कौन नहीं जानता कि उपराष्ट्रपति देश का दूसरा सबसे बड़ा संवैधानिक पद और देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक होता है। याद तो यह दिलाना है कि भारतीय लोकतंत्र की संरचना में राज्यसभा का पदेन सभापति महज एक संवैधानिक व्यवस्था भर नहीं, बल्कि उच्च सदन में गरिमा, संतुलन और निष्पक्षता का प्रतीक भी माना जाता है। राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है। तो सभापति से सीधे राज्यों की, देश की आशाएं, अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं। सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति राज्यसभा के उस महत्वपूर्ण संवैधानिक मंच का संचालक होता है, जहाँ नीति, संवाद और विपक्ष की विवेकपूर्ण भूमिका आकार लेती है।
संविधान के अनुच्छेद 63 से 70 तक इस पद की व्यापक व्याख्या तो की गई है, शायद यह छोड़कर कि उनकी विदाई हो तो गरिमामय और निष्कासन हो तो निष्पक्ष। इस पद पर बैठे माननीय को किसी दल विशेष के प्रवक्ता की तरह आचरण करते देखना जितना इस पद की संवैधानिक मर्यादा का घोर क्षरण था, वैसे ही उनकी अमर्यादित विदाई, संविधान की गरिमा के विपरीत। क्या आगे भी ऐसा ही होगा?
उपराष्ट्रपति धनखड़ और राज्यसभा में उनके व्यवहार को लेकर हुआ टकराव तो उनके प्रति विपक्ष के अभूतपूर्व अविश्वास प्रस्ताव के आने से ही साबित हो जाता है। उनके एकपक्षीय व्यवहार की सीमाएं लांघ देने के कारण कितनी बार कितनी असहजता सामने आई, जिससे इस संवैधानिक पद की निष्पक्षता, गरिमा और कार्यशैली पर कितने गंभीर प्रश्न खड़े कर हुए, वह इतिहास में दर्ज है। धनखड़ विपक्षी सांसदों को संसद में 'विप्रचारक', 'कुपढ़', 'पश्चगामी', 'भारत विरोधी' जैसे विशेषणों से तो संबोधित करते ही रहे, सर्वोच्च न्यायालय को भी नहीं बख्शा, और सरकार के हर कदम की न केवल प्रत्यक्ष, बल्कि ओजस्वी शैली में वकालत करते रहे। कि वे राज्यसभा के सभापति कम, और सत्तापक्ष के वाचाल प्रवक्ता अधिक दिखते रहे। क्या फिर उनसे ज्यादा वाचाल पक्षपाती प्रवक्ता सरकार को चाहिए - यह सवाल नये उपराष्ट्रपति के चुनाव से पहले जनता के मन में है।
और यह केवल एक व्यक्ति विशेष पर केंद्रित सवाल नहीं है — यह उस पूरी प्रणाली पर पुनर्विचार का अवसर है जो यह तय करती है कि इतने अहम पदों पर कौन बैठे, कैसे बैठे और क्यों बैठे। और सत्ताधारी दल को धनखड़ जैसा नबीं एक एसा व्यक्ति उस पद पर चाहिए, जिसे देश की उच्च सभा का नियमित संचालन करना हो, निष्पक्ष रहना ही नहीं दिखना भी हो। जब सरकारें ईमानदार होती हैं, तो पारदर्शिता का साहस भी आ जाता है। जब आप सचमुच राष्ट्रहित में काम करते हैं, तो क्या छुपाना। गलती हो सकती है, पर अपराध नहीं। और छुपाया अपराध जाता है, चूक और गलतियां तो देश की उदार जनता माफ करती है। आज ऑपरेशन सिंदूर को लेकर सवाल उठ रहे हैं। सरकार के भीतर से भी, बाहर से भी और दुनिया से भी। तो वक्त साफगोई से जवाब देने का है। भूल है, तो मानने का समय है।
जब नेहरू के सामने आया था ऐसा ही प्रश्न  ऐसा वक्त तो जवाहर लाल नेहरू को भी देखना पड़ा था। याद करें—जब सन् 1962 में चीन से युद्ध चल रहा था, सीमा पर गोलियां चल रही थीं, और संसद में विपक्ष सीधे नेहरू पर सवालों के गोले दाग रहा था। राममनोहर लोहिया ने तो खुलेआम संसद में कहा था: "यह सरकार अब राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बन चुकी है!"
लेकिन पंडित नेहरू ने न तो उन्हें रोका, न टोका, न निलंबन की धमकी दी—बल्कि उन्हें पूरा समय दिया और हर सवाल का उत्तर खुद संसद में खड़े होकर दिया। विनम्रता के साथ। क्योंकि ये वही नेहरू थे, जिन्होंने संसद की पहली बैठक में कहा था: “एक लोकतांत्रिक संसद को राष्ट्र की विविधता को प्रतिबिंबित करना चाहिए, और उसके पीठासीन अधिकारी को संवाद की गरिमा बनाए रखनी चाहिए, न कि किसी एक पक्ष की प्रधानता।”
उन्होंने अपनी बात की सत्यता सिद्ध की।
पर आप मानते ही नहीं कि देश 1947 में आजाद हुआ था। कोरी झूठ का भ्रमजाल भय के अंधेरे आवरण में होता है। उससे निकलने में डर लगे तो राष्ट्रवाद की चादर ओढ़ लो। पहले तुम भगवान को लाओगे, और फिर खुद ही खुदा बन जाओगे, तो भी हनुमान की तरह कोई संजीवनी पर्वत तो उठा नहीं पाओगे। वीरता और शौर्य सेना की वर्दी में नहीं है, उसके रक्त से सजे तिलक और बलिदान की गाथाओं में है। और सेना राष्ट्र की है। उसकी ईमानदार बेबाकी में देश की जनता का अटूट विश्वास है। वह अपने पीछे किसी को नहीं छिपने देती।
कोई भूला नहीं कि जगदीप धनखड़ पूरे कार्यकाल में विपक्ष को बोलने नहीं दे रहे थे। "आप बैठ जाइए", "ये मत कहिए", "मैं इसे रिकॉर्ड में नहीं लेने दूंगा" जैसे वाक्य अब राज्यसभा की कार्यवाही में आम हो चुके थे।
यह तो गनीमत रही कि अपने कार्यकाल के अंतिम दिन उन्होंने विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर बोलने दिया, लेकिन वह भी तब, जब इस्तीफे की तैयारी कर चुके थे। या हो सकता है कि उपराष्ट्रपति धनखड़ को अपने को निष्पक्ष रखने का आत्मज्ञान शायद अस्पताल से लौटने के बाद हुआ हो। या क्या पता कहीं गांधी को पढ़ लिया हो।
फिर भी खड़गे जी को बोलने देने या जस्टिस वर्मा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने से सरकार में क्यों हड़कंप मचा? सरकार के पास कितनी शक्तियां हैं, कितने हाथ हैं, संकट मोचक हनुमान भी हैं, ये सबको पता हैं। अगले दिन सबकुछ घूम सकता था। हालांकि हनुमान जी आजकल कम नज़र आ रहे हैं।
यह कहना कि धनखड़ जी विपक्षी नेताओं से मिलते थे – क्या शेखावत नहीं मिलते थे? कि वे कुछ लोगों की नियुक्ति कर रहे थे – क्यों नहीं कर सकते थे? कि वे लॉबिंग कर रहे थे, सरकार गिराने की – बहुमत में रहकर इतना भय? फिर भी अगर सरकार का उनपर विश्वास समाप्त हो गया था, तो उसी तरह अविश्वास प्रस्ताव लेकर आते, जैसे विपक्ष ने लाया था। धनखड़ साहब की करतूतों का पर्दाफाश भी होता, संसद और संविधान की गरिमा भी बच जाती।
हर बात में पिछली सरकारों को कोसना देश कब तक सुनेगा। जनता किसी दल को नकारती है, तो मान लेती है कि उसमें कमियां हैं। पर किसी को सत्ता में लाती है, तो जाहिरा तौर पर उम्मीदें बड़ी हो जाती हैं कि पहले वाले से बहतर करेगा। जब नहीं कर पाते, तो नेहरू को कोसते हैं, कुछ कर गये तो मोदी है, तो मुमकिन है।

जब सत्ताधारी दल ने खुद मर्यादाएं तोड़ीं... 

धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने पर तो सत्ताधारी दल के नेताओं ने कहा था कि उपराष्ट्रपति का अपमान हुआ। पर वे नहीं बताते कि खुद उन्होंने पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पर बिना किसी प्रमाण के गंभीर और कानूनी रूप से बेबुनियाद आरोप क्यों लगाए थे और लगाए तो क्या कोई जांच हुई थी?
इस समूची चर्चा में आखिरी दिन का वो दृश्य भी देश ने देखा, जब सत्तारूढ़ दल के नेता जेपी नड्डा ने कहा — "कुछ रिकॉर्ड में नहीं जाएगा, जो मैं कहूंगा वही रिकॉर्ड होगा।"
ये न सिर्फ राज्यसभा के सभापति का अपमान था, बल्कि उच्च सदन की पूरी संस्था की मर्यादा का मखौल था।
धनखड़ का प्रकरण तो भारतीय संसदीय इतिहास में एक काले अध्याय की तरह दर्ज होगा ही उनके इस्तीफा प्रकरण में सत्ता की हनक भरी भूमिका से उच्च संवैधानिक पद की गरिमा भी ध्वस्त हुई।

क्या भाजपा भय मुक्त होगी? 

सच बोलने वालों से भय, कद वालों से भय, द्वितीयो नास्ति का भय - पिछले चुनाव में 400 पार से नीचे गिरने के बाद धनखड़ प्रकरण ने भाजपा के भीतर छुपे भय को उजागर कर दिया है। भाजपा को अब सिर्फ राहुल गांधी से नहीं, उन सबसे डर है, जो उनके विचारों के विपरीत सोचते तक हों। यह भय आत्मघाती है।
सवाल है कि कभी शशि थरूर के संग मुस्कुरा कर राहुल गांधी को चिढ़ाने वाली भाजपा अपनी पार्टी में आये-लाये गये तमाम गैर भाजपाई नेताओं का क्या करेगी। संघ तो पहले से भाजपा के कांग्रेसीकरण का विरोध करता रहा है। पर मोदी सरकार को सत्ता के लिए अजित पवार से लेकर हिमंता बिस्वा और ज्योतिरादित्य सिंधिया तक जाने कितनों पर दिल आता रहा। कई तो मंत्रिमंडल में हैं। पर अब भाजपा शायद दस बार सोचेगी कि इन जैसे किसी को आगे शामिल करे या नहीं।
यह तो बाद की बात है। फिलहाल मंथन नये उपराष्ट्रपति को लेकर है। और फिर वही प्रश्न है। कि राज्यसभा संचालन की प्रक्रिया और लोकतांत्रिक नैतिकता की कसौटी में क्या चुनें।
इतिहास और संविधान क्या कहते हैं? तो संविधान पढ़िये। 1949 में संविधान सभा के वाद-विवाद में डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट कहा था: “हम नहीं चाहते कि उपराष्ट्रपति केवल एक प्रतीकात्मक चेहरा हो। वह राज्यसभा का सभापति है और उसकी निष्पक्षता अनिवार्य है।” आप अंबेडकर को ही नहीं मानते। तो डॉ. लोहिया  को पढ़ लें। जो कहते थे: “लोकतंत्र की रक्षा तब नहीं होती जब सत्ता पक्ष विजयोल्लास में झूमता है, बल्कि जब विपक्ष निर्भय होकर सवाल पूछ सकता है।”

विपक्ष की ज़िम्मेदारी 

संभव है कि 'भाजपा सरकार ऐसा आयोग नहीं बनाए' — लेकिन विपक्ष यदि लोकतंत्र की दुहाई देता है, तो उसे ऐसी संस्थागत मांगों को उठाना भी चाहिए। सत्ता में नहीं तो क्या — विपक्ष में ही सही, इस सोच को आगे बढ़ाना होगा कि संवैधानिक पदों की गरिमा किसी दल के अधीन नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस काल में भी उपराष्ट्रपति आए-गए, लेकिन ऐसा टकराव कभी नहीं हुआ कि विपक्ष वेल में उतर जाए तो सभापति सीधे बहस में पक्ष बन जाए।
इसलिए मुद्दा धनखड़ जैसे किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है। मुद्दा यह है कि कोई उपराष्ट्रपति इतनी सत्ता-निष्ठ हो जाए कि विपक्ष शून्य लगे, या कोई सरकार इतनी असहिष्णु हो जाए कि विरोध मात्र को 'राष्ट्रद्रोह' मान ले — तो लोकतंत्र के सभी खंभों की नींव डगमगाने लगेगी। सरकारें आती-जाती हैं, पर संस्थाएं स्थायी होती हैं। और इन्हीं संस्थाओं की निष्पक्षता, गरिमा और संतुलन से गणराज्य चलता है। समय है — पदों को व्यक्ति पूजा का नहीं, प्रश्न का विषय बनाएं।
भारत को फिर से एक ऐसा उपराष्ट्रपति चाहिए—जो संविधान की कसौटी पर खरा उतरे, न कि सत्ता की खाल में ढल जाए।
भाजपा को यह तय करना चाहिए—वह "पार्टी विद अ डिफरेंस" रहना चाहती है या "पार्टी ऑफ डिटरेंस"?