प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ के शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ गर्मजोशी दिखाना और चीन को आतंकवाद से पीड़ित बताने पर कई सवाल खड़े हो गये हैं। तियानजिन में आयोजित शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ का भी स्वागत हुआ जो बताता है कि चीन की नज़र में भारत और पाकिस्तान में कोई फ़र्क़ नहीं है। ऐसा लगता है कि पीएम मोदी न सिर्फ़ चीन के साथ जारी सीमा तनाव को भुला चुके हैं बल्कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन का खुलकर पाकिस्तान का साथ देना भी भुलना चाहते हैं। यानी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के टैरिफ़ वार से बचने के लिए पीएम मोदी चीन के ख़ेमे में जगह तलाश रहे हैं, पर भारतीय कूटनीति का इस तरह से झूला झूलना देश की प्रतिष्ठा को कमज़ोर करने वाला है।

ऑपरेशन सिंदूर

पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में 7 मई को भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया था। यह ऑपरेशन चार दिन तक चला। इस दौरान चीन और तुर्की ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया। भारतीय सेना के डिप्टी चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर. सिंह ने खुलासा किया था कि ‘चीन ने न केवल पाकिस्तान को रियल-टाइम इंटेलिजेंस और हथियार मुहैया कराए, बल्कि अपने हथियारों को "लाइव लैब" की तरह परखा भी। तुर्की ने भी पाकिस्तान को 350 ड्रोन और ऑपरेटर उपलब्ध कराकर भारत के खिलाफ समन्वित हमलों में मदद की।’
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इस ऑपरेशन ने भारत के सामने एक गंभीर चुनौती पेश की। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि उनकी व्यापारिक धमकी के कारण परमाणु युद्ध टल गया, हालांकि भारत ने किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं किया। पीएम मोदी ने तब कहा था कि ऑपरेशन सिंदूर जारी रहेगा, लेकिन चार महीने बाद तस्वीर बदलती दिख रही है।

चीन और तुर्की का रुख़

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन और तुर्की के रवैये ने भारत में गुस्से की लहर पैदा की थी। पीएम मोदी ने अहमदाबाद में व्यापारियों को चीनी सामान का बहिष्कार करने की शपथ दिलायी थी। उन्होंने भले ही "विदेशी सामान" का जिक्र किया हो लेकिन दीवाली पर "छोटी आंख वाले गणेश जी" को लेकर उनका तंज साफ तौर पर चीन की ओर इशारा कर रहा था। 

भारत ने तुर्की के खिलाफ भी कड़े कदम उठाए थे। इंडिगो एयरलाइंस को तुर्की से दो बोइंग जहाजों की लीज रद्द करने को कहा गया और तुर्की की कंपनी सेलेबी एविएशन का सिक्योरिटी क्लियरेंस रद्द कर दिया गया, जो कई हवाई अड्डों पर ग्राउंड हैंडलिंग सर्विस दे रही थी। देश भर में "बायकॉट तुर्की" का माहौल बना था।

एससीओ शिखर सम्मेलन

31 अगस्त को चीन के तियानजिन में शुरू हुए एससीओ शिखर सम्मेलन में भारत, पाकिस्तान, चीन और तुर्की एक मंच पर नजर आए। इस सम्मेलन में पीएम मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का एकसमान गर्मजोशी से स्वागत हुआ। यह वही पाकिस्तान है, जिसे भारत ने बार-बार आतंकवाद का पोषक देश करार दिया है। फिर भी, चीन ने दोनों देशों को एक मंच पर लाकर तनाव कम करने की कोशिश की।

मोदी ने तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी मुलाकात की। मोदी ने तो चीन को आतंकवाद से पीड़ित देश बता दिया। पाकिस्तान की सरकार भी यही दावा करती है कि वह भी आतंकवाद से पीड़ित है और चीन इसे मानता भी है। चीन और तुर्की के प्रति गर्मजोशी को देखते हुए ये याद करना हैरान करता है कि भारत ने इन देशों को ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान का साथ देने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। यही नहीं, जून में एससीओ रक्षा मंत्रियों की बैठक के बाद साझा बयान पर हस्ताक्षर करने से भी भारत ने इनकार कर दिया था, क्योंकि उसमें पहलगाम हमले का जिक्र नहीं था।
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एससीओ और चीन

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की स्थापना 2001 में चीन, रूस और चार मध्य एशियाई देशों ने मिलकर की थी। इसका मकसद क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद के खिलाफ सहयोग और आर्थिक साझेदारी को बढ़ावा देना था। 2017 में भारत और पाकिस्तान इसके पूर्ण सदस्य बने, और 2023-24 में ईरान और बेलारूस भी शामिल हुए। आज यह संगठन दुनिया की आधी आबादी, एक-चौथाई भूभाग और वैश्विक जीडीपी के एक-चौथाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। 

चीन के वाणिज्य मंत्रालय के मुताबिक, 2024 में एससीओ देशों के साथ उसका व्यापार 512.4 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जो एक रिकॉर्ड है। शंघाई शहर, जहां से इस संगठन का नाम पड़ा, चीन की आर्थिक और वैश्विक ताकत का प्रतीक है। इस मंच के जरिए चीन न केवल क्षेत्रीय, बल्कि वैश्विक नेतृत्व की अपनी महत्वाकांक्षा को साकार कर रहा है।

भारत की मजबूरी

एससीओ में भारत की सक्रिय भागीदारी के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दबाव भी एक बड़ा कारण है। ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगा दिया, जिसमें 25% रूस से तेल खरीदने की सजा शामिल है। उनका कहना है कि भारत की तेल खरीद रूस को यूक्रेन युद्ध में मदद पहुंचा रही है।

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी ट्रंप ने भारत को अपमानित करने वाला रवैया अपनाया था। उन्होंने तीन घंटे पहले ही युद्धविराम की घोषणा कर खुद को शांति का नोबेल पुरस्कार का दावेदार बताया और पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में लंच के लिए बुलाया।

विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रंप का मकसद पाकिस्तान को चीन के प्रभाव से निकालकर मध्य एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करना है। इस स्थिति ने भारत को रूस और चीन जैसे देशों के साथ खड़े होने को मजबूर किया है। 
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कूटनीति का झूला

पीएम मोदी ने 2014 में शी जिनपिंग को अहमदाबाद में साबरमती के तट पर झूला झुलाकर भव्य स्वागत किया था, लेकिन बाद में उनकी नीति अमेरिका के करीब ले गई। अब ट्रंप के दबाव ने उन्हें फिर से चीन की ओर मोड़ दिया है। एससीओ में बार-बार "शंघाई भावना" का जिक्र होता है, जो आपसी विश्वास, लाभ, समानता और सांस्कृतिक विविधता की बात करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या चीन वाकई भारत और पाकिस्तान के बीच विश्वास पैदा कर पाएगा, खासकर जब पाकिस्तान भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बाज़ नहीं आता? वैसे अगर दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है तो दोस्त के दोस्त के साथ भी दुश्मनी संभव नहीं रह जाती। 

भारत की कूटनीति स्थायी सिद्धांतों पर आधारित है या हवाओं के रुख के हिसाब से झूलती रहेगी, इसका जवाब भविष्य देगा। लेकिन यह साफ है कि वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति अब पहले जैसी नहीं रही। एससीओ जैसे मंच और ट्रंप जैसे दबाव भारत को नई राह चुनने के लिए मजबूर कर रहे हैं। वैसे तो पड़ोसी देशों से दोस्ती भारतीय कूटनीति का एक मान्य सिद्धांत रहा है पर हाल के दिनों में भारत ने छोटे पड़ोसियों के बीच भी समर्थन खोया है। अमेरिका ने भारत को चीन के ख़िलाफ़ मोहरा बनाया था, अब चीन भारत का कैसा इस्तेमाल करना चाहता है, इस पर नज़र रखने की ज़रूरत है।