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गोडसे आतंकवादी, पर किसने रची थी गाँधी की हत्या की साज़िश?

महात्मा गाँधी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे एक बार फिर सुर्खियों में है। फ़िल्म अभिनेता कमल हासन ने उसे आज़ाद भारत का पहला हिन्दू आतंकवादी क़रार दिया तो एआईएमआईएम के सांसद असदउद्दीन ओवैसी ने उनका समर्थन किया। लेकिन एक सवाल बार-बार उठता है कि आाख़िर गोडसे ने ऐसा किया ही क्यों, उसके पीछे कौन लोग थे, किसने गाँधी की हत्या की साज़िश रची थी और गोडसे ने इसे कैसे अंज़ाम दिया था। इन मुद्दों पर कई बार बात हो चुकी है, पर नया परिप्रेक्ष्य यह है कि जिन तत्वों ने गाँधी की हत्या करवाई थी, वे एक बार फिर तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, उनकी नीतियाँ एक बार फिर चर्चा में हैं और उन्हें उचित ठहराने की कोशिशें भी हो रही हैं।
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लंबी साज़िश, कई कोशिशें

महात्मा गाँधी की हत्या की पाँच कोशिशें हुई थीं। पहली कोशिश 25 जून, 1934 को हुई थी। महात्मा गाँधी को पुणे कॉरपोरेशन के सभागार में भाषण देना था। गाँधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा को एक ही गाड़ी से जाना था। उनकी गाड़ी से पहले बिल्कुल वैसी ही एक गाड़ी पुणे पहुँची और उसमें विस्फोट हो गया। इसमें गाड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए। इसमें सवार कॉरपोरेशन के मुख्य अधिकारी, पुलिस के दो जवान और सात अन्य लोग बुरी तरह घायल हो गए। इसके थोड़ी देर बाद जो गाड़ी वहाँ पहुँची, उसमें गाँधी थे। वह बाल-बाल बच गए।

महात्मा गाँधी को जान से मारने की दूसरी कोशिश जुलाई, 1944 में हुई थी, यह वह समय था जब गाँधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया था। आग़ा ख़ान महल से निकल कर गाँधी पंचगनी गए, क्योंकि उनकी सेहत काफ़ी ख़राब हो चुकी थी। नाथूराम गोडसे और उसके साथ 18-20 लोग पुणे से बस से पंचगनी पहुँचे और गाँधी पंचगनी में जिस घर में टिके थे, उसके आगे विरोध-प्रदर्शन किया। गाँधी चाहते थे कि वह खु़द उन लोगों से मिल कर बात करें और जानें कि उनके विरोध का क्या कारण है। पर गोडसे ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। 

शाम को प्रार्थना के समय नाथूराम गोडसे एक चाकू लेकर तेज़ी से गाँधी जी की ओर बढ़ा, लेकिन मणिशंकर पुरोहित और भल्लारे गुरुजी ने उसे बीच में ही रोक लिया। गाँधी जी ने गोडसे से कहा कि वह उनके साथ 8 दिन रहे ताकि वह समझ सकें कि आख़िर वह ऐसा क्यों करना चाहता है लेकिन गोडसे ने इससे इनकार कर दिया। 

इसके कुछ ही दिनों बाद सितंबर,1944 में गोडसे ने एक बार फिर गाँधी को मारने की योजना बनाई थी। दरअसल, गाँधी मुसलिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना से मिल कर बात करना चाहते थे, पर हिन्दू महासभा इसके ख़िलाफ़ थी। गोडसे और उनके लोग सेवाग्राम पहुँचे और विरोध-प्रदर्शन किया। जो लोग वहाँ विरोध-प्रदर्शन करने गए थे, उनमें से एक के पास बड़ा चाकू पाया गया था और दूसरे के पास तलवार थी। 

Nathuram Godse Gandhi assassination conspiracy  - Satya Hindi

गाँधी को मारने की अगली कोशिश जून 1946 में की गई। जिस ट्रेन से गाँधी पुणे जा रहे थे, उसके रास्ते में बम रख दिया गया। नरूल और करजट स्टेशनों के बीच वह ट्रेन पटरी से उतर गई, पर कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ। 

गाँधी को मारने की पाँचवी कोशिश 20 जनवरी 1948 को की गई थी। गोडसे, मदनलाल पाहवा, नारायण आप्टे, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, दिगंबर बडगे और शंकर किस्तैया ने योजना बनाई कि प्रार्थना में भाग लिया जाए और वहीं गाँधी पर हमला कर दिया जाए। 

करकरे और पाहवा पहले ही जाकर प्रार्थना सभा में बैठ गए। बाक़ी पाँच लोग बाद में वहाँ गाड़ी से पहुँचे। पाहवा वहाँ फ़ोटोग्राफ़र के रूप में गया, उसने बिड़ला हाउस में काम कर रहे छोटूराम से कहा कि वह उस जगह जाना चाहता है, जहाँ गाँधी बैठते हैं, क्योंकि वह गाँधी की तसवीर पीछे से लेना चाहता है। लेकिन उसकी दाल नहीं गली, छोटूराम ने उस पर भरोसा नहीं किया। पाहवा ने ऐसा दिखाया मानो वह लौट गया हो। 

पाहवा ने विस्फोटक गन कॉटन को दीवार पर रख कर उसमें आग लगाई। योजना के मुताबिक़, इसके बाद दूसरे किसी शख़्स को वहाँ हथगोला फेंकना था। लेकिन गन कॉटन के फटने से हुई आवाज़ की वजह से गोडसे के साथी डर गए और हथगोला फेंकने के बजाय वहाँ से भाग खड़े हुए। पाहवा को गिरफ़्तार कर लिया गया।

30 जनवरी, 1948

30 जनवरी, 1948, को गाँधी ने दोपहर के भोजन के बाद अपने सचिव प्यारेलाल के साथ नोआखाली में चल रहे सांप्रदायिक दंगों पर बात की और उसे रोकने के उपायों पर चर्चा की। थोड़ी देर सोने के बाद वह उठे और बल्लभ भाई पटेल से बात की। इसके बाद काठियावाड़ से आए दो लोग गाँधी से मिलना चाहते थे। गाँधी ने कहा कि यदि वह जीवित रहे तो प्रार्थना के बाद उनसे मिलेंगे।

समय के बेहद पाबंद गाँधी उस दिन 10 मिनट देर से पहुँचे थे। वे मनुबेन का हाथ पकड़ कर सभा स्थल पहुँचने के लिए जा रहे थे कि खाकी पैंट पहना हुआ एक मोटा सा आदमी उनके पास पहुँचा, उसने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया और नीचे झुका। मनुबेन को लगा कि वह गाँधी के पाँव छूना चाहता है। चूँकि देर हो रही थी, इसलिए मनुबेन ने उस आदमी को रोकने की कोशिश की। लेकिन उस आदमी ने धक्का दिया और मनुबेन गिर पड़ीं। उस आदमी ने जेब से बेरेट रिवॉल्वर निकाली और एक के बाद एक चार गोलियाँ चलाईं। वह आदमी नाथूराम गोडसे था। 

Nathuram Godse Gandhi assassination conspiracy  - Satya Hindi
कुछ लोगों का कहना है कि इसके बाद गोडसे ने कोई प्रतिरोध नहीं किया, वह वहीं खड़ा रहा और पुलिस के आने का इंतजार करता रहा, पुलिस के आते ही उसने बग़ैर किसी प्रतिरोध के ख़ुद को उनके हवाले कर दिया। लेकिन कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि वहीं मौजूद अमेरिकी दूतावास के कर्मचारी हर्बर्ट रीनर ने उसे दबोच लिया।

कौन चल रहा था शंतरज की चालें?

लेकिन इस हत्या के पीछे यही लोग नहीं थे, ये तो बस शतरंज पर बिछे मोहरों के समान थे, चाल कोई और चल रहा था। कौन था वह? गाँधी की हत्या की अंतिम कोशिश की योजना बनाने वाला, पैसे देने वाला और इसके लिए लोगों को समझा-बुझाकर अपनी बात मनवाने वाला शख़्स विनायक दामोदर सावरकर था।
सावरकर उन आठ लोगों में से एक थे, जिन पर महात्मा गाँधी की हत्या में शामिल होने का आरोप लगा था और मुक़दमा चलाया गया था। मुक़दमे के दौरान पेश किए गए दस्तावेज़ के मुताबिक़, मुख्य अभियुक्त नाथूराम गोडसे, सावरकर को सालों पहले से जानता था, उनसे बहुत प्रभावित था और उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उसने गाँधी की हत्या की योजना बनाई थी।  
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विनायक दामोदर सावरकर

सावरकर ने गोडसे को दिए पैसे 

गोडसे को 'हिन्दू राष्ट्र' नामक अख़बार शुरू करने के लिए सावरकर ने 15,000 रुपये दिए। यह उस समय बहुत छोटी रकम नहीं थी। गोडसे के अख़बार के मास्टहेड पर सावरकर की तसवीर लगी होती थी। उसने इसका मैनेजर नारायण आप्टे को बनाया था, वही आप्टे जो गाँधी की हत्या में गोडसे के साथ था और बाद में उसी के साथ उसे फाँसी दी गई थी। 

पाहवा की पीठ थपथपाई

महात्मा गाँधी की हत्या के 10 दिन पहले 20 जनवरी, 1948 को गोडसे, आप्टे और मदनलाल पाहवा ने बिड़ला हाउस के प्रार्थना कक्ष में विस्फोटक डाल दिया था। गाँधी जी देर से आने के कारण बच गए थे। पाहवा पकड़ा गया था। इसके बाद पाहवा को जानने वाले जगदीश चंद्र जैन ने बंबई प्रेसीडेन्सी के तत्कालीन गृह मंत्री मोरारजी देसाई से मिल कर कहा था कि वह पाहवा को जानते थे। 

‘गाँधी-नेहरू को ख़त्म कर दो’

बडगे के मुताबिक़, तात्याराव (वे लोग सावरकर को सम्मान से तात्याराव कहते थे) ने पाहवा से कहा था कि महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और शहीद सुहरावर्दी को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए और उन्होंने यह ज़िम्मेदारी गोडसे और उसकी टीम को दी थी।
पुलिस ने 20 जुलाई से 30 जुलाई 1948 तक बडगे से पूछताछ की। जज आत्मा चरण ने बडगे के बयान, वकीलों की ज़िरह वगैरह को ध्यान से सुनने के बाद कहा कि उन्हें उसकी कही बातों पर पूरा यक़ीन है और उसकी बातों के सच होने से कोई इनकार नहीं कर सकता।

सावरकर को सज़ा क्यों नहीं?

लेकिन एक पेच यह था कि बडगे सरकारी गवाह बन चुका था। इसलिए किसी दूसरे आदमी की ज़रूरत थी, जो उसकी कही बातों की पुष्टि करे। यह बिल्कुल तकनीकी कारण था और इसी आधार पर सावरकर को सज़ा नहीं हुई। पूरे मुक़दमे के दौरान सावरकर ने किसी दूसरे अभियक्त से बात नहीं की, किसी की ओर देखा तक नहीं, उनसे मिलने से इनकार कर दिया। बाद में गोडसे को सावरकर के इस व्यवहार पर बहुत ही दुख हुआ।
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गोडसे को फाँसी दिए जाने के 18 साल बाद यानी 1966 में सावरकर की मौत हो गई। इसके दो साल बाद यानी 1968 में जस्टिस जीवन लाल कपूर की अगुआई में एक आयोग का गठन हुआ और उस आयोग ने सावरकर की भूमिका की एक बार फिर जाँच की। इस बार सावरकर के अंगरक्षक अप्पा रामचंद्र कसर और गजानन विष्णु डामले को भी पेश किया गया। उन दोनों ने ही बडगे की कही बातों की पुष्टि की।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, 'ये सभी तथ्य मिल कर इस थ्योरी की पुष्टि करते हैं कि हत्या की साज़िश सावरकर और उसके समूह ने रची थी और किसी भी दूसरी थ्योरी को खारिज करते हैं।'
लेकिन तब तक सावरकर की मृत्यु के दो साल बीत चुके थे। तो इस तरह तकनीकी कारणों से सावरकर को हत्या की साज़िश रचने में सज़ा नहीं हुई थी, हालाँकि बाद में वह साज़िश साबित भी हो गई।
सावरकर की भूमिका स्पष्ट है। बेहद दिलचस्प बात यह है कि इसी सावरकर की तसवीर देश की सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह के घर की दीवार पर टँगी हुई है और वह इसे छिपाते भी नहीं हैं। गाँधी की हत्या में शामिल सावरकर और दूसरे लोग जिस विचारधारा को लेकर चलते हैं, आज उसे मानने वालों की तादाद बढ़ रही है। देश के वातावरण में वैसा ही ज़हर भरा जा रहा है, जैसा आज़ादी के समय था।
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क़मर वहीद नक़वी
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