loader

सरकार को जाति जनगणना पर गंभीर होने की ज़रूरत

भारत में जाति अहम मसला है। विभिन्न अख़बारों से लेकर नेता तक जातियों की संख्या का अनुमान लगाते रहते हैं और उसी के मुताबिक़ समीकरण बैठाते हैं। 

अब यूनाइटेड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (यूडीआईएसई प्लस) की रिपोर्ट चर्चा में है। 

2019 के इन आँकड़ों के मुताबिक़, प्राथमिक स्कूलों में पंजीकरण के आधार पर देश में 25 प्रतिशत सामान्य, 45 प्रतिशत ओबीसी, 19 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 11 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति हैं।

ख़ास ख़बरें

जाति गणना की सिफ़ारिश

मंडल कमीशन की रिपोर्ट में जिन जातियों को ओबीसी आरक्षण दिए जाने की सिफ़ारिश की गई थी, 1931 की जनगणना के मुताबिक़ उनकी संख्या 52 प्रतिशत थी। 

आयोग ने ये आँकड़े सटीक नहीं माने थे और जाति जनगणना कराकर सही आँकड़े हासिल करने की सिफ़ारिश की थी। 

मंडल आयोग ने अनुमान लगाया था कि अगर 1931 से लेकर आयोग के गठन यानी 1978 तक सभी जातियों में बच्चे पैदा करने की दर एकसमान रही हो तो जिन जातियों को ओबीसी आरक्षण दिए जाने की सिफ़ारिश की जा रही है, उनकी संख्या 52 प्रतिशत होगी।

27 प्रतिशत आरक्षण

सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में ओबीसी को केंद्र के स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। वहीं अलग-अलग राज्यों में ओबीसी के आरक्षण का प्रतिशत अलग अलग है और कुछ राज्य ओबीसी आरक्षण नहीं देते हैं।

यूडीआईएसई प्लस के आँकड़ों के मुताबिक़, प्रमुख राज्यों के आँकड़े देखें तो प्राइमरी स्कूलों में ओबीसी की संख्या तमिलनाडु में 71 प्रतिशत, केरल में 69 प्रतिशत, कर्नाटक में 62 प्रतिशत, बिहार में 61 प्रतिशत है। इसके अलावा इनकी तादाद उत्तर प्रदेश में 54 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 52 प्रतिशत, तेलंगाना में 48 प्रतिशत, राजस्थान में 48 प्रतिशत, गुजरात में 47 प्रतिशत, झारखंड में 46 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 45 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 43 प्रतिशत, ओडिशा में 36 प्रतिशत है।

अनुसूचित जाति को 17 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत आरक्षण उनकी जातियों की संख्या के आधार पर मिला हुआ है। वहीं ओबीसी को उनकी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम, केंद्रीय स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता है।

सवर्णों की संख्या?

अगर यूडीआईएसई प्लस के आँकड़ों को जातियों की संख्या का आधार मानें तो तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ में तो सामान्य वर्ग ( ग़ैर- आरक्षित लोगों या सवर्ण) की संख्या क्रमशः 4 प्रतिशत और 8 प्रतिशत है।

वहीं देश के 8 राज्यों में सामान्य वर्ग की संख्या 15 प्रतिशत से भी कम है, जिन्हें नरेंद्र मोदी सरकार ने ग़रीब कहकर 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है।

अगर इन 15 प्रतिशत ग़ैर आरक्षित में से क्रीमी लेयर निकाल दिया जाए तो ग़ैर आरक्षित गरीबों की संख्या देश की कुल आबादी की 2 प्रतिशत से भी नीचे आ सकती है, जिन्हें केंद्र सरकार ने 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है।

caste census in  india census 2021 must for reservation - Satya Hindi

कहाँ से आए आँकड़े?

ये आँकड़े प्राइमरी स्कूलों  में पंजीकरण के आधार पर हैं। इससे मोटे तौर पर जातियों की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन सटीक संख्या का अनुमान नहीं। इसमें यह भी संभावना है कि ओबीसी, या एससी-एसटी के बच्चे स्कूल में कम जा रहे हों।

यह संभावना भी बनती है कि प्राथमिक विद्यालयों में कोई सरकारी लाभ न होने की वजह से ओबीसी, एससी, एसटी ने जाति बताई ही न हो, या खुद को अनारक्षित तबके का या ब्राह्मण, क्षत्रिय बताया हो, जिससे कि निम्न जाति का कहकर बच्चों का जातीय उत्पीड़न न होने पाए।

यह छिपा हुआ नहीं है कि भारत में किसी को सम्मान या तिरस्कार भी जातीय आधार पर मिलता है। इसके अलावा जातीय आधार पर आर्थिक सामाजिक स्थिति का अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं है। 

अगर कोई व्यक्ति मरे हुए पशु उठाता है, या कोई व्यक्ति मिट्टी के बर्तन बनाता है, या कोई व्यक्ति मकई का भूजा भूजता है, या मछली पकड़ता है तो उसकी जाति आसानी से जानी जा सकती है। 

caste census in  india census 2021 must for reservation - Satya Hindi

जाति जनगणना क्यों?

जाति की जानकारी के साथ उनकी सामाजिक हैसियत और सम्मान भी तय हो जाता है। इसमें एकाध उदाहरण अपवादस्वरूप हो सकते हैं, जिसमें काम के आधार पर जाति न पहचानी जा सके। यह जातियाँ ऐसे काम कई पीढ़ियों से करती आ रही हैं और हिंदू सामाजिक व्यवस्था में जन्म से ही काम विभाजित कर दिया गया है।

इससे निकालने का एकमात्र तरीका यह है कि जिन जातियों को निम्न कहे जाने वाले या कम आमदनी वाले कामों को जन्मजात सौंप दिया गया है, उन्हें भी मलाईदार पदों पर पहुँचने का मौका दिया जाए।  देश के संसाधनों में उन्हें बराबर की हिस्सेदारी मिले। शिक्षा में उन्हें बराबर का अधिकार मिले।

इसके लिए यह जानना अहम है कि देश में कितनी जातियाँ हैं और उन जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति क्या है। जातीय आँकड़े जाने बग़ैर सरकार सामाजिक योजनाओं का लाभ सही लोगों तक नहीं पहुँचा सकती है।

समान मौका

1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद से ही सरकारों की यह क़वायद रही है कि समाज से ग़ैर- बराबरी दूर की जाए और सबको समान मौका दिया जाए। 

इसके बावजूद सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों से लेकर उद्योग और उद्योगों में शीर्ष पदों पर कुछ गिनी जातियों का दबदबा बना हुआ है और ये जातियाँ सैकड़ों साल से अपने जातीय प्रिविलेज का फायदा उठाकर देश के संसाधनो पर कब्जा बनाए हुए हैं। उच्च जाति में पैदा होना भारत में अपने आप विशेषाधिकार दे देता है।

ऐसे लोग प्रिविलेज लेकर पैदा होते हैं। अगर कोई ब्राह्मण परिवार में पैदा हो गया तो अन्य जातियों के लोग उनके नाम के साथ स्वाभाविक रूप से 'जी' लगाकर संबोधित करते हैं।

यह सामाजिक पूंजी इतने तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्कूल में एडमिशन, ठेकेदारी से लेकर विदेश तक नेटवर्किंग में काम आती है।  इसकी वजह से कुछ सवर्ण कही जाने वाली जातियों का देश के संसाधनों पर कब्जा बना हुआ है। अगर उद्योग जगत के शब्दों में कहें तो यह उच्च कही जाने वाली जातियों का जातीय आधार पर कार्टलाइजेशन है।

उच्च जातियों ने कार्टेल बना लिया है, जिसके दम पर वह देश के संसाधनों और मलाईदार पदों पर कब्जा जमाए हुए हैं, वे इस कार्टेल में किसी को घुसने नहीं देते, चाहे वह कितना भी काबिल क्यों न हो।

कार्टेल तोड़ने की ज़रूरत

अगर सरकार देश के हर नागरिक का समग्र विकास चाहती है तो उसे इस कार्टेल को तोड़ने के लिए सकारात्मक कार्रवाई करने की ज़रूरत है।

देश की बहुसंख्य आम आबादी रोजी-रोटी और सामान्य सम्मानजनक व्यवहार पाने के लिए तरस रही है। जातीय जनगणना नहीं कराए जाने से भी जातियाँ मौजूद हैं और अपने वीभत्स रूप में सामने आ रही हैं।

जाति जनगणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा, यह कहना बेमानी है। इससे ज्य़ादा ज़रूरी है कि जाति आधारित जनगणना कराकर जान लिया जाए कि किन जातियों का अब भी शोषण हो रहा है और वे सामान्य सुख सुविधाओं से वंचित हैं। 

अब वक्त आ गया है कि सरकार को जाति जनगणना कराकर आँकड़ों के आधार पर बात और काम करना चाहिए।

चुनाव के पहले जातियों की संख्या के अनुमान लगाने, उस आधार पर टिकट बंटवारे जैसी कवायदें करने के बजाय बेहतर है कि जातियों की संख्या स्पष्ट हो। सरकार सामाजिक उत्थान की बेहतर नीतियां बनाए, जिससे जातीय आधार पर सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक विषमता खत्म की जा सके।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रीति सिंह
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

देश से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें