न्याय सिर्फ़ एक नजरिये की अवधारणा नहीं है इसमें संपूर्णता आवश्यक है। जब ऐसा नहीं होता तो सवाल उठाना जरूरी हो जाता है। जस्टिस यशवंत वर्मा के महाभियोग मामले में ऐसा ही एक सवाल भारत के पूर्व कानून मंत्री और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने उठाया है। एक इंटरव्यू के दौरान पूर्व क़ानून मंत्री ने कहा कि जस्टिस यशवंत वर्मा के महाभियोग मामले में विपक्ष को केंद्र का साथ तब तक नहीं देना चाहिए जबतक जस्टिस शेखर यादव का मामला इस दिशा में आगे नहीं बढ़ाया जाता।
जस्टिस शेखर यादव पर बेहद आपत्तिजनक साम्प्रदायिक टिप्पणी का आरोप है और उनकी इस टिप्पणी पर अभी तक संसद द्वारा कोई कार्यवाही नहीं को गई है। सिब्बल ने कहा कि जब तक सरकार द्वारा जस्टिस शेखर यादव पर महाभियोग की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया जाता तब तक जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले को आगे नहीं बढ़ने देना चाहिए।
मुझे भी लगता है कि कपिल सिब्बल बहुत महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं और इसी बात के ज़रिए वो एक सवाल भी उठा रहे हैं। एक जज, जस्टिस वर्मा, के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार का आरोप है तो एक जज, जस्टिस यादव, के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक आधार पर ‘देश को बाँटने’ का आरोप है। दोनों ही आरोप महाभियोग के दायरे में आते हैं तो फिर कार्यवाही सिर्फ़ जस्टिस वर्मा पर ही क्यों, जस्टिस यादव पर क्यों नहीं? जबकि जस्टिस शेखर यादव का मामला जस्टिस वर्मा से कहीं ज्यादा खतरनाक़ और पुराना है।
- सवाल यह है कि जस्टिस यादव पर महाभियोग की कार्यवाही क्यों शुरू नहीं की गई? कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्याय का धरातल न्यायाधीशों के लिए भी बराबरी से उपलब्ध नहीं है। कैसे उम्मीद की जाये कि यह देश के आम नागरिकों के लिए ठीक से काम कर रहा होगा।
दोनों जजों के मामले देखे जायें तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार एक जज के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने के मूड में है और दूसरे जज को बचाने के मूड में! ऐसा क्यों हो रहा है?
भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया के लिए ‘महाभियोग’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है लेकिन सुविधा के लिए इस शब्द का इस्तेमाल बोलचाल की भाषा में कर लिया जाता है। हाई कोर्ट के जज को उसके पद से हटाने के लिए संविधान में अनुच्छेद-218 के तहत प्रावधान किया गया है। इसके लिए संसद ने जजेज इंक्वायरी एक्ट-1968 पारित किया जिससे जजों को हटाने की पूरी प्रक्रिया निर्धारित की जा सके।
इस प्रक्रिया के तहत, लोकसभा के कम से कम 100 सांसद या राज्यसभा के कम से कम 50 सांसद, किसी जज को हटाने के प्रस्ताव को स्पीकर या चेयरमैन को सौंपते हैं। अगर प्रस्ताव स्वीकार हो जाता है तो तीन सदस्यीय समिति आरोपों की जांच करती है। अगर समिति जज को दोषी मानती है तो संबंधित सदन इस प्रस्ताव पर मतदान करता है। और अगर ‘विशेष बहुमत’ से सदन इस प्रस्ताव को पारित कर देता है तो प्रस्ताव दूसरे सदन में जाता है। यदि दूसरा सदन भी इस प्रस्ताव को ‘विशेष बहुमत’ से पारित कर देता है तब इसे अंतिम प्रक्रिया के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है जिसके हस्ताक्षर के बाद जज को उसके पद से हटा दिया(Removal) जाता है।
यह प्रक्रिया जानबूझकर बेहद जटिल बनाई गई जिससे न्यायपालिका को किसी भी किस्म के संसदीय और सरकारी दबाव से मुक्त रखा जा सके। यह इतनी जटिल है कि अब तक सिर्फ़ चार बार ही ऐसी प्रक्रिया शुरू की जा सकी है लेकिन अभी तक किसी भी जज को उसके पद से हटाया नहीं जा सका है। ऐसी प्रक्रिया का मूल उद्देश्य न्यायिक स्वतंत्रता ही है। लेकिन जिस तरह सरकार दांवपेंच से पेश आ रही है, और जिस तरह दो जजों के मामलों में दो अलग अलग मानक अपना रही है उससे लगता है कि न्याय के नाम की आड़ में दो किस्म की बातों को हवा दी जा रही है। पहली यह कि अगर कोई जज सांप्रदायिक टिप्पणी करे और उस टिप्पणी में अल्पसंख्यकों को नकारात्मक रूप से टारगेट किया जाय तो उसका बचाव किया जाएगा, सवाल यह है कि ऐसा क्यों किया जाना चाहिए?
दूसरी यह कि उच्च न्यायालयों के जज भ्रष्ट हो सकते हैं इसलिए उनके ऊपर दबाव बनाने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) जैसी संस्थाओं पर एक नई बहस को फिर से हवा दी जाये और देश में इसके पक्ष में और विपक्ष में जनमत तैयार किया जाय। जिससे जजों को ‘कंट्रोल’ करने की एक सरकारी मशीन तैयार हो जाय। अब यहाँ पर दूसरा संबंधित सवाल खड़ा होता है कि सरकार न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में क्यों लेना चाहती है?
न्यायपालिका पर कंट्रोल मतलब ही है ऐसे मन मर्जी वाले कानून बनाना और उन्हें पारित करके देश भर में लागू करवाना जो अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों आदि वंचित समूहों के संविधान प्रदत्त अधिकारों और सुरक्षाओं पर सेंध लगा दें।
सवाल यह है कि क्या न्यायपालिका के साथ किसी किस्म की साजिश रची जा रही है? जरा सोचकर देखिए, दोनों जजों के महाभियोग के मामले राज्यसभा में गए। लेकिन चेयरमैन, जगदीप धनखड़, ने कार्यवाही सिर्फ़ जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में ही शुरू की, क्यों? जब जस्टिस यशवंत वर्मा के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक कमेटी जांच कर सकती है तो जस्टिस यादव के मामले में क्यों नहीं?
यदि चेयरमैन, जगदीप धनखड़, की बीती कुछ टिप्पणियों पर ध्यान दिया जाय तो समझ आयेगा कि न्यायपालिका के साथ यह दोहरा व्यवहार क्यों हो रहा है। एक लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति, धनखड़ ने इस बात पर आपत्ति जाहिर की, कि आख़िर सीबीआई के निदेशक को चुनने की प्रक्रिया में सीजेआई क्यों शामिल होते हैं? उन्होंने कहा कि-
"मैं स्तब्ध हूँ कि कार्यपालिका का एक पदाधिकारी — जैसे कि CBI निदेशक — की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश की भागीदारी होती है। कार्यपालिका की नियुक्ति किसी और के द्वारा क्यों की जानी चाहिए? क्या यह संविधान के तहत संभव है? क्या ऐसा दुनिया के किसी और देश में होता है?"
जबकि उपराष्ट्रपति को पता है कि सीजेआई को शामिल किए जाने का काम संसद द्वारा पारित कानून-लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013- के तहत किया जा रहा है इसके बावजूद उन्हें चयन प्रक्रिया में न्यायपालिका के शामिल होने में तकलीफ़ है, क्यों? क्या उपराष्ट्रपति को याद नहीं कि यह कानून UPA सरकार द्वारा तब लाया गया था जब देश भर में भ्रष्टाचार विरोधी ‘अन्ना आंदोलन’ चलाकर विपक्ष ने इसकी माँग की थी? इस माँग में बीजेपी भी शामिल थी। अब आज उन्हें यह तकलीफ़देह क्यों लग रहा है? क्या धनखड़ यह चाहते हैं कि सरकार अपनी मर्जी का निदेशक चुन ले और जब मन करे तब उसका इस्तेमाल विपक्ष के ख़िलाफ़ करके अपने राजनैतिक उद्देश्यों को पूरा सके?
उपराष्ट्रपति धनखड़ को सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच से भी समस्या है हालांकि यह समस्या बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। जब आंतरिक जांच जस्टिस वर्मा के ख़िलाफ़ हुई तब उन्हें दिक्कत नहीं हुई लेकिन जब बात विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में सांप्रदायिक बयान देने वाले जस्टिव यादव की आई तो उपराष्ट्रपति को दिक्कत होने लगी, क्यों?
उपराष्ट्रपति को इससे भी दिक्कत है कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिल पर प्रतिक्रिया देने के लिए 3 महीने की डेडलाइन क्यों दे रहा है? सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट जब देश के संघीय ढांचे को बचाने के लिए, जोकि संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, आगे आता है और राज्य विधायिकाओं का ‘विधायी अपहरण’ करने वाले राज्यपालों के ख़िलाफ़ सख़्त होता है तो उपराष्ट्रपति को दिक्कत होती है? वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?
कभी उपराष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट को ‘सुपर पार्लियामेंट’ बोलकर दबाव डालते हैं तो कभी अनुच्छेद-142 के अधिकारों की तुलना नाभिकीय हथियारों से करने में लग जाते हैं तो इनकी देखादेखी अन्य बीजेपी के सांसद भारत के मुख्य न्यायाधीश पर यह आरोप लगाते हैं कि सीजेआई देश में दंगा करवाना चाहते हैं।
सवाल यह है कि न्यायपालिका को कमजोर क्यों किया जा रहा है? सीबीआई और मुख्य निर्वाचन आयोग जैसे पदों पर नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप का विरोध क्यों किया जाता है? सरकार को संविधान के मूल ढांचे के साथ चलने में क्या दिक्कत है?
उन्हें क्यों परेशानी होती है अगर सुप्रीम कोर्ट, नागरिकों के मूल अधिकारों के लिए सरकार के सामने डटकर खड़ा हो जाता है? क्या परेशानी है अगर राज्यों पर केंद्र की सत्ता को थोपे जाने का न्यायिक प्रतिरोध किया जाता है? इन सवालों के उत्तर उपराष्ट्रपति और इस सरकार को देना चाहिए। जहाँ तक बात जस्टिस वर्मा के माध्यम से न्यायपालिका पर डाले जाने वाले दबाव की है जिसके बहाने, 90 के दशक में आए सेकेंड जजेज केस के प्रभावों को कम करके नियुक्ति प्रक्रिया पर केंद्र सरकार का कब्जा स्थापित करने की है तो यह हाल फ़िलहाल संभव नहीं है। कपिल सिब्बल के शब्दों में कहें तो “यह संस्था (न्यायपालिका) इतनी मजबूत है कि वह सरकार के ऐसे कदमों का डटकर सामना कर सकती है”।