किसी भारतीय को बताने की ज़रूरत नहीं है कि हमारा लोकतंत्र क़रीब एक साल से लॉकडाउन में है। कोविड-19 महामारी ने केवल इस सच्चाई को और उघाड़ दिया है। वैकल्पिक आख्यान को छोड़ भी दें तो यह राजनैतिक लॉकडाउन मुख्यतः विपक्षी दलों के प्रतिरोध न कर सकने की अक्षमता का परिणाम है। अपनी चुनावी सफलता से उत्साहित, नरेंद्र मोदी-अमित शाह शासन एक ऐसा राजनीतिक ब्रह्मांड का निर्माण करने की कोशिश कर रहा है जिसमें निरंतर फ़ोटो खिंचवाने के मौक़े हों, जो चापलूसी के सहारे चल रहा हो, और जहाँ रचनात्मक प्रतिरोध का कोई निशान भी न हो जो एक सच्चे लोकतंत्र में सैद्धान्तिक असहमति पैदा करता है।
हमारे सबसे बेहतरीन युवाओं को देश के सामने आतंकवादी क्यों बताया जा रहा है?
- विचार
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- 10 Jun, 2020

जनवरी में एनआरसी और सीएए के ख़िलाफ़ युवाओं का प्रदर्शन (फ़ाइल फ़ोटो)
जामिया मिल्लिया इसलामिया और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के आंदोलनकारी छात्रों की ऐसी तसवीर खींची जा रही है मानो उनको राजनीति करने का हक़ ही न हो और उनका ऐसा करना ही दहशतगर्दी हो! इसीलिए छात्रों और सामाजिक आंदोलनों के बीच के संबंध को वे साज़िश की तरह पेश कर रहे हैं जबकि यह हमारे लोकतंत्र की नींव है।
यह परियोजना लगभग सफल रही है। सत्ता द्वारा छोड़ा हुआ रूपकात्मक अश्वमेध का घोड़ा बिना किसी प्रतिरोध के अपने साम्राज्य में घूमता रहा है, बस दो अपवादों को छोड़कर। प्रतिरोध के इन केंद्रो में से एक विश्वविद्यालय परिसर है, और दूसरा एक राजनीतिक आंदोलन है- नागरिकता संशोधन क़ानून और उसके पूरक प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बिल के ख़िलाफ़ देशव्यापी आंदोलन।