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शाहरुख़ को क्यों कहना पड़ा- लोग कुछ भी सोचें, हम ज़िंदा हैं 

कोलकाता समारोह में शाहरुख़ ख़ान के अलावा अमिताभ बच्चन भी बोले। अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान के वक्तव्यों से नई उम्मीद जगी है। जिनके पास खोने को बहुत कुछ है, अगर वे जनतंत्र के लिए बोलने को खड़े हो जाएँ तो उसके संघर्ष को बल मिलता है। 
अपूर्वानंद

“हम ज़िंदा हैं!” कोलकाता के अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में शाहरुख़ ख़ान के वक्तव्य के ये आख़िरी तीन शब्द इस गुजरते साल 2022 के सबसे ताकतवर और सबसे प्यारे शब्द हैं। हम को हम बिहारवालों की तरह बोला सुना जा सकता है। अकेले व्यक्ति का होना। और इसे बहुवचनात्मक भी माना जा सकता है।

शाहरुख़ अपनी तरफ़ से बोल रहे थे, ख़ान जैसे नाम वालों की तरफ़ से बोल रहे थे, कलाकारों  की तरफ़ से बोल रहे थे और उस हिंदुस्तानी जनता की तरफ़ से भी जो ख़ुद को शाहरुख़ ख़ान के हम में शामिल मानती है।

हम ज़िंदा हैं, यह अपने होने की सूचना भर है? या यह ऐलान है? या यह चुनौती है? या उत्तर है? जो आज के भारत का संदर्भ जानता है, उस भारत में शाहरुख़ जैसे नामवालों की ज़िंदगी का संदर्भ जानता है, उसे मालूम है कि शाहरुख़ ख़ान के इन तीन शब्दों की अहमियत क्या है।

तक़रीबन इस वक्तव्य के समय ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र जमा होकर मोमबत्तियों के साथ 3 साल पहले 15 दिसंबर को जामिया के छात्रों पर हुए पुलिस दमन का विरोध कर रहे थे। शायद शाहरुख़ उनकी तरफ़ से भी कह रहे थे कि हम ज़िंदा हैं। वे छात्र भी इस सरकार को कह रहे थे कि अगर यह मान लिया गया था कि सब कुछ कुचल दिया गया है, दबा दिया गया है, तो ऐसा मानने वाले देख लें, “हम ज़िंदा हैं।”

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अमिताभ बच्चन भी बोले

कोलकाता समारोह में शाहरुख़ ख़ान के अलावा अमिताभ बच्चन भी बोले। अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान के वक्तव्यों से नई उम्मीद जगी है। जिनके पास खोने को बहुत कुछ है, अगर वे जनतंत्र के लिए बोलने को खड़े हो जाएँ तो उसके संघर्ष को बल मिलता है। दोनों ही व्यावसायिक सिनेमा के सितारे हैं। इसलिए व्यावसायिक सफलता या लाभ का प्रश्न उनके सामने हमेशा ही रहता है। उनके कुछ बोलने और करने से अगर इस पर असर पड़े तो ख़ामोश रहना ही बेहतर होगा। इसलिए इस मंच से, जो अंतरराष्ट्रीय मंच है, उनके बोलने का महत्व है।

Shah Rukh Khan ham jinda hain Kolkata International Film Festival - Satya Hindi

शाहरुख़ और आमिर ख़ान

शाहरुख़ ख़ान और अमिताभ बच्चन, दोनों दो तरह की शख़्सियतें हैं। इन दोनों के चाहनेवाले हर तरह के भारतीय हैं। हर धर्म और भाषा में इनके दीवाने मिल जाएँगे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भारत के शासक दल से जुड़े लोगों ने शाहरुख़ ख़ान के ख़ान होने पर बल देना शुरू किया है। उनके मुसलमान होने को उभारा जा रहा है। शाहरुख़ ख़ान हों या आमिर ख़ान, उन्हें इस बात का अहसास करा दिया गया है कि वे अमिताभ बच्चन की तरह सफल और लोकप्रिय भले हो जाएँ, वे उनकी तरह निःसंकोच अपने विचार व्यक्त करने को आज़ाद नहीं। उनको इसकी क़ीमत अदा करनी होगी।

शाहरुख़ ख़ान अपने ख़ान उपनाम को लेकर कभी संकुचित नहीं हुए हालाँकि इसके चलते उन्हें ज़िल्लत झेलनी पड़ी है।

शाहरुख़ ख़ान जैसे सितारे को आख़िर एक लेख लिख कर यह बतलाना पड़ा कि उनके ख़ान का मतलब क्या है, उनके लिए रिश्तों का, हिंदुस्तान से उनके संबंध का मतलब क्या है। इस तरह का कोई लेख, कोई वक्तव्य अमिताभ बच्चन को कभी नहीं देना पड़ा है। इसलिए शाहरुख़ ख़ान का बोलना दोहरी हिम्मत का काम है।

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सोशल मीडिया का संकरापन 

शाहरुख़ ख़ान ने एक कलाकार की तरह का ही वक्तव्य दिया। उन्होंने दिमाग़ी और भावनात्मक संकरेपन की बात की। संकरापन सोशल मीडिया की विशेषता है। सोशल मीडिया हमें छोटे-छोटे दायरों में क़ैद कर देता है। हमारी निम्नतम वृत्तियों को सहलाता और उत्तेजित करता है। इससे घृणा और हिंसा बढ़ती है क्योंकि दूरियाँ बढ़ती हैं। हम अपनी तरह की आवाज़ें ही सुनते हैं। इस वजह से अपने आप से अलग किसी से हम रिश्ता नहीं बना पाते। सहानुभूति जैसा मानवीय गुण धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है। एक बड़ी चीज़ है मानवीय स्वभाव। हम कभी उसके बार में सोच नहीं पाते। हम ख़ुद पर संदेह नहीं करते। 

सिनेमा इससे उलट मानव के अस्तित्व में निहित वेध्यता की कहानी कहता है। वह बृहत्तर मानवीयता की संभावना की कहानी कहता है।

शाहरुख़ ख़ान ने अपने पूर्वाग्रहों को तोड़ने, इस संसार की विविधता को सराहने, उसे समृद्ध करने और एक बड़ी इंसानियत को तामीर देने के दायित्व की तरफ़ ध्यान दिलाया। यही तो कला का काम है।
उन्होंने कहा कि सिनेमा एक देश, भाषा की सीमा में बँधा नहीं रह सकता। उसे पूरी दुनिया को संबोधित करना होता है। एक अच्छी या बड़ी फ़िल्म पूरी दुनिया की होती है। लेकिन उनके वक्तव्य के जिस हिस्से की सबसे अधिक चर्चा हो रही है, वह है नकारात्मकता से लड़ते हुए सकारात्मक होने का उनका आह्वान। उनका आख़िर में नाटकीय अंदाज़ से यह कहना कि लोग कुछ भी सोचें, हम ज़िंदा हैं। 

यह अर्थगर्भी वक्तव्य है। जो कुछ शाहरुख़ ख़ान ने जाती तौर पर पिछले 8 वर्षों में झेला है और जो ख़ान जैसे नाम वाले इस मुल्क में बर्दाश्त कर रहे हैं, उनको ध्यान में रखते हुए ही ज़िंदा रहने के इस ऐलान के ज़ोर को समझा जा सकता है। जब यह माना जा रहा हो कि हमें कुचल दिया गया है, ख़त्म कर दिया गया है, उस वक्त ये तीन शब्द जिजीविषा, जीवट और संघर्षशीलता के प्रतीक हैं, चुनौती भी। 

ये शब्द, जैसा हमारे मित्र अलीशान जाफ़री ने लिखा- करोड़ों भारतीय मुसलमानों के लिए जलती धूप में सूखे होठों के लिए पानी की बूँदों की तरह हैं। “हम ज़िंदा हैं,” ये तीन शब्द भरोसा दिलाते हैं।

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नकारात्मकता और सकारात्मकता

शाहरुख़ ख़ान ने शालीनता के साथ और अपने क़द के मुताबिक़ ऊँची सतह पर खड़े होकर अपनी बात कही। इसलिए उनके शब्दों का चुनाव भी ध्यान देने योग्य है। इन दिनों उन्हें नकारात्मक कहा जाता है जो समाज में व्याप्त और फैलाई जा  रही घृणा के बारे में या उसके ख़िलाफ़ बोलते हैं। शाहरुख़ ख़ान ने संकीर्णता और घृणा को ही नकारात्मकता कहा। घृणा की नकारात्मकता के व्यावसायिक और राजनीतिक लाभ हैं। इस वजह से उसे गहरा किया जाता है। इससे लड़ना, अपने संकरेपन से आज़ाद होना ही सकारात्मकता है। 

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