गाँधी की हत्या के 75 साल पूरे हो गए हैं। इन सालों में हमने गाँधी की प्रासंगिकता या उनके अप्रासंगिक हो जाने पर काफ़ी वाद विवाद किया है।लेकिन उनकी हत्या के अर्थ या आशय को समझने से हम कतराते रहे हैं। उस हत्या में कुछ है जो हमें उस पर थोड़ा ठहर कर विचार करने से रोकता है।यह मानने से हम भागते रहे  कि गाँधी की हत्या एक लंबी प्रक्रिया की परिणति थी। “एक पागल हिंदू ने बापू को मार डाला है!”ये शब्द एक तरह से ढाल बन गए हैं, हमारे और हत्या की सच्चाई के बीच।आश्चर्य नहीं कि गांधी की हत्या के बाद 2 फ़रवरी,1948 को संविधान सभा की बैठक में गाँधी के महत्त्व और उनकी महानता का गुणगान तो किया गया लेकिन यह ज़रूरी नहीं समझा गया कि इस हत्या के कारण को समझने  लिए वक्त निकाला जाए। इस सभा में दिए गए नेहरू के वक्तव्य को भी आगे पढ़ा  नहीं गया। न ही सरदार वल्लभ भाई पटेल के वक्तव्य को याद रखा गया। वे जो कह रहे थे, वह असुविधाजनक था। यहाँ  तक कि मार्च , 1948 में जब सेवाग्राम में गाँधी के मित्र, सहकर्मी और शिष्य मिले तब भी हत्या के प्रसंग पर ज़्यादा वक्त नहीं दिया गया।