ख़बर है कि बिहार बीजेपी के सांगठनिक सचिव भिखू भाई दलसानिया ने राज्य बीजेपी के 23 पदाधिकारियों के साथ पटना में बैठक की और मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण कार्यक्रम में बूथ स्तर पर पार्टी के लोगों की सक्रियता सुनिश्चित करने को कहा। ऐसा इस अभियान से हो सकने वाले संभावित नुकसान को रोकने के लिए किया जा रहा है। इस पुनरीक्षण को लेकर विपक्ष हंगामा मचा रहा है और सुप्रीम कोर्ट में 26 याचिकाएँ दाखिल की गई हैं। उल्लेखनीय है कि किसी ने भी इस प्रक्रिया पर रोक की मांग नहीं की है। अदालत ने एक बार की सुनवाई में सरकारी वकील से कई बातों का स्पष्टीकरण मांगने के बाद मतदाता पहचान पत्र बनाने में आधार कार्ड, पुराने मतदाता पहचान-पत्र और राशन कार्ड को भी विचार के लिए शामिल करने का सुझाव दिया जिन्हें चुनाव आयोग ने मतदाता पहचान के लिए ज़रूरी 11 दस्तावेजों में शामिल नहीं किया था। इसे ही लेकर सबसे ज़्यादा विवाद रहा है।
आयोग और उसके समर्थन में बीजेपी के लोग यह कहते रहे हैं कि मतदाता का नागरिक होना ज़रूरी है और ये प्रमाणपत्र पुख्ता रूप से नागरिकता साबित नहीं करते। फिर फर्जी आधार कार्ड, मतदाता पहचानपत्र, राशन कार्ड, इनकी सूची से चालीस लाख फर्जी नाम निकाले जाने या कई जिलों में मतदाताओं की तुलना में आधार कार्ड की संख्या ज़्यादा होने जैसी दलीलें दी जाती रही हैं। और बात घूम फिर कर मतदाता बनाम नागरिकता की बहस और बांग्लादेशी-रोहिंग्या घुसपैठ, हिन्दू-मुसलमान और ‘इससे देश को होने वाले ख़तरे’ पर आ गई है।
बीजेपी की क्या रणनीति?
बीजेपी मानकर चलती है कि उसे मुसलमानों का वोट लगभग नहीं मिलता। विपक्ष अर्थात कांग्रेस और आरजेडी मुसलमान वोट को अपना आधार मानते हैं। उनका इसके लिए चिंतित होना एक तात्कालिक ज़रूरत है। और महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली वगैरह में मतदाता सूची में छेड़छाड़ का आरोप लगाने वाला विपक्ष इस बार शुरू से बहुत चौकस रहा है- शोर मचाने से लेकर बूथ स्तरीय कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने और अदालत का दरवाजा खटखटाने तक। इसीलिए यह मसाला जल्दी चर्चा में आया और यह पूरी प्रक्रिया सबकी नजर में है। इसमें जब अजीत अंजुम जैसे कोई पत्रकार सूची नया करने वालों को बिना प्रशिक्षण मैदान में उतारने और इस प्रक्रिया में दोष की ख़बर देते हैं तो उनके ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज हो जाता है।
बिहार ही क्यों, बंगाल भी इस सर्वेक्षण के सवाल पर अभी से गरमाने लगा है। गाँव-गाँव में खलबली मची है क्योंकि जन्म और निवास प्रमाणपत्र हासिल करना आसान नहीं है और जब करोड़ों लोग बाहर काम करने निकलें हों तो यह काम और मुश्किल हो गया है। दूसरी ओर चुनाव आयोग और सरकार जल्दी जल्दी यह काम निपटाने और कितनी जल्दी अस्सी या पचासी फीसदी मतदाताओं का फार्म आ गया यह बताने का अभियान चला रही है। इससे विपक्षी अभियान तो मद्धिम नहीं पड़ा है लेकिन लोजपा और जदयू जैसे सहयोगी दल उलझन में हैं और अब ख़बर है कि खुद बीजेपी नुक़सान को लेकर डरने लगी है।
SIR पर क्या आपत्ति है?
अब इस प्रक्रिया का अंत तो मतदाता सूची के प्रकाशन, आपत्तियों के निपटान और कुछ मुकदमे-सुनवाई जैसी सामान्य विधि में ही होनी है। और इस लेखक जैसे काफी लोगों का मानना है कि इस सघन अभियान से सूची पर कुछ भी बड़ा फर्क नहीं होगा। सारे नाम वापस आएंगे और नए नाम भी सुविधा से जोड़े जाएंगे। अगर कुछ हुआ है तो नागरिकता और हिन्दू मुसलमान का मुद्दा राजनैतिक डिस्कोर्स में नए तरह से उठा है और इसके अपने नफा नुक़सान हैं। लेकिन असली नुक़सान आयोग और देश की उस बड़ी योजना को होने जा रहा है जिसमें अगले साल तक देश के सभी मतदाताओं की पहचान और उनके फ़ोटो पहचान को नई तकनीक के माध्यम से मिलाकर पक्का रूप दे देना था। बिहार में जिस तरह से अप्रशिक्षित लोग फार्म भर रहे हैं, वे अपना काम दूसरे लोगों से करा रहे हैं, फार्म के साथ लगने वाले दस्तावेज और फ़ोटो में जिस तरह कई लापरवाही सुनाई दे रही है उससे साफ लगता है कि आयोग की तैयारी आधी-अधूरी है, उसने बहुत कम समय में यह काम पूरा करने का लक्ष्य रखा है, वह विपक्षी हंगामे के दबाव में है और संभवत: उससे भी ज़्यादा शासक दल के दबाव में काम कर रहा है। राजनैतिक हंगामे के बाद दिल्ली, हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह नाम काटना और जोड़ना भी संभव नहीं होगा जो आरोप विपक्ष लगा रहा है।
चुनाव आयोग का आँकड़ा क्या?
और बात सिर्फ़ विपक्ष के आरोप या राहुल गांधी द्वारा चुनाव बीतने के काफी बाद दिए जाने वाले आंकड़ों भर की नहीं है। खुद आयोग के आँकड़े भी इस अभियान की मंशा और प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे हैं। सामान्य ढंग यही रहा है कि हर साल डेढ़ से दो करोड़ नए मतदाता नई सूची में आ जाते हैं। नए वोटर बनने वाले लड़के-लड़कियों को जोड़ने और इस बीच दुनिया या शहर/गाँव छोड़कर नई जगह जाने वालों की गिनती घटाने के बाद मिली संख्या। पर इधर आबादी की वृद्धि दर में कोई बाद बदलाव नोटिस नहीं किया गया है लेकिन 2023 से मतदाता सूची का आकार 18 लाख घट गया है। जाहिर तौर पर इतने ज़्यादा नाम काटने की कोई वजह, या उनको दिए गए नोटिस या सुनवाई की ख़बर भी नहीं आई है। अर्थात नाम अपनी तरफ़ से काट दिए गए और कोई वैधानिक औपचारिकता भी पूरी नहीं की गई। इसी बिहार में फ़ॉर्म भरे जाने के बाद मांगे जाने पर भी कहीं से भी पावती दिए जाने की ख़बर नहीं है। हालाँकि संसद में सरकार ने पिछली बार मात्र तीन बांग्लादेशी लोगों के नाम मतदाता सूची में आने और पकड़े जाने की बात मानी थी लेकिन यह राजनैतिक हंगामा मचता है। बिहार और आगे बंगाल में भी यह शोर मचेगा।
लेकिन इसी हड़बड़ी, इसी तरह के दबाव और बिहार जितनी कम तैयारी के साथ अगर ‘गहन पुनरीक्षण’ किया जाता रहा तो यह सचमुच की शुद्ध सूची बनाने के घोषित उद्देश्य के खिलाफ ही जाएगा। सो एक बड़ा नुकसान तो इतनी उन्नत तकनीक और इतने साधनों की बर्बादी के बावजूद कोई लाभ हासिल न होना ही होगा। पर उससे भी ज्यादा मतदाता बनाम नागरिक का व्यर्थ का विवाद छेड़ने, मामले को सांप्रदायिक रंग देने, दोनों समुदायों में द्वेष बढ़ाने और नागरिकता के सवाल का मजाक बना देना होगा। असम में हम ऐसा उलझाव देख रहे हैं जो वर्षों से वैसे ही पड़ा है और हर चुनाव में इस्तेमाल होता है। अब अगर बिहार और फिर बंगाल में ऐसा हुआ तो देश का एक बड़ा हिस्सा खुद ब खुद एक जाल में फँसेगा जो हर किसी की नागरिकता को संदिग्ध बना देगा। और जैसा बीजेपी के प्रभारी पदाधिकारी को भी लग रहा है कि यह सवाल उसे लाभ देने की जगह घाटा दे सकता है तो मामले की गंभीरता समझनी चाहिए। और दुनिया में सबसे ज्यादा ताकतवर चुनाव एजेंसी बनकर भी आयोग अगर इस तरह के फैसले करेगा, ऐसे काम करेगा तो उसकी मर्यादा और शक्ति दोनों का ह्रास होगा ही।