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विविधता ख़त्म कर देंगे तो लोकतंत्र कैसे बच पाएगा? 

लोकतंत्र एक राजनैतिक व्यवस्था के अतिरिक्त एक ऐसा विचार भी है जिसमें बहुभाषाई, बहुधार्मिक और बहुक्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद सम्पूर्ण राष्ट्र एक भौगोलिक सीमा के भीतर सह-अस्तित्व में ‘शांतिपूर्वक’ रह सके। किन्तु यह भी सच है कि मानवीय सभ्यता के पिछले 5 हजार साल, इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह शांति; किसी समाज, समुदाय या राष्ट्र जैसी किसी संरचना के अस्तित्व में बने रहने के लिए सबसे ज़्यादा महंगी वस्तु है। लोकतंत्र का सीधा संबंध शांति, न्याय और राष्ट्र के विकास से जुड़ा हुआ है।

ग्वाटेमाला की मानवाधिकार कार्यकर्ता, नारीवादी और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता रिगोबर्टा मेनचू तुम का मानना है कि "शांति न्याय के बिना मौजूद नहीं हो सकती, न्याय निष्पक्षता के बिना मौजूद नहीं हो सकता, निष्पक्षता विकास के बिना मौजूद नहीं हो सकती, विकास लोकतंत्र के बिना मौजूद नहीं हो सकता, लोकतंत्र संस्कृतियों और लोगों की पहचान और मूल्य के सम्मान के बिना मौजूद नहीं हो सकता।"

भारत में यह शांति, आज के दौर की सबसे कीमती वस्तु बन गई है। देश में अफरातफरी का माहौल बन चुका है। अयोध्या का मंदिर बन जाने के बाद अब वाराणसी का ज्ञानवापी विवाद भारत के सामने है। जबकि अयोध्या के बाद गंभीरता से ‘उपासना स्थल अधिनियम-1991’ को पूरी तरह से लागू कर दिया जाना चाहिए था। यह अधिनियम कहता है कि अयोध्या मामले को छोड़कर भारत के किसी भी पूजास्थल की स्थिति वही रहेगी जो 15 अगस्त 1947 को थी। यह इसलिए किया गया था जिससे भारत को लगातार धर्म के आधार पर तोड़ने और इस देश के लोकतंत्र को कमजोर करने वाली शक्तियों को रोका जा सके, जिससे देश सांप्रदायिकता के जहर से मुक्त हो सके और भविषयोन्मुखी हो सके। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अयोध्या निर्णय में इस अधिनियम की चर्चा भी की थी और इसकी उपयोगिता पर ध्यान देते हुए कहा कि “इस प्रकार उपासना स्थल अधिनियम एक विधायी हस्तक्षेप है जो हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की एक अनिवार्य विशेषता के रूप में गैर-प्रतिगमन को संरक्षित करता है”। इसके बावजूद ज्ञानवापी का सर्वे करवाकर इस मुद्दे को हवा दी गई है। इसे एक और अयोध्या जैसे मुद्दे के रूप में आगे बढ़ाने की योजना दिखाई दे रही है। पूरी योजना है कि भारत में अगले कई दशकों तक अब एक अलग मंदिर के लिए झगड़ा चलता रहे। एक देश जहां असंख्य मंदिर और मस्जिदें हैं वहाँ कब तक इस क़िस्म के काम होते रहेंगे। कभी तो इसपर रोक लगानी पड़ेगी। अयोध्या के विवाद के सुलझने के बाद सही मौक़ा था कि इस क़िस्म के झगड़ों को हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए। लेकिन दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट यह करने से चूक गया। लगातार मस्जिदें गिराया जाना, मदरसों को टारगेट करना, मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार करना यह सब दो धर्मों के बीच एक खाई के निर्माण की तैयारी है। क्या इस तरह के झगड़ों से उत्पन्न सामुदायिक अंतर द्वारा सत्ता का सुख सदा के लिए प्राप्त कर पाएंगे? धर्म के आधार पर सदा सत्ता में बने रहने की चेष्टा ‘लोकतंत्र की हत्या’ ही है।  

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पंडित नेहरू के निधन के बाद बचे हुए 60 के दशक का भारत अस्थायित्व के दौर से गुजर रहा था। नगा, मिज़ो की अलगाववादी समस्याएं, लगातार पड़ रहे अकाल के बाद खाद्य सुरक्षा की समस्या, दक्षिण का हिन्दी-विरोधी आंदोलन और पश्चिम बंगाल व आंध्रपदेश के क्षेत्रों में नक्सली व माओवादी समस्याएं भारत की एकता को चुनौती देने में लगी हुई थीं। 

ब्रिटिश पत्रकार डॉन टेलर को 1969 के दौर की समस्याओं को देखकर तो लगा कि “हिंदुस्तान एक मुल्क के रूप में रह भी पाएगा या बिखर जाएगा?”। लेकिन भारत संभलता रहा क्योंकि नेहरू द्वारा बनाई गई संस्थाओं की लोकतंत्र व भारत के प्रति निष्ठा लगातार बनी रही। साथ ही भारत के एक बड़े हिस्से ने भारत को कभी अलग-अलग राज्यों के समूह के रूप में न देखकर एक राष्ट्र के रूप में ही समझा। लेकिन आज का भारत वह भारत है जिसमें चंडीगढ़ चुनाव में चुनाव अधिकारी द्वारा खुलेआम धांधली करके भाजपा को विजयी घोषित करने के तरीके ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय को ‘लोकतंत्र की हत्या’ कहने पर मजबूर कर दिया।

यदि देश का सर्वोच्च न्यायायल ही कह पड़े कि लोकतंत्र की हत्या की जा रही है तब आगे क्या किया जाना चाहिए? जब कोई देश निष्पक्ष चुनाव न करवा सके और सर्वोच्च न्यायालय भी निराश हो जाए तब क्या होना चाहिए? यदि विश्व के लोकतंत्र का मीटर नापने वाली संस्था वी-डेम रिपोर्ट-2023 यह कहने पर मजबूर हो जाए कि भारत 'पिछले 10 वर्षों का सबसे खराब निरंकुश देश’ है, यह सुनकर बहुत शर्म से सर झुक जाता है क्योंकि इसमें गर्व हो भी नहीं सकता। एक विशाल लोकतंत्र को निरंकुश कहा जाए और इसके बाद उसे सबसे खराब निरंकुश देश कहा जाए, यह बेहद अपमानजनक है। लेकिन यह रिपोर्ट देशों की कुछ खास विशेषताओं के आधार पर ही उन्हें निरंकुश कहती है। इनमें मीडिया सेंसरशिप में वृद्धि और नागरिक समाज का दमन, शैक्षणिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक स्वतंत्रता और चर्चा की स्वतंत्रता में कमी शामिल है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मीडिया सेंसरशिप और नागरिक समाज का दमन "निरंकुश देशों में शासक सबसे अधिक बार और सबसे बड़ी डिग्री तक ऐसा करते हैं"।
अब खुद जांचकर देखिए कि भारत में मीडिया सेंसरशिप है या नहीं? जाँचने का तरीका बिल्कुल आसान है, खोजकर देखिए कि पिछले 10 सालों में कब किस टीवी न्यूज़ चैनल ने नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोई कार्यक्रम या डिबेट की हो?

पिछले दस सालों में कितने बार पीएम मोदी सरकार के प्रमुख की हैसियत से प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों के सवालों के जवाब देने सामने आए हों? सबसे ज्यादा भारतीय नागरिकों तक पकड़ रखने वाले किस हिन्दी अखबार ने कब भाजपा सरकार के खिलाफ किसी न्यूज को छापा हो, कोई रिपोर्टिंग की हो या कोई प्रश्न उठाया हो? जो मीडिया, सरकार के सामने खड़ा नहीं हो पा रहा है वह स्वतंत्र कैसे है? इसलिए जब प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (161वीं, 2023) में भारत की स्थिति निम्न से निम्न होती जा रही हो तो तकलीफ क्यों होनी चाहिए? PMLA, FCRA और UAPA का इस्तेमाल सिविल सोसाइटी और सामाजिक कार्यकर्ताओं के दमन के लिए किया जा रहा है। FCRA कानून में 2010 और 2020 में किए गए संशोधनों से 18 हजार से अधिक गैर सरकारी संगठनों को नुकसान पहुँचा है। FCRA के नए प्रावधानों ने बड़े NGOs के द्वारा छोटे NGOs को दिए जाने वाली सहायता निधि पर भी रोक लगा दी है। ऑक्सफेम और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के साथ किया गया व्यवहार पूरी दुनिया में आलोचना का केंद्र रहा है। साथ ही UAPA के दुरुपयोग की कहानी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के माध्यम से समझी जा सकती है। उमर खालिद, कश्मीरी मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज़, पत्रकार इरफान मेहराज, पत्रकार फहद शाह और भीमा कोरेगांव मामले से जुड़े कार्यकर्ता सभी इस कानून से प्रभावित हैं।

आजादी के बाद पॉलिटिकल साइंटिस्ट रॉबर्ट डल को लगता था कि “हिंदुस्तान की स्थिति को देखते हुए यह कहना बिल्कुल असंभव लगता है कि यह देश लोकतान्त्रिक संस्थाओं को आगे बढ़ा पाएगा।” लेकिन भारत ने सफलता पूर्वक लोकतंत्र को चलाया, विकास किया और दुनिया भर में ख्याति प्राप्त की। लेकिन जब केंद्र की सत्ता में बैठी सरकार संस्थाओं के दुरुपयोग के माध्यम से लोकतंत्र को कमजोर कर रही है तब रॉबर्ट डल का डर सामने आता हुआ प्रतीत हो रहा है। कानूनी एजेंसियों की एक आँख फोड़ दी गई है, अब उन्हें सिर्फ विपक्ष के अपराध, विपक्ष के भ्रष्टाचार ही दिखाई दे रहे हैं। इसकी वजह से विपक्ष ही टारगेट है। टारगेट ही इसलिए किया जा रहा है ताकि विपक्ष या तो नष्ट हो जाए या फिर इतना कमजोर हो जाए कि बस विपक्ष नाम रह जाए लेकिन किसी काम का न रह जाए।

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भाजपा शासित राज्य मध्यप्रदेश में ‘हरदा पटाखा फैक्ट्री’ में आग लग जाए, बड़ी संख्या में लोग घायल हों और उनकी मौत हो जाए, तब भी किसी पत्रकार को इसकी ‘खबर’ लेने के लिए परिसर के आसपास तक घुसने नहीं दिया गया। बुलडोजर चलाकर मलबा हटा दिया गया, पता ही नहीं चला कितने लोग मरे? सरकार पर भरोसा किया जाए, लोकतंत्र इस विचार के आधार वाला तंत्र नहीं होता! लोकतंत्र है- जनता और सिविल सोसाइटी द्वारा सरकार पर शक, सरकार को उसकी कमियाँ बताना, कमियों को जनता तक पहुंचाना जिससे समय आने पर लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल करके गैर-जिम्मेदार सरकार को बदल सकें। लेकिन पत्रकारों को यह तक पता नहीं करने दिया गया कि इस फैक्ट्री में लगी आग लगने के कारणों और परिणामों व इसमें सन्निहित भ्रष्टाचार का पता चल सके। यह सब लोकतंत्र की हत्या के उदाहरण हैं। 

लोकतंत्र की हत्या तब भी होती है जब लोकतंत्र के मंदिर में खड़े होकर भारत का प्रधानमंत्री भारत के पहले प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी, देश को आजादी दिलाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू को जानबूझकर गलत उद्धृत करते हैं और उनकी छवि को उनकी मौत के 60 सालों बाद खराब करने की कोशिश करते हैं। नेहरू ने अपने लिए कभी वोट नहीं माँगा, नेहरू ने कभी धर्म के लिए वोट नहीं मांगा, नेहरू ने कभी कब्रिस्तान और ‘कपड़ों से पहचानने’ की बात नहीं कही, नेहरू ने कभी सेना के शौर्य के नाम पर वोट नहीं मांगा। लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज के प्रधानमंत्री हर ऐसी बात पर वोट मांग रहे हैं, सिर्फ वोट पाने के लिए हर किस्म की गैर जरूरी रणनीति अपनाई जा रही है। आजकल जब भी सत्ताधारी पक्ष से कोई सांसद, संसद के किसी पटल पर विपक्ष, मुख्यतया काँग्रेस का जवाब देने उठता है तो उसे नेहरू की कमी निकालने का काम पहले याद आता है। वो ऐसी कमी निकालता है जो इतिहास में दर्ज ही नहीं है, बस ‘अफवाह की किताबों’ से उद्धरण सहित ले ली गई हैं। क्या संसद से गलत सूचना का प्रसारण संसद की अवमानना नहीं? क्या यह संसद की हत्या नहीं? यह सबकुछ लोकतंत्र की हत्या के समान है?

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प्रख्यात लेखक सुनील खिलनानी लिखते हैं कि “भारतीय इतिहास में 1947 से लेकर अब तक का समय लोकतंत्र नाम के एक राजनैतिक विचार को साहसपूर्वक आगे बढ़ाते रहने का समय है।” लगातार कोशिश करके लोकतंत्र के विचार को सँजो कर रखा गया है लेकिन आज भारत का लोकतंत्र अपने सबसे खराब दौर से गुजर रहा है जहां प्रधानमंत्री से लेकर सत्ता के किसी कार्यकर्ता पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता, जहां हर एक संस्था सरकार का पोषण करती हुई दिख रही है, जहां हर माध्यम सरकार की ग़ुलामी करता हुआ प्रतीत हो रहा है। संस्थाओं को संविधान ने जो काम सौंपा है वो उसे करने में असमर्थ हैं। 

विरोध करने वालों के लिए या तो जेल है या फिर तारीख दर तारीख कोर्ट का खेल है। 

बलात्कार के सजायाफ्ता के लिए तो पैरोल है, बेल है, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए सिर्फ जेल है। 

लोकतंत्र के लिहाज से यह सबकुछ बेमेल है। भारत में लोकतंत्र के लिए किया गया प्रयोग, सफल रहा है या यह अब फेल है? (रामलखन ‘क़हर’)

यह बात जनता को तय करनी है। रिगोबर्टा मेनचू के शब्दों को फिर से समझें तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि विकास का ढिंढोरा बिना सशक्त लोकतंत्र के (जनता) किसी काम का नहीं। जब तक अलग-अलग विचार और संस्कृतियाँ व मूल्य सम्मान नहीं पाते, उन्हें सँजो करके नहीं रखा जाता तब तक लोकतंत्र ‘शून्य’ है। सब कुछ ‘एक’ कर देने वाली सरकार विविधता का जश्न नहीं मनाना चाहती, वह तो विविधता को समाप्त करके सबको किसी व्यक्तिगत और पसंदीदा कानून के नीचे लाकर खड़ा कर देना चाहती है। इससे सिर्फ और सिर्फ लोकतंत्र की हत्या ही सुनिश्चित होगी, हासिल कुछ नहीं होगा। 

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वंदिता मिश्रा
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