सुप्रीम कोर्ट अब एक ऐसे बेढब दिखने वाले फंतासी पात्र की तरह दिखने लगा है, जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। इसका स्वरूप रहस्यमय तरीके से बदलता रहता है, मासूम चेहरा इसकी ज़हरीली फुफकार को ढँक देता है, और ज़रूरत के हिसाब से आकार बदलता रहता है। अदालत संवैधानिक क़ानूनों पर फ़ैसला नहीं सुनाता। वैधानिकता की जगह वह  प्रशासनिक और राजनीतिक प्रबंधन के मामलों में चहलक़दमी करता है।

संसदीय प्रणाली का मज़ाक़ उड़ाते हुये वह अपने को लोकतंत्र के प्रहरी की तरह पेश करता है। संकट निराकरण की आड़ में एक्सपर्ट कमेटी का दिखावा करता है। वह स्वांग करता है कि मौजूदा संकट महज़ तकनीकी है। वह लोकतांत्रिक विरोध को ख़त्म करने के बहाने खोजता है। लेकिन वह विधिसम्मत अनुशासित विरोध को स्थापित नहीं करता।