लोकतंत्र एक राजनैतिक व्यवस्था के अतिरिक्त एक ऐसा विचार भी है जिसमें बहुभाषाई, बहुधार्मिक और बहुक्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद सम्पूर्ण राष्ट्र एक भौगोलिक सीमा के भीतर सह-अस्तित्व में ‘शांतिपूर्वक’ रह सके। किन्तु यह भी सच है कि मानवीय सभ्यता के पिछले 5 हजार साल, इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह शांति; किसी समाज, समुदाय या राष्ट्र जैसी किसी संरचना के अस्तित्व में बने रहने के लिए सबसे ज़्यादा महंगी वस्तु है। लोकतंत्र का सीधा संबंध शांति, न्याय और राष्ट्र के विकास से जुड़ा हुआ है।
विविधता ख़त्म कर देंगे तो लोकतंत्र कैसे बच पाएगा?
- विमर्श
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- 11 Feb, 2024

फाइल फोटोे
सब कुछ ‘एक’ कर देने वाली सरकार क्या विविधता का जश्न नहीं मनाना चाहती? जब तक अलग-अलग विचार और संस्कृतियाँ व मूल्य सम्मान नहीं पाते, उन्हें सँजो करके नहीं रखा जाता तब तक लोकतंत्र किस रूप में रहेगा?
ग्वाटेमाला की मानवाधिकार कार्यकर्ता, नारीवादी और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता रिगोबर्टा मेनचू तुम का मानना है कि "शांति न्याय के बिना मौजूद नहीं हो सकती, न्याय निष्पक्षता के बिना मौजूद नहीं हो सकता, निष्पक्षता विकास के बिना मौजूद नहीं हो सकती, विकास लोकतंत्र के बिना मौजूद नहीं हो सकता, लोकतंत्र संस्कृतियों और लोगों की पहचान और मूल्य के सम्मान के बिना मौजूद नहीं हो सकता।"
भारत में यह शांति, आज के दौर की सबसे कीमती वस्तु बन गई है। देश में अफरातफरी का माहौल बन चुका है। अयोध्या का मंदिर बन जाने के बाद अब वाराणसी का ज्ञानवापी विवाद भारत के सामने है। जबकि अयोध्या के बाद गंभीरता से ‘उपासना स्थल अधिनियम-1991’ को पूरी तरह से लागू कर दिया जाना चाहिए था। यह अधिनियम कहता है कि अयोध्या मामले को छोड़कर भारत के किसी भी पूजास्थल की स्थिति वही रहेगी जो 15 अगस्त 1947 को थी। यह इसलिए किया गया था जिससे भारत को लगातार धर्म के आधार पर तोड़ने और इस देश के लोकतंत्र को कमजोर करने वाली शक्तियों को रोका जा सके, जिससे देश सांप्रदायिकता के जहर से मुक्त हो सके और भविषयोन्मुखी हो सके। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अयोध्या निर्णय में इस अधिनियम की चर्चा भी की थी और इसकी उपयोगिता पर ध्यान देते हुए कहा कि “इस प्रकार उपासना स्थल अधिनियम एक विधायी हस्तक्षेप है जो हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की एक अनिवार्य विशेषता के रूप में गैर-प्रतिगमन को संरक्षित करता है”। इसके बावजूद ज्ञानवापी का सर्वे करवाकर इस मुद्दे को हवा दी गई है। इसे एक और अयोध्या जैसे मुद्दे के रूप में आगे बढ़ाने की योजना दिखाई दे रही है। पूरी योजना है कि भारत में अगले कई दशकों तक अब एक अलग मंदिर के लिए झगड़ा चलता रहे। एक देश जहां असंख्य मंदिर और मस्जिदें हैं वहाँ कब तक इस क़िस्म के काम होते रहेंगे। कभी तो इसपर रोक लगानी पड़ेगी। अयोध्या के विवाद के सुलझने के बाद सही मौक़ा था कि इस क़िस्म के झगड़ों को हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए। लेकिन दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट यह करने से चूक गया। लगातार मस्जिदें गिराया जाना, मदरसों को टारगेट करना, मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार करना यह सब दो धर्मों के बीच एक खाई के निर्माण की तैयारी है। क्या इस तरह के झगड़ों से उत्पन्न सामुदायिक अंतर द्वारा सत्ता का सुख सदा के लिए प्राप्त कर पाएंगे? धर्म के आधार पर सदा सत्ता में बने रहने की चेष्टा ‘लोकतंत्र की हत्या’ ही है।