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जजों द्वारा नेताओं के महिमामंडन से न्यायपालिका के ध्वंस होने का ख़तरा?

"जब एक न्यायाधीश, सरकार के मुखिया की तारीफ करता है, तो वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बेवजह का संदेह उत्पन्न करता है!"। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह का यह कथन हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय के जजों की वरिष्ठता में तीसरे क्रम पर आने वाले न्यायाधीश अरुण मिश्रा के उस कथन पर बिलकुल सटीक बैठता है, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की न केवल जमकर तारीफ़ की, बल्कि उन्हें "बहुमुखी प्रतिभा के धनी" तथा "वैश्विक नजरिये को स्थानीय स्तर पर निष्पादित करने वाले व्यक्ति" क़रार दिया।

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यह बात अलग है कि दिन-रात मुक़दमों की फ़ाइलों में व्यस्त रहने के बावजूद न्यायाधीश मिश्रा को प्रधानमंत्री मोदी की इस प्रतिभा का आकलन करने का अवसर कब मिला, कोई नहीं जानता, क्योंकि न्यायाधीश से कोई भी प्रश्न पूछा जाना न केवल शिष्टाचार के ख़िलाफ़ माना जाता है, बल्कि न्यायाधीश की अवमानना तक माना जा सकता है। 
दिल्ली हाई कोर्ट के ही एक अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर.एस. सोढ़ी का मानना है कि, "इस प्रकार के कथन से न्यायपालिका के सन्दर्भ में समाज में नकारात्मक सन्देश जाता है, क्योंकि एक न्यायाधीश अक्सर उन मामलों की सुनवाई करता है, जिसमें सरकार एक पक्ष होती है।"

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी.बी. सावंत की राय यह है कि "एक पीठासीन न्यायाधीश द्वारा प्रधानमंत्री की इस प्रकार प्रशंसा करना सर्वथा अनुचित है।" सेवानिवृत्त न्यायाधीश सावंत तो न्यायाधीश अरुण मिश्रा के इस कथन को वर्ष का सबसे बड़ा मज़ाक मानते हैं। 

संवैधानिक मूल्यों के प्रतिकूल है बयान

न्यायाधीश मिश्रा के कथन को जब सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश ही साल का सबसे बड़ा मजाक मानने लगें तो समझ लेना चाहिए कि विषय कितना गंभीर है। विषय की इस गंभीरता को देखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने एक बेहद दुर्लभ प्रस्ताव पास करके न्यायाधीश अरुण मिश्रा के उक्त कथन की आलोचना की तथा कहा कि इस प्रकार की तारीफ़ संवैधानिक मूल्यों के प्रतिकूल है। देश की सर्वोच्च बार एसोसिएशन ने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की मूल संरचना है तथा इस स्वतंत्रता को अक्षरश: और भावना के अनुरूप संरक्षित किया जाना चाहिए।  

ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है कि देश की सर्वोच्च बार एसोसिएशन सुप्रीम कोर्ट के किसी पीठासीन न्यायाधीश के ख़िलाफ़ कोई प्रस्ताव पारित करे।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने कुछ इसी प्रकार के कठोर प्रस्ताव को तब पारित किया था जब सरकार ने 1977 में निर्धारित परंपरा तोड़कर तत्कालीन वरिष्ठतम न्यायाधीश एच.आर. खन्ना को देश का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया था। लेकिन उस समय सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की आलोचना सरकार के ख़िलाफ़ थी, न कि किसी न्यायाधीश के ख़िलाफ़। लेकिन आज की परिस्थितियां ठीक विपरीत हैं। आज देश की सर्वोच्च बार एसोसिएशन को न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के ही किसी पीठासीन न्यायाधीश की आलोचना करनी पड़ रही है।
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यहाँ पर महत्वपूर्ण यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 7 मई, 1997 को पारित 16 बिंदुओं के एक चार्टर प्रस्ताव को स्वीकार किया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश का कैसा आचरण होना चाहिए, इस बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है। इस चार्टर के बिंदु 16 के अनुसार, प्रत्येक न्यायाधीश को हर क्षण इस बात का अहसास होना चाहिए कि वह निरंतर पब्लिक की निगाह में रहता है। उसे ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जो उसके कार्यालय की प्रतिष्ठा के अनुकूल न हो। 

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के एक पदाधिकारी का यह स्पष्ट मानना है कि न्यायाधीश अरुण मिश्रा द्वारा दिया गया उपरोक्त वक्तव्य 1997 के चार्टर की भावना के प्रतिकूल है। 12 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। प्रेस कॉन्फ्रेंस में जिस एक न्यायाधीश के आचरण पर उंगली उठाई गई थी वह न्यायाधीश महोदय कौन थे, शायद उनका नाम लिखने की आवश्यकता नहीं है। 

बनी रहनी चाहिए न्यायपालिका की गरिमा

आज जब विश्व समुदाय की निरंतर निगाहें हमारी उच्च न्यायपालिका पर लगी हैं तो समय की मांग है कि न्यायाधीश अपने आप को कार्यपालिका से दूर रखें तथा अपने विवेकपूर्ण आचरण व प्रबुद्ध न्यायिक आचरण से हमारी न्यायपालिका की गरिमा को बनाकर रखें। इससे न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहेगी, बल्कि हमारे प्रजातंत्र को भी मजबूती मिलेगी, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब न्यायपालिका के सदस्यों का आचरण ही देश की महान न्यायपालिका को ध्वंस कर देगा।

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अनिल कर्णवाल
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