कर्नाटक हाई कोर्ट ने गुरुवार को जाति सर्वेक्षण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने इस प्रक्रिया को कुछ शर्तों के साथ आगे बढ़ाने की अनुमति दी। कोर्ट ने साफ़ किया है कि सर्वेक्षण में भागीदारी पूरी तरह स्वैच्छिक होगी और जुटाए गए डेटा को गोपनीय रखा जाएगा। यह फ़ैसला विभिन्न समुदायों द्वारा दायर याचिकाओं पर तीन दिन की सुनवाई के बाद आया है, जिसमें सर्वेक्षण की वैधता पर सवाल उठाए गए थे।

कर्नाटक हाई कोर्ट की खंडपीठ में मुख्य न्यायाधीश विभु बाखरू और न्यायमूर्ति सी.एम. जोशी शामिल थे। पीठ ने जाति सर्वेक्षण के नाम से जाने जाने वाले सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वेक्षण पर सुनवाई की। खंडपीठ ने कहा कि सर्वेक्षण को रोकने का कोई ठोस कारण नहीं है। कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में निर्देश दिया कि कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को यह सुनिश्चित करना होगा कि सर्वेक्षण में जुटाया गया डेटा पूरी तरह गोपनीय रहे और इसे किसी के साथ साझा न किया जाए। कोर्ट ने आयोग से एक हलफनामा दायर करने को कहा, जिसमें डेटा सुरक्षा और गोपनीयता के लिए उठाए गए कदमों की जानकारी हो।
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इसके अलावा अदालत ने सरकार को निर्देश दिया कि वह एक सार्वजनिक अधिसूचना जारी करे, जिसमें साफ़ किया जाए कि सर्वेक्षण में भाग लेना अनिवार्य नहीं है और नागरिकों पर जानकारी देने के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाएगा। कोर्ट ने यह भी पूछा कि सर्वेक्षण के हैंडबुक में यह क्यों नहीं बताया गया कि भागीदारी स्वैच्छिक है और गणनाकर्ताओं को हर घर में जाकर बार-बार जानकारी मांगने के निर्देश क्यों दिए गए।

सर्वेक्षण की शुरुआत

कर्नाटक में यह सर्वेक्षण 22 सितंबर 2025 को शुरू हुआ और इसे 7 अक्टूबर तक पूरा करने का लक्ष्य है। इसमें 1.75 लाख गणनाकर्ता लगभग 7 करोड़ लोगों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक स्थिति का डेटा जुटा रहे हैं। यह कर्नाटक में एक दशक में दूसरा ऐसा सर्वेक्षण है। इस सर्वेक्षण पर 420 करोड़ रुपये ख़र्च आने का अनुमान है।

हालाँकि, सर्वेक्षण की शुरुआत से ही तकनीकी समस्याओं का सामना करना पड़ा है, क्योंकि सर्वर में खराबी और ऐप में गड़बड़ियों की शिकायतें सामने आईं। बेंगलुरु में प्रशिक्षण की कमी और दक्षिण कन्नड़ जिले में गणनाकर्ताओं पर मतदाता सूची के लिए विशेष गहन संशोधन यानी एसआईआर का अतिरिक्त बोझ भी देरी का कारण बना।

‘यह सर्वेक्षण छिपी हुई जनगणना’

सर्वेक्षण के खिलाफ राज्य वोक्कालिगा संघ, अखिल भारत ब्राह्मण महासभा और अखिल भारत वीरशैव लिंगायत महासभा सहित कई संगठनों ने याचिकाएँ दायर की थीं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह सर्वेक्षण केंद्र सरकार के जनगणना अधिनियम के तहत उसके विशेषाधिकार में हस्तक्षेप करता है। उन्होंने इसे ‘सर्वे के रूप में छिपी जनगणना’ करार दिया।

याचिकाकर्ताओं ने यह भी दावा किया कि सर्वेक्षण में आधार नंबर, राशन कार्ड, मोबाइल नंबर और घरों के जियो-टैगिंग जैसे व्यक्तिगत पहचानकर्ताओं को जोड़ना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गोपनीयता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इसके अलावा 1561 जातियों की सूची को मनमाना और बिना वैज्ञानिक आधार के तैयार किया गया बताया गया।
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केंद्र सरकार का रुख

केंद्र सरकार ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अरविंद कामथ के माध्यम से कोर्ट में कहा कि कर्नाटक का यह सर्वेक्षण ‘सर्वे के रूप में छिपी जनगणना’ है। कामथ ने तर्क दिया कि केवल केंद्र सरकार ही जनगणना अधिनियम के तहत जाति गणना सहित जनगणना करने के लिए अधिकृत है और यह सर्वेक्षण केंद्र के अधिकार क्षेत्र में दखल देता है। उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र ने 2027 में शुरू होने वाली जनगणना की अधिसूचना पहले ही जारी कर दी है।

कर्नाटक सरकार का बचाव

कर्नाटक सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और प्रो. रविवर्मा कुमार ने कोर्ट में दलीलें दीं। सिंघवी ने तर्क दिया कि यह सर्वेक्षण ‘जाति गणना’ नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वेक्षण है, जो कल्याणकारी नीतियों के लिए ज़रूरी डेटा देगा। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 1992 के इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार और पुट्टस्वामी फ़ैसलों का हवाला देते हुए कहा कि राज्यों को कल्याणकारी उद्देश्यों के लिए डेटा जुटाने का अधिकार है।

सिंघवी ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं ने सर्वेक्षण को ‘अवैज्ञानिक’ बताकर सामान्य आरोप लगाए हैं, जिनका परीक्षण केवल परिणाम प्रकाशित होने के बाद ही हो सकता है। उन्होंने बिहार का उदाहरण देते हुए कहा कि राज्य सरकारें ऐसी गणना कर सकती हैं और कर्नाटक को केंद्र की जनगणना का इंतजार करने की जरूरत नहीं है।
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बीजेपी का आरोप

बीजेपी ने सर्वेक्षण को ‘हिंदुओं को विभाजित करने का प्रयास’ करार दिया और इसे ‘असंवैधानिक’ बताया। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बी.वाई. विजयेंद्र ने कहा कि यह सर्वेक्षण कांग्रेस का ‘राजनीतिक हथकंडा’ है, जिसका उद्देश्य वोक्कालिगा और लिंगायत जैसे प्रभावशाली समुदायों को कमजोर करना है। 

वहीं, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने सर्वेक्षण का बचाव करते हुए कहा कि यह पिछड़े वर्गों के लिए नीतियां बनाने में मदद करेगा। उन्होंने 2015 के कांताराज आयोग की रिपोर्ट को ‘पुराना’ और ‘अवैज्ञानिक’ बताते हुए इसे रद्द कर दिया था, जिसके बाद यह नया सर्वेक्षण शुरू किया गया।

कर्नाटक हाई कोर्ट का यह फैसला राज्य सरकार के लिए बड़ी राहत है, लेकिन स्वैच्छिक भागीदारी और डेटा गोपनीयता की शर्तों ने सर्वेक्षण की प्रक्रिया को और जटिल बना दिया है। तकनीकी समस्याओं और गणनाकर्ताओं पर अतिरिक्त बोझ के कारण सर्वेक्षण की समयसीमा में देरी की संभावना है।