न्यूज़ चैनलों का पहला मक़सद मार्केट में अव्वल बनकर अपना वर्चस्व कायम करना और उसके बल पर मुनाफ़ा बढ़ाना है। दूसरा मक़सद है टीआरपी की होड़ में आगे रहकर राजनीति और दूसरे हल्कों में अपनी पैठ बनाते हुए अन्य लाभ उठाना। इसलिए टीआरपी की होड़ में अव्वल बने रहना उनके लिए बेहद ज़रूरी है।
TRP का दुष्चक्र-3: कैसे बदला टीवी न्यूज़ का चाल-चरित्र?
- मीडिया
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- 28 Oct, 2020

टीवी चैनलों की टीआरपी का ‘खेल’ क्या है? आख़िर टीवी चैनलों पर टीआरपी का असर क्या हुआ? इस पर सत्य हिंदी एक शृंखला प्रकाशित कर रहा है। पहली व दूसरी कड़ी प्रकाशित हो चुकी है। तीसरी कड़ी में पढ़िए कैसे टीआरपी के दबाव में पहले पहल अपराध पर आधारित ख़बरों और कार्यक्रमों की बाढ़ आई। मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा। सनसनी व नाटकीयता पर जोर दिया गया और फिर टीवी का चरित्र ही बदल गया।
ध्यान रहे, टीआरपी गिरने से केवल विज्ञापन ही कम नहीं होते, बल्कि बाज़ार के साथ-साथ हर क्षेत्र में चैनल का रुतबा भी कम होता जाता है। इसके उलट जो चैनल रेटिंग में ऊपर उठता है उसका रुतबा बढ़ जाता है। हाल में जब ‘आजतक’ पहले नंबर से फिसला और ‘रिपब्लिक भारत’ नंबर वन बन गया तो यही हुआ। ‘आजतक’ में लगातार पिछड़ने के बाद स्यापा पसर गया तो ‘रिपब्लिक भारत’ उसे चिढ़ा-चिढ़ाकर जश्न मनाता दिखा।
कहने का मतलब यह है कि रुतबा पाने या कायम रखने के लिए भी न्यूज़ चैनल टीआरपी की जंग में अपना सब कुछ झोंक देते हैं। वे हर हथकंडा आज़माने के लिए तैयार हो जाते हैं और इसका सबसे पहला प्रभाव पड़ता है न्यूज़ कंटेंट पर (जैसे आज तक पहले के मुक़ाबले और भी हिंदुत्ववादी बनने लगा है)। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि टीआरपी, टीवी न्यूज़ और बाज़ार के रिश्तों को समझा जाए।