मायावती और प्रकाश अंबेडकर
यूपी में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और महाराष्ट्र में वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) दलित राजनीति का चेहरा बन गई थीं। लेकिन इस आम चुनाव में दोनों का सबसे बदतर प्रदर्शन रहा। इनके हारने और कमजोर होने से दलित राजनीति के भविष्य को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। इन्ही सवालों को तलाशती यह रिपोर्टः
चंद्रशेखर दलित राजनीति का होनहार हस्ताक्षर है लेकिन संसाधनों के अभाव में और यूपी में बसपा के प्रभाव ने उसे कभी आगे नहीं बढ़ने दिया। हालांकि चंद्रशेखर ने भीम आर्मी बनाकर और आजाद समाज पार्टी बनाकर कुछ पहल करने की कोशिश की। लेकिन यूपी में मायावती के आगे अभी तक किसी भी दलित नेता की दाल नहीं गली है। चंद्रशेखर ने 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में और 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी का दरवाजा खटखटाया लेकिन किसी ने बंदे को टिकट नहीं दिया। कांग्रेस ने अपनी मजबूरी यह बताई कि उसका सपा से समझौता है और यह सीट सपा के खाते में गई है तो वो कुछ कर नहीं सकती। खुद मायावती और बसपा ने चंद्रशेखर को कभी पसंद नहीं किया। विश्लेषकों का कहना है कि मायावती को डर है कि अगर चंद्रशेखर को बसपा में मौका दिया गया तो वो उनकी पार्टी पर नियंत्रण कर लेंगे।
यूपी में नगीना से निर्दलीय चुने गए चंद्रशेखर आजाद
चंद्रशेखर जिस तरह दलितों के मुद्दे उठाते रहे हैं, उससे यह लगता है कि वो भविष्य में दलित राजनीति का एक सशक्त चेहरा बन सकते हैं। हालांकि अभी विचारधारा के तौर पर उनमें पूरी परिपक्वता नहीं आई है। नगीना में ही वो मुस्लिम मतदाताओं के भारी समर्थन से जीते हैं। जीतने के बाद वो उसका उल्लेख उस परिपक्व नेता की तरह नहीं कर रहे हैं, जिस तरह करना चाहिए। कई बार उन्होंने ऐसी भी राजनीति की है जो भाजपा के अनुकूल रही है। हालांकि उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से भाजपा को फायदा पहुंचाने की कोशिश नहीं की। किसी नेता की गंभीरता का पता तभी चलता है, जब वो मुद्दे उठाता है और उसके दूरगामी नतीजों पर पहले से विचार कर लेता है। इसलिए चंद्रशेखर को लंबी दूरी तय करना है। लेकिन उनकी पार्टी के पास संसाधनों का अभाव है। पैसे नहीं है। ऐसे में वो अपना संगठन और दलित राजनीति को कैसे आगे बढ़ा पाएंगे, यह यक्ष प्रश्न है। नगीना ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ की सफलता का संकेत दिया है। चंद्रशेखर अपनी पार्टी के सहारे इस मुहिम को बढ़ा सकते हैं।
कांशीराम का अंदाज और सोच अलग थी। वो बहुत दूर तक सोचकर इस आंदोलन को चला रहे थे। फिर उन्होंने मायावती को खोजा और उस चेहरे के सहारे अपने राजनीतिक मिशन को बढ़ाया। मायावती के नेतृत्व में, बसपा एक लोकप्रिय पार्टी के रूप में उभरी और यूपी में सरकार तक बनाई। हालाँकि, हाल के वर्षों में, बसपा महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के दौरान निष्क्रिय रही। उसकी निष्क्रियता से मुसलमान जो बसपा से जुड़े थे, दूर चले गए। आज हाशिये पर पड़े सामाजिक समूहों (मुसलमानों सहित) को बसपा लामबंद कर ले जाएगी, दूर की कौड़ी हो गई है। बसपा यूपी या अन्य किसी राज्य में तभी राजनीतिक रूप से सफल हो सकती है जब उसे मुस्लिमों का साथ मिले।
हालांकि बसपा ने एक मजबूत दलित राजनीतिक चेतना को तैयार किया है और दलित समुदाय को प्रेरित किया है। कई मौकों पर दलितों चिंता के एक स्वतंत्र वक्ता के रूप में काम भी किया है। इसी तरह के मुखर संकेतों ने उसकी राजनीतिक शक्ति को मजबूत किया। लेकिन बाद में मायावती के गलत राजनीतिक फैसलों और सुविधाभोगी राजनीति ने सब गुड़गोबर कर दिया। मायावती पैसे के मामले में सबसे अमीर दलित नेता हो सकती हैं लेकिन उनका वोट बैंक अब खिसक चुका है। जिसके लिए उनके गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेदार हैं।
दूसरी तरफ प्रकाश अंबेडकर की वीबीए दलित पार्टी की पारंपरिक छवि से बाहर निकली और "वंचित-बहुजन" राजनीतिक मंच बनाने के लिए गैर-दलित समूहों के साथ जुड़ गई। 2019 के चुनावों में, इसने दक्षिणपंथी राजनीति के खिलाफ कट्टरपंथी राजनीतिक रुख अपनाया और हाशिए पर मौजूद सामाजिक समूहों के लिए एक राजनीतिक विकल्प पेश किया। हालाँकि, आम चुनाव 2024 में, वीबीए का इंडिया गठबंधन में शामिल न होने और स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का निर्णय महाराष्ट्र के दलित-बहुजन समूहों को पसंद नहीं आया। यही गलती प्रकाश अंबेडकर को भारी पड़ी। यूपी में जो गलती मायावती ने की, वही गलती प्रकाश अंबेडकर ने महाराष्ट्र में की।
इस चुनाव में बसपा का वोट शेयर 2014 (19.77%) और 2019 (19.42%) से घटकर 9.39% रह गया है। उसे कोई सीट नहीं मिली, लेकिन बसपा को 16 सीटों पर एनडीए उम्मीदवारों की जीत के अंतर से अधिक वोट मिले। इससे भाजपा को फायदा हुआ। अगर बसपा इंडिया गठबंधन का हिस्सा होती तो शायद ये 16 सीटें उसके या इंडिया के पास होतीं और भाजपा 16-17 सीटों पर यूपी में सिमट गई होती। मायावती ने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल 2024 के आम चुनावों को लेकर की है।
इसी तरह, पिछले लोकसभा चुनाव में वीबीए का वोट शेयर प्रभावशाली 8% था, जो इस बार घटकर मात्र 2% रह गया है। वीबीए के नेता प्रकाश अंबेडकर को अकोला में लगभग तीन लाख वोट मिले लेकिन वे दौड़ में तीसरे स्थान पर रहे। केवल दो वीबीए उम्मीदवारों (शिरडी में उत्कर्षा रूपवते और बुलढाणा में वसंत मगर) को सम्मानजनक वोट मिले, जबकि दो अन्य (हथकंगले और मुंबई उत्तर पश्चिम सीटों पर) को जीत के अंतर से अधिक वोट मिले। हालांकि उद्धव ठाकरे ने बार-बार प्रकाश अंबेडकर को इंडिया में शामिल करना चाहा लेकिन प्रकाश अंबेडकर इतनी ज्यादा सीटें मांग रहे थे कि बात बनने वाली नहीं थी। अगर वो इंडिया के साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो शायद इस बार लोकसभा में बैठते।
आगे का रास्ता क्या है
दलित राजनीति अभी मरी नहीं है। उसमें जिन्दा होने और आगे बढ़ने के पूरे हौसले बरकरार हैं। लेकिन उसके लिए एक बौद्धिक और दूरदर्शी नेतृत्व की जरूरत है। ऐसा भी किया जा सकता है कि सभी दलित आंदोलनों और दलित राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय गठबंधन बनाया जाए। सभी स्टेक होल्डर, बुद्धिजीवी और सिविल सोसाइटी के लोग इससे जुड़ें। नए आंदोलन का निर्माण करें। लेकिन इसमें उन लोगों को भी जोड़ें जिन्हें दक्षिणपंथी राजनीति ने अलग-थलग कर दिया है। दलित संगठन जब तक दक्षिणपंथियों को अपने विरोधी के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक उनके आंदोलन को बाकी दलों या समूहों का समर्थन नहीं मिलेगा। दलितों को सोचना होगा कि उनका सबसे बड़ा राजनीतिक शत्रु कौन है। अगला दलित आंदोलन वहीं से शुरू होना चाहिए।