्ट्र जहाँ बीजेपी की ही सरकार है और क़रीब 12 हज़ार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आँकड़ों को छिपाने का प्रमाण पंजाब से मिला जहाँ नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 459 का आँकड़ा दिखा रहा है जबकि पंजाब के विश्वविद्यालयों द्वारा घर-घर जाकर संकलित किए गए आँकड़ों में यह संख्या हज़ार पार कर गई है। इससे साबित होता है कि आँकड़ों की हेराफेरी करके सरकार कृषि संकट की भयावहता को कम करके दिखलाना चाहती है।
किसानों के सचेत हिस्से (जो आंदोलनों आदि से जुड़े रहते हैं) में इस सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा तब बढ़ा 'जब सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने 20 फ़रवरी 2015 को एफ़िडेविट पर कह दिया कि उसके लिए इनपुट कॉस्ट पर 50% क़ीमत पर मिनिमम सपोर्ट प्राइस को तय करना संभव नहीं है,' जबकि बीजेपी ने चुनाव के दौरान स्वामिनाथन कमिटी की इस सिफ़ारिश को ज़ोर-शोर से यूपीए के ख़िलाफ़ प्रचार में भुनाया था। बाद में धीरे-धीरे बाक़ी किसान समुदाय में यह बात फैलती चली गई कि यह सरकार किसानों के हक़ में स्वामिनाथन रिपोर्ट की सिफ़ारिश नहीं मानेगी। 29-30 के दिल्ली मार्च की दो प्रमुख माँगों में यह पहली माँग है।
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मोदी की स्कीम से किसान नाराज़ क्यों?
फ़सल के दाम न मिलने से बदहाल किसानी के दौर में कृषि क्षेत्र में काम करने वालों की क़रीब पचपन फ़ीसदी खेत-मज़दूर आबादी को इस सरकार में कोई आकर्षण न बचा। कौन उन्हें मज़दूरी बढ़ा कर देता? किस्तों पर महँगी रसोई गैस का सिलेंडर देने, ज़बरन 12 हज़ार रुपये की मदद से शौचालय बनवाने की स्कीम बूमरैंग कर गईं और घरविहीन लोगों के घर निर्माण के लिए लाख रुपये देने की योजना के सिवा मोदी जी के पास उनके बारे में 2019 के आम चुनाव में बोलने को कुछ नहीं है। दूसरे, खेत-मज़दूर समाज का बहुमत दलित और आदिवासी समाज से आता है जिन पर सामाजिक अत्याचारों की हर सीमा मोदीराज में टूट गई है। क़ानून-व्यवस्था की बदहाली और थानों में सुरसा बन गये भ्रष्टाचार ने इन्हें और वल्नरेबल बना दिया है। नतीजतन किसान आंदोलन में खेत-मज़दूर भी शामिल हो गए हैं।
मनमोहन सरकार को उसकी नीतियों का प्रतिफल पता था इसलिए सामाजिक अन्तर्द्वन्द्व को बढ़ने से रोकने के लिए वह मनरेगा लेकर आई थी। इस योजना के ज़रिए वह कृषि-क्षेत्र में फँसे लोगों को कुछ पैसा और कुछ काम देकर उलझाए रखती थी। मोदी सरकार ने इसकी भारी उपेक्षा की। आज इस योजना की कृपणता से तय की गई ज़रूरत क़रीब 80 हज़ार करोड़ रुपये से ऊपर है पर बीते बजट का आबंटन क़रीब 55 हज़ार करोड़ ही था। क़रीब 56% पुराने बकाये पड़े हुए हैं और 25 जनवरी 2018 की एक सरकारी स्वीकृति के अनुसार आठ राज्यों में इस योजना का क़रीब 16 सौ करोड़ नेगेटिव बैलेंस है। बिहार से आए एक मज़दूर ने कल मुझे किसान मार्च में बताया था कि उसे सौ दिनों में कुल आठ दिन काम मिल पाता है।
जलवायु परिवर्तन ने किसानी को सबसे वल्नरेबल आर्थिक गतिविधि में डाल दिया है और पी. साईंनाथ के अनुसार मोदी सरकार ने इसके जवाब में प्राइवेट बीमा कंपनियों के अपने दोस्तों की ज़ेब गरम करने का रास्ता निकाल लिया है! इसके चलते फ़सल बीमा योजना का सारा तामझाम एक स्कैम दिखाई दे रहा है। किसान ही नहीं, विपक्षी राजनैतिक दलों ने इसमें राजनैतिक संभावना सूंघ ली है और राहुल गाँधी आजकल इसपर सवार होकर हर सभा में अनिल अंबानी का लक्ष्यवेध रहे हैं!
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किसान आंदोलन चिनगारी से दावानल में बदला
आख़िर में वह सवाल जिसने किसान आंदोलन को चिनगारी से दावानल में बदल दिया, वह है कर्ज़ माफ़ी। देश की आर्थिक नीतियों में पिछली सदी के आख़िरी दशक में लिए गए फ़ैसले से देश की किसानी में आमूल-चूल परिवर्तन हुए। नक़दी फ़सलों ने परंपरागत खेती का नक़्शा ही उलट दिया। रिकॉर्ड उत्पादन की होड़ ने कृषि लागत के पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए और नए उपकरणों नए उर्वरकों और नए बीजों ने किसान को सम्मोहित कर दिया। यह सब हासिल करने की कोशिश में किसानों की ज़मीन-मकान-ज़मीर सब बैंकों और महाजनों के कर्ज़दार बनते चले गए! आज कृषि क्षेत्र क़रीब 10 लाख करोड़ के कर्ज़े में डूबा हुआ है और दिनोदिन और कर्ज़ों की ओर बढ़ रहा है।
यह सब ऐसे नहीं चल सकता। इसने सामाजिक ढाँचा बदल दिया है। कृषि छेत्र का मालिकाना बदल रहा है। खेत-मज़दूरी की बढ़ती दर ने पिछड़ी जातियों की खेतिहर भूमिका को ग्रामीण महासागर का नायक बना दिया है। पिछड़ी जातियों की स्त्रियाँ अपने पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर खेती-किसानी का हर काम कर लेती हैं जबकि सवर्ण स्त्रियों का बहुमत घरों में ही क़ैद रहता है। इसके चलते उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से से कृषि-क्षेत्रों से सवर्ण लगभग ग़ायब होते जा रहे हैं। सवर्णों की ज़मीनें पहले बँटाईदारी पर और बाद में बिक कर मालिकाना बदल रही हैं। इस सबसे ऐसे आँकड़े तैयार हो रहे हैं जिनके राजनैतिक प्रतिफल अनचाहे सामाजिक टकराव को जन्म देंगे।देखते हैं कि भविष्य इन सवालों को कैसे हल करता है?
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