महाराष्ट्र सरकार ‘अर्बन माओवादियों’ से निबटने के लिए एक क़ानून ले आई है। जो राजनीतिक पार्टी और सरकार हिंदी पर इतना ज़ोर देती है और हर चीज़ के हिंदीकरण या राष्ट्रीयकरण  के लिए कटिबद्ध है, वह अर्बन माओवादी में अर्बन शब्द के लिए कोई हिंदी समरूप नहीं खोज पा रही है।शायद इसकी वजह या होगी कि अर्बन की जगह शहरी या नगरीय में उतना ज़ोर नहीं मालूम पड़ता। अर्बन माओवादी कहने से जाना पड़ता है कि किसी ख़तरनाक प्राणी की बात की जा रही है। ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से भारतीय जनता पार्टी अपने मतदाताओं को  डराने या भरमाने का काम करती है।
अर्बन माओवादी के साथ साथ अर्बन नक्सल शब्द भी इस्तेमाल किया गया है। लेकिन नक्सल कौन है? या माओवादी कौन है? उसे कभी परिभाषित नहीं किया जाता।
कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गाँधी पर भी इल्ज़ाम लगाया था कि वे अर्बन नक्सल की ज़ुबान बोल रहे हैं और कहा था कि जो भारतीय राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते है, वे संविधान को नहीं समझ सकते। जब  भारत के मुख्य विपक्षी दल के नेता को भी अर्बन नक्सल या माओवादी  कहा जा सकता है तो फिर किसी को भी अर्बन नक्सल या माओवादी ठहराया जा सकता है।यह श्रेणी इतनी अस्पष्ट है कि किसी को भी इस दायरे में लाकर उसे गिरफ़्तार या दंडित किया जा सकता है।
महाराष्ट्र सरकार के मुताबिक़ माओवाद इतना ख़तरनाक है कि अभी तक जो क़ानून मौजूद हैं, उनके सहारे इससे निबटा नहीं जा सकता।’यू ए पी ए’ या ‘मकोका’ जैसे जैसे ख़तरनाक क़ानून भी इसके आगे बेअसर हैं। लेकिन इस क़ानून का मसविदा पढ़ने से मालूम हो जाता है कि यह  कृत्य को ही नहीं, इरादे को भी दंडित करता है। और माओवादी इरादे को पहचानने के लिए पुलिस का इरादा काफ़ी है। पुलिस का कह भर देना काफी है कि  उसे फ़लाँ आदमी में माओवादी इरादे की बू आ रही है। 
इस क़ानून के मुताबिक़ ग़ैरक़ानूनी गतिविधि के दायरे में वास्तविक कृत्य या कोई दीखनेवाला संकेत भी आता है। कोई कार्टून, कोई  चित्र, कोई कविता या कहानी; नारे और भाषण को तो छोड़ ही दीजिए, ग़ैरक़ानूनी ठहराया जा सकता है।पुलिस का इतना कहना पर्याप्त होगा कि ये  कार्टून या कहानी या गाना शांति-व्यवस्था भंग कर रहे है, या यह राज्य के विरुद्ध घृणा फैला सकते है या राजकीय संस्थानों की हुक्मउदूली के लिए लोगों को उकसा रहे हैं या लोगों के भीतर भय का संचार रहे हैं। यह दायरा इतना बड़ा है कि किसी भी भाषण, लेख, कविता या फ़िल्म को अर्बन नक्सल गतिविधि ठहरा दिया जा सकता है। मसलन, श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘अंकुर’ या सत्यजीत राय की फ़िल्म ‘हीरक राजार देशे’ आसानी से माओवादी कही जा सकती हैं। जो चीज़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पसंद नहीं है, वह सब कुछ अर्बन नक्सल या माओवादी कही जा सकती है।
यह कोई काल्पनिक बात नहीं। कबीर कला मंच के कलाकार कई सालों से जेल में बंद हैं। उनके गाने ‘अर्बन नक्सल’ कृत्य हैं। हफ़्ता भी नहीं गुजरा उत्तराखंड की सरकार ने गढ़वाली गायक पवन सेमवाल पर मुक़दमा दर्ज किया है। उनका अपराध यह है कि उन्होंने एक गाना बनाया है जिसमें वे मुख्यमंत्री या सरकार से पूछते हैं कि “और कितना वे इन पहाड़ों को खाएँगे? तुमने उन्हें जुए, शराब, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के अड्डों में बदल दिया है।” उसके पहले गायिका नेहा  सिंह राठौर पर राजद्रोह की धाराएँ लगाई जा चुकी हैं। तंज़िया वीडियो बनाने वाली डॉक्टर मेडूसा पर भी मुक़दमा दर्ज किया गया है। 

विधिवेत्ताओं ने इस क़ानून को पढ़कर ठीक ही लिखा है कि यह जनतंत्र के ताबूत में आख़िरी कीलों में एक है। यह अभिव्यक्ति को ही मुजरिमाना हरकत बतलाता है।

इसका इरादा यह है कि समाज के भीतर कोई भी आलोचनात्मक स्वर उठाने की हिम्मत न करे। एक तरह से यह सिविल सोसाइटी को ही ख़त्म कर देने की साज़िश है।  बार-बार कि मेधा पाटकर जैसे लोगों को राज्य या राष्ट्र विरोधी कहकर उनपर हमला किया गया है। बड़े बाँधों का विरोध विकास के विरोध में और फिर राज्य के विरोध में बदल जाता है। तो मेधा पाटकर या वंदना शिवा पर भी अर्बन नक्सल  का बिल्ला चिपकाया जा सकता है। 
कौन सी चीज़ राज्य विरोधी है? क्या प्रधानमंत्री की आलोचना की जा सकती है या नहीं? हम मानते थे कि भारत इसलिए बेहतर है कि यहाँ हम सत्ता की आलोचना कर सकते हैं। इसलिए कि यहाँ ‘सिविल सोसाइटी’ सक्रिय है और उसकी आवाज़ सुनी जाती है। लेकिन पिछले 11 वर्षों में हमने इस सिविल सोसाइटी पर बार बार हमला होते देखा है। प्रधानमंत्री ने अपने पहले साल  में ही भारत के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को सावधान किया था कि उन्हें ‘फाइव स्टार एक्टिविस्टों’ से प्रभावित होकर फ़ैसले नहीं देने चाहिए। उसके बाद हमने 2021 में  राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल को यह कहते सुना कि अब चौथी पीढ़ी का युद्ध होगा जिसका मोर्चा देश के भीतर है। वह मोर्चा सिविल सोसाइटी का है। इसे देश के शत्रु इस्तेमाल कर सकते हैं, बहला-फुसला सकते हैं, इन्हें बरगलाया जा सकता है, ख़रीदा जा सकता है। यह देश को भीतर से तोड़ने का काम कर सकते हैं।
अगर आप इस संदर्भ को ध्यान में रखें तो महाराष्ट्र सरकार के इस क़ानून का मक़सद साफ़ हो जाता है। जनतंत्र सिर्फ़ चुनाव और राजनीतिक पार्टियों के सहारे ज़िंदा नहीं नहीं  रहता। असली जनतंत्र वह है जहां जनता को यक़ीन है कि एक अकेला आदमी भी सत्ता की आलोचना कर सकता है। नागरिक अधिकारों के लिए काम  करनेवाले संगठन जनतंत्र को जीवित रखते हैं। ज़मीन की बेदख़ली  या पानी के संकट के कारण कोका कोला प्लांट के ख़िलाफ़ आंदोलन राजनीतिक दल नहीं, लोगों के छोटे मोटे संगठन करते हैं। मुसलमानों के ऊपर हिंसा के ख़िलाफ़ भी नागरिक संगठन ही काम कर रहे हैं।भाजपा की सरकारें इन सबको निष्क्रिय कर देना चाहती हैं। 
निराशा की बात यह है कि यह अध्यादेश विधान सभा में आराम से पारित हो गया। कॉंग्रेस पार्टी या उसके सहयोगी दलों ने इसका मुखर विरोध नहीं किया। मात्र सी पी एम के एक विधायक ने इसका विरोध किया। विधान परिषद में ज़रूर विपक्ष ने गलती सुधारने की कोशिश की। लेकिन विधान सभा में उनकी निष्क्रियता से यही मालूम पड़ता है कि अभी भी वे इस गफ़लत में हैं कि चुनाव में भाग लेकर कर वे जनतंत्र को बचा लेंगे। भाजपा सरकार भी जनतंत्र को चुनाव तक ही सीमित कर देना चाहती है। वह चुनाव भी कितना निष्पक्ष है, यह हम अभी बिहार में चुनाव आयोग की हरकत देखकर समझ सकते हैं। चुनाव प्रभावी हो सके उसके पहले समाज में जनतंत्र की चेतना का बचे रहना ज़रूरी है। यह क़ानून उसकी हत्या कर देना चाहता है।