loader
कांग्रेस नेता राहुल गांधी

हे गुरुजनो...आपका आरएसएस से रिश्ता क्या कहलाता है?

सुना कि देश के 150 से अधिक विश्वविद्यालयों के कुलपति और अन्य शिक्षा संस्थानों के प्रमुख कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी से नाराज़ हैं। विपक्षी नेता ने एक सम्मेलन में कह दिया था कि आजकल कुलपतियों या शिक्षा संस्थानों के प्रमुखों का चयन उनकी अकादमिक उपलब्धि या नेतृत्व क्षमता के कारण नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उनकी संबद्धता के कारण किया जाता है। कुलपतियों को इस पर ऐतराज है कि उनकी अकादमिक नेतृत्व के गुण पर सवाल उठाया गया है।
181 कुलपति, संस्थान प्रमुख सामूहिक रूप से एक बयान जारी करें, इसी से कुछ सवाल पैदा होते हैं। ये केंद्रीय, राज्य और कुछ निजी शिक्षा संस्थानों से जुड़े हुए हैं। उनको एक मंच पर लाने वाला कौन है? या उनमें से एक या दो ने पहल की और सबको एक जगह इकट्ठा किया?
राज्यों के शिक्षा संस्थानों के नियुक्ति प्रक्रिया केंद्रीय संस्थानों से भिन्न है। हालाँकि उसमें कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका अहम हो जाती है। हमें मालूम है कि पिछले 10 वर्षों में उन राज्यों में भी, जहाँ भाजपा सरकार नहीं है, राज्यपालों ने बार बार कुलपति के चयन में बाधा पहुँचाई है और कई जगह आर एस एस से जुड़े लोगों को ही नियुक्त किया है। 
ताजा ख़बरें
देखा कि इस सामूहिक वक्तव्य पर दस्तख़त करनेवालों में वे भी  शामिल हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले ही कहा था कि उन्हें संघी होने पर गर्व है। एक दूसरे ने ‘भगवा’ होने के आरोप का जवाब देते हुए कहा था कि अगर भगवा होना देशभक्त होना है तो वे भी 'भगवा’ हैं।
राहुल गाँधी जो कह रहे थे वह आज अकादमिक जगत का खुला राज है। जैसा हमने पहले लिखा है- 

कई कुलपति संघ से अपने संबंध को मुर्ग़े की कलगी की तरह फहराते चलते हैं। उसे छिपाने से आज कोई लाभ नहीं। वह समय और था जब आर एस एस से अपने रिश्ते के सार्वजनिक होने पर संकोच होता था।


हमने ऐसे कुलपति को भी देखा है जिन्होंने अपने चयन की घोषणा के बाद सबसे पहला काम आर एस एस के एक प्रमुख नेता से, जिन पर आतंकवादी कार्रवाई में हिस्सा लेने का आरोप है आशीर्वाद लेने का किया और उसकी तस्वीरें चारों तरफ़ प्रसारित कीं। एक दूसरे कुलपति ने पद पर रहते हुए ही आर एस एस की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी से अपनी संबद्धता ज़ाहिर कर दी और कार्यमुक्त होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश की विधान परिषद के सदस्य भी बना दिए गए। 
इसलिए राहुल गाँधी की शिकायत पर तो उन्हें कहना चाहिए था, जैसे दूसरे अवसरों पर उन्होंने किया है कि उन्हें आर एस एस से अपनी संबद्धता पर गर्व है और इसमें वे छिपाने लायक़ कुछ भी नहीं देखते। 
यह मुमकिन है कि वे मानते हों कि उनका चयन आर एस एस से उनके रिश्ते के कारण नहीं बल्कि उनके अकादमिक नेतृत्व के गुण के कारण मिला है। संघ से उनकी संबद्धता संयोग है। लेकिन वे और उनके नियोक्ता ही जानते हैं कि सच क्या है। क्या वे संघ में न होते तो उनका चयन हो पाता?  
कुलपति पद तो छोड़ दें, दिल्ली विश्वविद्यालय या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या अन्य कई शिक्षा संस्थानों में वैसे अध्येताओं ने, जो आर एस एस से जुड़े नहीं रहे हैं या अब जुड़ नहीं सकते अध्यापक के पद पर चयन की उम्मीद छोड़ दी है। कई ऐसे लोग हैं जो पहले आर एस एस में नहीं थे लेकिन इन 10 सालों में उन्होंने किसी न किसी तरह उससे संबद्धता प्राप्त कर ली है। उनमें से कुछ ऐसे हैं जिन्हें इसकी कसक है। कुछ को मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ याद आ जाती है जिसमें आजीविका के लिए आदमी को रीछ का भेस धारण करना पड़ता है और सर्कस में शेर से लड़ना भी पड़ता है। उस वक्त उसे मालूम होता है कि वह शेर भी उसी जैसी मजबूरी का शिकार रहा है और शेर की खाल ओढ़े है। फिर यह भी अफ़वाह है कि इस संबद्धता के प्रमाणपत्र की जगह बड़ी गुरु दक्षिणा से भी काम चलाया जा सकता है। यह शिकायत भी वे कर रहे हैं जो लाखों की इस गुरु दक्षिणा का इंतज़ाम नहीं कर सकते।
अध्यापकों में भी जो चुने गए हैं वे सब के सब संघ से जुड़े हुए नहीं हैं। लेकिन इससे सामान्य नियम खंडित नहीं होता। यही बात कुलपतियों के बारे में कही जा सकती है। कुलपति और शेष अधिकारी भले ही सार्वजनिक तौर पर कहें कि चयन का आधार उम्मीदवार की अकादमिक योग्यता है, उन्हें अपने दिल में तो सच्चाई का पता है। जो चुने जा रहे हैं और जो बाहर किए जा रहे हैं, दोनों को सच्चाई मालूम है। फिर धोखा किसे दिया जा रहा है? यह बात तो इतनी आम है कि अब एम ए में दाख़िला लेने के साथ विद्यार्थी भी जानते हैं कि उन्हें झंडेवालान का रास्ता याद कर लेना चाहिए या परिसर में लगने वाली शाखा में स्वास्थ्य सुधार के लिए नियमित रूप से झंडावंदन करना चाहिए।
2014 में जब भाजपा नीत सरकार सत्ता में आई, तब जो सज्जन दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर थे वे संघ से नहीं जुड़े थे। लेकिन बाद में उन्होंने जीतोड़ कोशिश करके दिखलाया कि ख़ुद को गांधीवादी कहते हुए संघ की सेवा भी की जा सकती है।
फिर भी सभी कुलपति एक जैसे नहीं होते। कुछ तय करके आते हैं कि जिस संस्थान का ज़िम्मा उन्हें दिया गया है, उसे 5 साल में वे इतना और इस कदर तोड़ डालेंगे कि उसके मलबे से फिर इमारत बन ही न सके। जे एन यू हमारी आँखों के आगे ढाह दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के बारे में क्या कहें! लेकिन कुछ को थोड़ी अपनी लाज अपनी आँखों में रखनी होती है। इसलिए वे चतुराई से संस्थान का कुछ बचा लेते हैं ताकि जब यह विपदा का दौर हटे तो संस्थान अपना काम, यानी शिक्षा का, करने लायक़ रह सकें। ये ऐसे लोग हैं जो वैचारिक रूप से आर एस एस के हैं लेकिन जिन्हें शिक्षा का अर्थ भी पता है। जिन्हें मालूम है कि ठीक है कि आर एस एस के लोगों को नौकरी देनी है लेकिन हर विषय में कुछ लिखने पढ़नेवाले भी होने चाहिए। कुछ कुलपति ऐसे हैं जो कुछ विषयों, कुछ विभागों को विनाश से बचा लेते हैं। बाक़ी का जो हो उसकी उन्हें परवाह नहीं। लेकिन इस तरह वे संस्था को थोड़ा बहुत बचा लेते हैं।
कुछ कुलपति  ज़रूर आर एस एस के रडार की निगाह से बचकर  कुछ शिक्षा का काम भी कर ले रहे हैं।लेकिन वे अपवाद हैं। यह भी सच है कि दिल्ली से दूर रहने पर बचने की संभावना ज़्यादा है।
किसी कुलपति का विश्वविद्यालय को सबसे बड़ा योगदान क्या है? नई इमारतें, नए पाठ्यक्रम अमूमन लोगों की निगाह खींचते हैं।लेकिन असल योगदान जो लंबे समय तक संस्थान को प्रभावित करता है, वह है श्रेष्ठ अध्येताओं का अध्यापकों के रूप में चुनाव। एक अध्यापक की अवधि तक़रीबन 30 से 40 साल तक की है। फिर वही आगे अध्यापकों के चयन में भूमिका निभाते हैं। वे ही पाठ्यक्रम बनाते हैं,वे ही शोध करते और कराते हैं। दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के कुलपति इस पर ख़ासा ध्यान देते हैं। 

हमारे कुलपति भी ध्यान देते हैं। लेकिन किसका? ज़्यादा सही यह कहना होगा कि वे किसी देख रही निगाह का ध्यान रखते हैं।


एक और काम कुलपतियों का है अपने संस्थान में श्रेष्ठता के विचार को जीवित रखना और उसे प्रोत्साहित करना।राहुल गाँधी से नाराज़गी अपनी जगह, कुलपति ख़ुद पूछें कि क्या वे इस दायित्व के प्रति सजग भी हैं, इसे निभाने की बात तो दूर रही। 
किस प्रकार के पाठ्यक्रम बनाए जा रहे हैं? वे शिक्षा के स्तर को उठाते हैं या सिर्फ़ एक प्रकार का  राष्ट्रवादी संतोष देते हैं?
यह भी वे पूछें कि वे परिसर में 'राष्ट्रवादी' और सरकारी विषयों के अलावा और विषयों पर चर्चा की इजाज़त क्यों नहीं देते?

कुलपति का काम परिसर में विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति निश्चित करने का भी है। क्या हमारे कुलपति यह कर रहे हैं?


जो शोध के लिए अनुदान देनेवाली संस्थाएँ हैं, उनके प्रमुख भी ईमानदारी से बतलाएँ कि क्या वे एक ही प्रकार के शोध प्रस्तावों को अनुदान दे रहे हैं या शोधार्थियों को इसकी छूट है कि तथाकथित राष्ट्रवादी विषयों से भिन्न विषयों पर वे शोध कर सकते हैं।
वक़्त-बेवक़्त से और खबरें
हम सब सच जानते हैं। जिन्होंने राहुल गाँधी को क़ानूनी कार्रवाई की धमकी देते हुए बयान दिया है वे भी जानते हैं कि उनके नियोक्ताओं की निगाह में उनकी क्या जगह है। यह क़तई मुमकिन है कि वे आर एस एस से जुड़े न हों लेकिन उन्हें हर रोज़ ही आर एस एस की दिलजोई करते रहना होती है। यह टिप्पणी लिख रहा था कि एक युवा अध्यापक ने बतलाया कि दिल्ली विश्वविद्यालय अपनी तरफ़ से आर एस एस के एक पदाधिकारी की किताब का लोकार्पण आयोजित कर रहा है जिसमें कुलपति ख़ुद मौजूद रहेंगे। या तो यह किताब ज्ञान के उस क्षेत्र की पथ प्रदर्शक होगी या शायद पथ तोड़ने देने वाली ही हो, तभी तो उसे इतना महत्त्व आधिकारिक तौर पर दिया जा रहा है! फिर भी राहुल गाँधी से कुलपतिगण निर्दोष भाव से पूछ रहे हैं कि हमारा आर एस एस से क्या रिश्ता!
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अपूर्वानंद
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

वक़्त-बेवक़्त से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें