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गैरेथ जोन्स- जिसने स्टालिन के झूठ को बेनक़ाब किया था?

तीन साल पहले पोलैंड की फ़िल्मकार एग्नियेश्का हॉलैंड ने गैरेथ जोन्स पर मिस्टर जोन्स नाम की एक फ़िल्म भी बनाई थी जिसे काफ़ी सराहना मिली। यह फ़िल्म संदेश देती है कि पत्रकार का पहला धर्म प्रचार और भ्रम की धुंध में छिपे तथ्यों को खोज कर उन्हें सही संदर्भ के साथ पेश करना है जिन्हें ज़रूरत पड़ने पर सत्यापित किया जा सके। 
शिवकांत | लंदन से

बात 1933 की है। आर्थिक मंदी ने अमेरिका और यूरोप की कमर तोड़ रखी थी। लोगों में असंतोष फैला हुआ था। हिटलर ने जर्मनी में नात्सी सरकार बना ली थी जो तानाशाही की ओर बढ़ रही थी। परंतु सोवियत संघ स्टालिन के नेतृत्व में चमत्कारी औद्योगिक और आर्थिक विकास के दावे कर रहा था। खेती के सामूहिकीकरण के ज़रिए यूक्रेन की मिट्टी से सोना उगने के गीत गाए जा रहे थे। दुनिया में यह संदेश जा रहा था कि साम्यवाद और समाजवाद ही मानव विकास का सही रास्ता है। पूँजीवाद तो बर्बादी की ओर ले जाता है।

सोवियत संघ के दावे वेल्स में जन्मे और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़े पत्रकार गैरेथ जोन्स के गले नहीं उतर रहे थे। गैरेथ जोन्स ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री और लिबरल पार्टी के नेता डेविड लॉयड जॉर्ज के विदेशी मामलों के सलाहकार थे और स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से लिखते थे। उनके पिता उद्योगपति थे जिनका इस्पात का कारख़ाना यूक्रेन में भी था इसलिए जॉन्स की यूक्रेन में विशेष दिलचस्पी थी। यूक्रेन को उसकी उपजाऊ भूमि के कारण यूरोप का धानकटोरा माना जाता था। पर वे जानते थे कि वहाँ दो-तीन वर्षों से अकाल पड़ रहा था।

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जोन्स 1930 और 31 में सोवियत संघ की यात्रा कर चुके थे। वहाँ पत्रकारों पर जिस तरह की पाबंदियाँ थीं उनसे ज़ाहिर हो जाता था कि हक़ीक़त को छिपाया जा रहा था। डेविड लॉयड जॉर्ज के सलाहकार रहने के कारण उन्हें हिटलर का इंटरव्यू करने का मौक़ा मिल चुका था। जिससे उत्साहित होकर अब वे यूक्रेन जाकर स्टालिन का इंटरव्यू लेना और यूक्रेन जाकर हक़ीक़त का जायज़ा लेना चाहते थे। अभी तक उनकी सोवियत यात्राओं की रिपोर्टें छद्म नाम से छपी थीं। लेकिन अब वे सोवियत संघ में स्टालिन के विकास की असलियत को बेनक़ाब करना और उसे अपने नाम से छपवाना चाहते थे।

सोवियत संघ में विदेशी पत्रकारों पर कड़ी नज़र रखी जाती थी। यूक्रेन जाना तो दूर मॉस्को की बस्तियों में भी बिना निगरानी के जाना संभव नहीं था। न्यूयॉर्क टाइम्स के पुलित्सर पुरस्कार विजेता संवाददाता वॉल्टर डुरांटी की उन दिनों मॉस्को में रहने वाले विदेशी पत्रकारों में धाक थी। स्टालिन की पंचवर्षीय योजना और खेती के सामूहिकीकरण पर डुरांटी की ग्यारह रिपोर्टें छप चुकी थीं जिनके लिए उन्हें पुलित्सर पुरस्कार मिल चुका था। वे स्टालिन का इंटरव्यू भी ले चुके थे। पर डुरांटी ने जोन्स के खोजी इरादों को अपने जमे-जमाए काम के लिए ख़तरा मानते हुए उनकी मदद करने से इंकार कर दिया।

डेविड लॉयड जॉर्ज का पत्र भी जोन्स को स्टालिन तक नहीं पहुँचा पाया। वे रूसी जानते थे इसलिए निगरानी रखने वालों को चकमा देकर एक दिन छिपकर रेलगाड़ी से यूक्रेन निकल गए। रेलयात्रा के दौरान ही जोन्स को सोवियत ख़ुशहाली के अफ़साने की हक़ीक़त नज़र आने लगी थी। डबल रोटी के टुकड़ों के लिए अपना सामान बेचने के लिए बेबस, भूख और ग़रीबी के मारे बदहाल और दमन से घबराए लोग। सर्दियाँ चल रही थीं। यूक्रेन के एक गाँव में उतर कर जोन्स ने गलियों में भुखमरी से दम तोड़ते बच्चों और बुज़ुर्गों के बीच ग़रीब किसानों के हाथों से बचे-कुचे अनाज को छीन कर ले जाते सोवियत सैनिकों के दमन का मंज़र देखा जिसने उसके अन्तस को सुन्न कर दिया।

भुखमरी, ग़रीबी, मौत और दमन के हृदय विदारक दृश्यों के बीच कुछ दिनों तक भटकने के बाद जोन्स को धर लिया गया और सोवियत संघ से निष्कासित कर दिया गया।

मॉस्को से बर्लिन लौट कर जॉन्स ने प्रेस विज्ञप्ति जारी की जिसे मेनचैस्टर गार्डियन और न्यूयॉर्क इवनिंग पोस्ट समेत कई अख़बारों ने छापा। दुनिया में तहलका मच गया। आर्थिक मंदी और पूँजीवाद से मोहभंग के बाद वॉल्टर डुरांटी जैसे जो संवाददाता सोवियत संघ की हक़ीक़त पर लीपापोती कर रहे थे, उनकी साख दाँव पर लग गई। उनका मानना था कि स्टालिन के साम्यवादी प्रयोग को दुनिया की भलाई के लिए एक मौक़ा दिया जाना चाहिए। इसलिए डुरांटी ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक जवाबी रिपोर्ट छापी जिसमें कहा कि ‘सोवियत लोग भूखे ज़रूर हैं पर भूख से मर नहीं रहे हैं।’ 

journalist gareth jones report on ukraine crisis and russia - Satya Hindi
स्टालिन

लेकिन यूक्रेन के दुर्नीति जनित अकाल जैसा भयावह सच बहुत दिनों तक छिपा नहीं रह सकता था। हक़ीक़त सामने आने पर डुरांटी से पुलित्सर पुरस्कार वापस लेने की माँगें भी उठीं। लेकिन देर हो चुकी थी। स्टालिन ने अमेरिका और यूरोप से आगे निकलने की होड़ में यूक्रेन के अनाज और किसानों को शहरों और कारख़ानों के निर्माण में झोंक दिया था। ज़ारशाही के ज़माने से चले आ रहे कुलक या ज़मींदार किसानों की ज़मीनें छीनकर उन्हें सामूहिक फ़ॉर्मों में बदल दिया गया। ज़मींदार किसानों को शहरी कारख़ानों में मज़दूरी के लिए भेज दिया गया और फ़ॉर्मों में अनाज की जगह कपास और गन्ने जैसी नक़दी फ़सलें उगाने की कोशिशें भी की गईं।

जब सभी मालिक बन जाते हैं तब कोई काम नहीं करता। यूक्रेन में यही हुआ। सामूहिक फ़ॉर्मों में लोगों ने मन मार कर काम करना शुरू कर दिया। ग़लत फ़सलें लगाने और देखभाल न करने के कारण उपज घटने लगी। ऊपर से दो-तीन साल सूखा पड़ा। उधर शहरों और कारख़ानों का पेट भरने के लिए और विदेशों से मँगाए जा रहे माल के भुगतान के लिए अनाज की माँग तेज़ी से बढ़ी। उपज तो कम हो ही रही थी, ऊपर से दाना-दाना मॉस्को भेजा जा रहा था। गाँवों में भुखमरी फैल गई और लोग भागने लगे। ग़लत और दमनकारी नीतियों ने अन्न भंडार को अकाल में बदल दिया जिसे होलोदोमोर या दमनकारी अकाल के नाम से जाना जाता है। भूख से लोगों के नरभक्षी होने की ख़बरें आने लगीं। 1931 से 34 के बीच कम-से-कम 35 लाख लोग मारे गए।

अफ़सोस की बात यह है कि जिन दिनों यूक्रेन के किसान भूख के मारे नरभक्षी होने को विवश हो रहे थे उन्हीं दिनों भारत और चीन समेत एशिया और लातीनी अमेरिका के बहुत से देशों में स्टालिन के चमत्कारी नियोजित विकास और ख़ुशहाली के तराने गाए जा रहे थे।

उनकी पंचवर्षीय योजनाओं, सामूहिकीकरण और नियोजित अर्थव्यवस्था की धूम थी। आगे चलकर इन्हीं नीतियों से माओ ने चीन को, होनेकर ने पूर्वी जर्मनी को, सुकार्णो ने इंडोनेशिया को और मार्शल टीटो ने युगोस्लाविया को बर्बाद किया।

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भारत में ज़मींदारों के विरोध के कारण खेती का सामूहिकीकरण तो नहीं हो सका लेकिन पंचवर्षीय योजना और नियोजित अर्थव्यवस्था की नीतियाँ अपनाई गईं जिनकी वजह से आर्थिक विकास बेहद धीमा रहा और भारत पश्चिम जर्मनी, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों से बुरी तरह पीछे रह गया। उल्लेखनीय है कि 1930 में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने बड़े भाई के पोते सौम्येन्द्रनाथ के साथ दो सप्ताह की सोवियत रूस की यात्रा पर गए थे। मॉस्को से बाहर न जा पाने के कारण वे ज़्यादा कुछ तो नहीं देख पाए। फिर भी सहमति न रखने वालों के प्रति रोष, नफ़रत और बदले की भावना भड़काने वाली सोवियत नीतियाँ उनकी पैनी नज़रों से छिपी नहीं रह सकीं। यात्रा के अनुभव उनके सोवियत संघ से लिखे पत्रों में समाहित हैं।

लेकिन जोन्स की रिपोर्टों ने अमेरिका और यूरोप के लोगों की आँखें ज़रूर खोलीं। उनके बाद सोवियत और चीनी प्रचारतंत्र के अफ़सानों पर आँख मूँद कर विश्वास नहीं किया गया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जॉर्ज ऑरवेल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एनिमल फ़ॉर्म’ में गैरेथ जोन्स की सोवियत यात्राओं के अनुभवों की छाप है। ऑरवेल स्वयं कभी सोवियत संघ नहीं गए पर उनकी रचनाएँ स्टालिनकालीन सोवियत समाज की प्रामाणिक तसवीर खींचती हैं। वे गैरेथ जोन्स से मिलते रहते थे और एनिमल फ़ॉर्म का किसान पात्र जोन्स उन्हीं को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

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तीन साल पहले पोलैंड की फ़िल्मकार एग्नियेश्का हॉलैंड ने गैरेथ जोन्स पर मिस्टर जोन्स नाम की एक फ़िल्म भी बनाई थी जिसे काफ़ी सराहना मिली। यह फ़िल्म संदेश देती है कि पत्रकार का पहला धर्म प्रचार और भ्रम की धुंध में छिपे तथ्यों को खोज कर उन्हें सही संदर्भ के साथ पेश करना है जिन्हें ज़रूरत पड़ने पर सत्यापित किया जा सके। सामाजिक सरोकार के नाम पर वास्तविकता को अनदेखा करने, उस पर लीपापोती करने और उसे अपना रंग चढ़ा कर पेश करने के भयावह दुष्परिणाम होते हैं। यदि पत्रकारों ने अपनी सही भूमिका का समय रहते निर्वाह किया होता तो स्टालिन और माओ के साम्यवाद और हिटलर के नात्सी राष्ट्रवाद के नाम पर मारे गए लगभग आठ करोड़ लोगों और अनमोल सांस्कृतिक धरोहर को बचाया जा सकता था।

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