पिछले 10-15 साल में सामाजिक- सांस्कृतिक स्तर पर जो बदलाव हुए हैं, सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है। मोबाइल क्रांति ने एक नए सामाजिक परिवेश को जन्म दिया है। यह एक आभासी दुनिया है, लेकिन इसके जरिए होने वाले बदलाव केवल आभासी दुनिया तक महदूद नहीं हैं। इसने लोगों की रोजाना की जिंदगी में उथल-पुथल मचाई है। सूचना तंत्र पर सूचनाओं का अंबार है। ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया के विभिन्न साधनों के जरिए दुनिया को देखने- समझने का एक नया नजरिया पैदा हुआ है। इसने हमारे सूचनात्मक ज्ञान को समृद्ध किया है लेकिन सोशल मीडिया के दुरुपयोग ने सामाजिक संबंधों और जीवन मूल्यों को बड़े पैमाने पर दूषित किया है।

सोशल मीडिया ने सृजन और संवाद की संस्कृति को बुनियादी रूप से प्रभावित किया है। स्वभाव में बढ़ती अधीरता ने रचनाधर्मिता और छपने की हड़बड़ी में रचना की बनावट और संवेदना, दोनों पर प्रभाव डाला है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव संवादधर्मिता पर हुआ है। ज्यादातर संवाद, विवाद में तब्दील हो रहे हैं। चूंकि सोशल मीडिया पर कोई नैतिक अनुशासन नहीं है, इसलिए विरोध करने के लिए अपशब्दों की सारी सीमाएं लांघी जा चुकी हैं। हिंसा प्रेरक शब्दों और गालियों के जरिए एक ऐसा भाषिक माहौल बना दिया गया है, जिस पर कोई प्रतिबंध या आत्मनियंत्रण नहीं है।
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सोशल मीडिया पर बढ़ते हिंसक दृश्य

पर्यावरण के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जिस तरह मानव जीवन के लिए शुद्ध वातावरण जरूरी है, उसी तरह संवेद्य भाषिक वातावरण भी जरूरी है। मानव जीवन की पहली बड़ी क्रांति भाषा के रूप में हुई। ध्वनि और आंगिक संकेतों से निकलकर जब इंसान ने शब्दों को पैदा किया तो समाज व्यवस्थित हुआ। समाज, मानव जीवन जीने की व्यवस्था है। लेकिन आज भाषा की विकृति मानव जीवन के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। संवादों में गालियां, हिंसा प्रेरक शब्द, अश्लीलता परोसने वाले शब्द, हमेशा से समाज के लिए अनैतिक और अग्राह्य समझे जाते थे। लेकिन आज फिल्मों से लेकर सोशल मीडिया पर बढ़ते हिंसक दृश्य; अश्लील और अनैतिक संबंध, मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे हैं। इन शब्दों और बिंबों का मानव जीवन और मनोमस्तिष्क पर गहरा असर हो रहा है। खासकर, नई पीढ़ी के किशोरवय बच्चों में बढ़ते हिंसा और सेक्स के प्रति रुझान ने समाज को बड़े पैमाने पर दूषित किया है। 

भाषा सिर्फ शब्दों और संवादों में नहीं होती, दृश्यों की भी एक भाषा होती है। पोर्नोग्राफी से लेकर वेब सीरीज जैसे फिल्मी दृश्यों ने समाज और नई पीढ़ी पर गहरा असर डाला है। इससे रिश्तों की मर्यादा बिखरी है। सामाजिक संबंध टूटे हैं। आधुनिक मूल्यों और तर्कों के आधार पर विकसित होने वाले संबंध आज स्वार्थ और अहंकार में डूब रहे हैं। इसलिए भाषा के इस बढ़ते असर को प्रदूषण की तरह देखा जा रहा है, जो पर्यावरण प्रदूषण की तरह ही मानव जीवन पर प्रतिकूल असर डाल रहा है।

दुनिया को अभिव्यक्त करने का माध्यम भाषा

विश्व प्रसिद्ध भाषाविद जॉर्ज स्टेनर कहते हैं कि 'दुनिया जैसी है, वैसी उसे स्वीकार करने का मनुष्य का मुख्य उपकरण भाषा है।' दुनिया को अभिव्यक्त करने का माध्यम भाषा है। प्रत्येक भाषा की अपनी एक विश्वदृष्टि है। हिन्दी की विश्वदृष्टि बेहद उदार और समावेशी रही है। लंबे समय से हिन्दी इस देश की संपर्क भाषा है। लेकिन साहित्यिक भाषा बनने का इसका इतिहास डेढ़ शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। हिन्दी सिर्फ एक भाषा नहीं है बल्कि 46 बोलियों का परिवार है। हिन्दी स्थानीय बोलियों और देशी-विदेशी भाषाओं के शब्दों से समृद्ध होती रही है। पिछली एक सदी में हिन्दी की जितनी भाषिक समृद्धि हुई है, उसके मुकाबले 21वीं शताब्दी में हिन्दी की समृद्धि अधिक गत्यात्मक है। लेकिन भूमंडलीकरण की सांस्कृतिक प्रक्रिया और सूचनाओं के बेतरतीब बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दी का स्वभाव दूषित हुआ है। अपसंस्कृति को बढ़ावा मिला है।

भूमंडलीकरण के चलते भौतिकवाद और उपभोक्तावाद बढ़ा है। पश्चिमीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण भारतीय संस्कृति दूषित हुई है। लेखक हो या सामाजिक कार्यकर्ता इस फेसबुकिया दौर में सबकी प्रदर्शनप्रियता बढ़ी है।

अपभाषा की संस्कृति बेलगाम हुई

काम को प्राथमिकता देने के बजाय आत्म प्रदर्शन और महत्वाकांक्षाओं का असर सीधे तौर पर दिखाई पड़ रहा है। हिन्दी की भाषिक संस्कृति पर भी इसका प्रभाव हुआ है। अंग्रेजी शब्दों का बोलबाला बढ़ रहा है। सामाजिक प्रतिबद्धता के बजाय लेखक पुरस्कार पाने और फैन बनाने के लिए बेताब नजर आते हैं। रील्स की दौड़ में नेता, अभिनेता ही नहीं लेखक भी शरीक हो गए हैं। इसलिए उनकी रचनाशीलता प्रभावित हुई है। संवेदना, शिल्प और भाषा पर भी गहरा असर देखा गया है। लोकप्रिय साहित्य के नाम पर चलताऊ कथाएं लिखी जा रही हैं। हास्य के नाम पर फूहड़ता, प्रेम के नाम पर यौनिकता और संघर्ष के नाम पर गैंगवॉर दिखाया जा रहा है। इससे अपभाषा की संस्कृति बेलगाम हुई है। रही सही कसर बॉलीवुड की फिल्मों, विज्ञापनों और रील्स के जरिए परोसी जा रही अश्लीलता ने पूरी कर दी है।

भारतीय समाज मूलतः वर्णवादी और पितृसत्तात्मक रहा है। इसीलिए हिंदू समाज में स्त्रियां और दलित सदियों से पीड़ित हैं। जातिगत ऊंच-नीच वाली मनुवादी व्यवस्था में स्त्रियों और दलितों को शिक्षा, शस्त्र और संपत्ति से वंचित किया गया। शोषण और अन्याय की इस दमनकारी व्यवस्था में स्त्रियां और दलित शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की हिंसा का शिकार होते रहे हैं। शारीरिक हिंसा से ज्यादा भयावह मानसिक हिंसा है। मानसिक हिंसा के जरिए इन वर्गों के मनोबल को तोड़ा गया। भाषिक स्तर पर होने वाली यह मानसिक हिंसा, समाज में प्रचलित गालियों और कहावतों में प्रकट होती है, जो मूलतः स्त्री और दलित विरोधी हैं। निरंतर इन वर्गों को अश्लील और अपमानजनक गालियों का सामना करना पड़ा। कुछ जातियों और स्त्रियों को अपशकुन तक करार दिया गया। इस व्यवस्था ने सदियों तक दलितों और स्त्रियों को गुलाम बनाकर रखा। नवजागरण के दौर में ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई, फातिमा शेख ने स्त्री और दलित विरोधी धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को खारिज किया। 
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खुलेआम मनुस्मृति का समर्थन

स्वाधीनता आंदोलन में डॉ. आंबेडकर ने दलितों और स्त्रियों की सामाजिक आजादी के लिए संघर्ष किया। स्वतंत्रता के बाद असमानता और अन्याय को समाप्त घोषित करते हुए संविधान ने सबको बराबरी का दर्जा दिया। लेकिन चूंकि सामाजिक ढांचे में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ, इसलिए कानून के बावजूद, स्त्रियों और दलितों के प्रति वर्णवादी और पितृसत्तात्मक मानसिकता में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। अलबत्ता, संविधान और आधुनिक मूल्यों के प्रभाव में शहरों के शिक्षित वर्ग में जरूर एक मानवीय चेतना पैदा हुई। शिक्षा और वैज्ञानिक सोच ने इस वर्ग में समतापरक मूल्यों और संस्कारों को पैदा किया। 70 और 80 के दशक में साहित्य के किरदार हों या फिल्म के संवाद उनकी भाषा समावेशी और सौहार्दपरक होती थी। इसका असर शहराती जीवन शैली में दिखाई देने लगा था। लेकिन 21वीं सदी में धर्मांधता, राजसत्ता और पूंजीवाद के गठजोड़ ने समाज में एक बार फिर से भाषिक कुसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। एक वर्ग विशेष द्वारा खुलेआम मनुस्मृति का समर्थन किया जा रहा है। सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए मनुवादी और वर्णवादी मानसिकता के लोग दलितों और स्त्रियों के प्रति अभद्र, अश्लील और हिंसात्मक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। यह प्रयोग समाज से लेकर संस्कृति के विभिन्न आयामों में दिखाई दे रहा है। फिल्मी संवाद और सोशल मीडिया पर बढ़ती अश्लीलता और गालियां, दरअसल सामाजिक विघटन और दूषित मानसिकता की परिचायक हैं।

इंटरनेट और मोबाइल क्रांति ने सूचनाओं के अपरिमित द्वार खोले हैं। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए लोगों का परस्पर जुड़ाव हुआ है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में बैठकर लोग आपस में चैटिंग कर रहे हैं। इससे एक नई तरह की सामाजिक क्रांति हुई है। टाइम्स नाउ वेबसाइट (30 अगस्त, 2019) की एक खबर के अनुसार अमेरिका की एमिनी ने भारत आकर अमृतसर के रहने वाले पवन से शादी की। कुछ महीने पहले ही दोनों की मुलाकात फेसबुक पर हुई थी। मैसेंजर पर दोनों में चैटिंग शुरू हुई। फिर दोनों में प्यार हुआ और इसके बाद शादी। सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की नई खिड़कियां भी खोली हैं। लोकतांत्रिक मुद्दों पर चलने वाली बहसों ने जानकारी का दायरा बढ़ाया है। 

दुनिया भर में अनेक आंदोलन सोशल मीडिया के जरिए सफल हुए हैं। लेकिन सोशल मीडिया का यह सिर्फ एक पहलू है। आभासी दुनिया में फैला यह नेटवर्क बेहद अनसोशल भी है, जिसने रिश्तों को विद्रूप बनाकर परिवार और समाज को विघटित किया है।

सोशल मीडिया के एडिक्शन का मस्तिष्क पर हमला

पिछले एक- डेढ़ दशक में सोशल मीडिया ने पूरे समाज को अपनी चपेट में ले लिया है। कुछ आंदोलन, कुछ शादियां और कुछ बहसों को छोड़ दें तो सोशल मीडिया ने लोगों के मस्तिष्क पर तीव्र हमला किया है। मोबाइल के जरिए सोशल मीडिया, हमारे बेडरूम से लेकर किचेन और बाथरूम तक घुस गया है। सोशल मीडिया फेक न्यूज़ से लेकर मनोरंजक और उत्तेजक रील्स से भरा हुआ है। इसने समाज की हर पीढ़ी को प्रभावित किया है। लेकिन बच्चों और नौजवानों को इसका एडिक्ट बना दिया है। सोशल मीडिया के एडिक्शन ने लोगों के मस्तिष्क पर जो हमला किया है, उससे पढ़ाई- लिखाई ही नहीं प्रभावित हुई है बल्कि उनकी भाषा और संस्कार भी विकृत और दूषित हुए हैं। सोशल मीडिया पर भौंडे गाने, अश्लील नृत्य और सेक्स वीडियो की भरमार है। इससे किशोरों और नौजवानों में यौन कुंठा पैदा हुई है। महिलाओं के प्रति उनकी भाषा अश्लील और हिंसक हुई है।

मशहूर भाषाविद ओलिवर वेंडेल होम्स कहते हैं कि 'हर भाषा एक मंदिर है, जिसमें उन लोगों की आत्मा प्रतिष्ठित होती है जो उसे बोलते हैं।' सोशल मीडिया पर दिन- रात विचरने वाली आज की पीढ़ी की भाषा में भी अधीरता, झूठापन, हिंसा, अश्लीलता और भोगवाद झलकता है। दरअसल, हमारी पीढ़ी सोशल मीडिया से बेहद आक्रांत है। इसलिए उसके लिखने और बोलने में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। हिन्दी और स्थानीय भाषाओं के शब्दों की उपलब्धता के बावजूद अंग्रेजी भाषा के प्रयुक्त शब्दों पर सोशल मीडिया का सीधा असर दिखाई देता है। इससे हिन्दी भाषा दूषित ही नहीं संकीर्ण भी हुई है।
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भाषाओं पर ख़तरा!

इस समय पूरी दुनिया पूंजीवाद के प्रभाव में दक्षिणपंथी विचार और व्यवस्था से संक्रमित है। अमेरिका और यूरोप जैसे पूंजीवादी साम्राज्य, एशिया और अफ्रीका के विकासशील और गरीब देशों पर सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। दुनिया की सैकड़ों भाषाएं मरने की कगार पर हैं। एक भाषा के साथ पूरी संस्कृति मर जाती है। बहुलतावादी एशियाई संस्कृति को नष्ट करने के लिए साम्राज्यवादी देश एक भाषा, अंग्रेजी का आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं। संचार साधनों और सोशल मीडिया के जरिए इस काम को अंजाम दिया जा रहा है। यह एक छद्म युद्ध है। भाषा, इस युद्ध का एक हथियार है। बाजार और भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रकोप के कारण हमारी भाषा विकृत और संकीर्ण हुई है।

अपभाषा के चलते भाषा में आ रही संकीर्णता और संवेदना के ह्रास से मुक्ति के लिए प्राथमिक स्तर पर मूलगामी वैचारिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। साहित्य और कलाओं के प्रचार- प्रसार के ज़रिए सोशल मीडिया के हमले का मुक़ाबला किया जा सकता है। देशी भाषाओं की उन्नति और विकास के लिए सरकारी स्तर पर ठोस प्रयास किए जाने चाहिए। आत्म- अनुशासन के जरिए मोबाइल और अन्य साधनों के प्रयोग को सीमित करके पारिवारिक संबंधों को समय दिया जाना जरूरी है। सामान्य बैठकी और सभाओं के जरिए बहु-आयामी संवाद आयोजित किए जाने चाहिए। विशेषकर, बच्चों को सोशल नेटवर्किंग साइट से बचाने के उपाय पर विचार किया जाना अपरिहार्य है।