Secularism, Socialism Controversy: संविधान की प्रस्तावना से 'सेक्युलर' और 'सोशलिस्ट' शब्द हटाने की बहस का क्या नतीजा निकलेगा? जानिए इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के अब तक के फैसले और राय क्या रहे हैं।
संविधान की प्रस्तावना से ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों पर आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के बयान से शुरू हुए विवाद पर बहस छिड़ गई है। बीजेपी के कई नेताओं और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी इन शब्दों को हटाने के पक्ष में बयान दिया। इससे यह मुद्दा और सुर्खियों में आ गया। तो क्या यह मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट में पहुँचेगा? और यदि यह पहुँचा तो क्या यह मामला अदालत में टिक पाएगा? आइए जानते हैं कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में क्या रुख रहा है?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 1976 में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था। यह संशोधन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के कार्यकाल में आपातकाल के दौरान लागू किया गया था। इस संशोधन के तहत न केवल इन दो शब्दों को जोड़ा गया, बल्कि ‘अखंडता’ शब्द को भी प्रस्तावना में शामिल किया गया। इसका उद्देश्य भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और एकीकृत राष्ट्र के रूप में परिभाषित करना था।
हालाँकि, इस संशोधन को लेकर उस समय भी विवाद हुआ था। संविधान सभा के सदस्य प्रो. के. टी. शाह ने 1949 में ही प्रस्तावना में ‘सेक्युलर, फेडरल, सोशलिस्ट’ शब्दों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन तब इसे स्वीकार नहीं किया गया था। डॉ. बी. आर. आंबेडकर सहित कई नेताओं का मानना था कि ये शब्द संविधान के मूल ढाँचे में पहले से ही निहित हैं और इन्हें स्पष्ट रूप से जोड़ने की ज़रूरत नहीं है। फिर भी, 1976 में ये शब्द प्रस्तावना का हिस्सा बन गए।
सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर इस संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज किया है। हाल ही में 25 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने के 42वें संशोधन को बरकरार रखा। कोर्ट ने कहा कि ये शब्द संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा हैं और इन्हें हटाने का कोई आधार नहीं है।
अक्टूबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य सुनवाई में साफ़ किया था कि ‘सेक्युलरिज़्म’ संविधान की मूल विशेषता है और इसे बदला नहीं जा सकता। कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि क्या कोई न्यायिक निर्देश संविधान की इस विशेषता को हटा सकता है।
इससे पहले 2020 में सुप्रीम कोर्ट के वकील बलराम सिंह द्वारा दायर एक याचिका में इन शब्दों को हटाने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता का तर्क था कि ये शब्द आपातकाल के दौरान ‘जबरन’ जोड़े गए और ये संविधान के मूल स्वरूप को बदलते हैं। हालांकि, कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि ‘सेक्युलरिज्म’ और ‘सोशलिज्म’ संविधान के बुनियादी ढाँचे का अभिन्न हिस्सा हैं।
सुप्रीम कोर्ट का नज़रिया
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह साफ़ किया है कि संविधान की प्रस्तावना देश के मूलभूत सिद्धांतों को दर्शाती है। प्रस्तावना में इन दोनों शब्दों को जोड़े जाने से तीन साल पहले 1973 के केशवानंद भारती मामले में कोर्ट ने ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ सिद्धांत की स्थापना की थी, जिसमें कहा गया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन इसका मूल ढाँचा नहीं बदल सकती। सुप्रीम कोर्ट ने बाद के कई फ़ैसलों में ‘सेक्युलरिज्म’ और ‘सोशलिज्म’ को इस मूल ढांचे का हिस्सा माना है।
कोर्ट का यह भी कहना है कि ‘सेक्युलरिज्म’ का मतलब केवल धर्मनिरपेक्षता नहीं, बल्कि सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार और सम्मान है। इसी तरह, ‘सोशलिज्म’ का अर्थ आर्थिक और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना है, न कि केवल राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था को।
प्रस्तावना पर मौजूदा बहस
यह बहस उस समय फिर से शुरू हुई जब आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने 50वीं आपातकाल वर्षगाँठ के मौक़े पर इन शब्दों को हटाने की मांग की। उनका तर्क था कि ये शब्द आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे और इनकी प्रासंगिकता पर चर्चा होनी चाहिए। इसके बाद असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी इस मुद्दे पर बयान देते हुए कहा कि यह ‘सोशलिज़्म’ और ‘सेक्युलरिज़्म’ को हटाने का ‘सुनहरा समय’ है।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी इस बहस में हिस्सा लेते हुए कहा कि इन शब्दों को हटाने पर विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि ये संविधान के मूल स्वरूप का हिस्सा नहीं थे। इन बयानों पर कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। कांग्रेस ने आरएसएस और बीजेपी पर संविधान के मूल्यों को कमजोर करने का आरोप लगाया।
RSS ने कभी संविधान स्वीकार नहीं किया: कांग्रेस
कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि आरएसएस ने कभी भी संविधान को स्वीकार नहीं किया और अब वह इसके मूल ढाँचे को बदलने की कोशिश कर रहा है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द भारत की विविधता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को दिखाते हैं। उनका तर्क है कि इन शब्दों को हटाने की मांग संविधान के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी चरित्र पर हमला है।
यह बहस न केवल क़ानूनी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक नज़रिए से भी अहम है। आरएसएस और बीजेपी के नेताओं का तर्क है कि ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को हटाने से संविधान को उसके मूल स्वरूप में लाया जा सकता है। वहीं, विपक्ष का कहना है कि यह क़दम भारत की धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी पहचान को कमजोर करेगा।
सुप्रीम कोर्ट का रुख साफ़ है कि ये शब्द संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा हैं और इन्हें हटाना संभव नहीं है। फिर भी, इस मुद्दे पर राजनीतिक बहस और सार्वजनिक चर्चा जारी रहने की संभावना है। जानकारों का मानना है कि यह बहस भारत के संवैधानिक मूल्यों और राष्ट्रीय पहचान पर गहरे सवाल उठाती है।
‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को लेकर चल रही बहस भारतीय संविधान की आत्मा को समझने का एक अवसर देती है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में बरकरार रखने का समर्थन किया है, जिससे यह साफ़ होता है कि ये शब्द भारत के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी चरित्र को मज़बूती देते हैं। हालाँकि, राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के बीच इस मुद्दे पर मतभेद बने रहने की संभावना है।