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पुरुषों की अपेक्षा क्यों कम हो रही हैं महिलाएँ?

पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या क्यों कम होती जा रही है? क्या इसलिए कि बेटियों को कोख में या जन्मते ही मार दिया जा रहा है? क्या यह उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कमतर आँके जाने का रिपोर्ट कार्ड नहीं है? सवाल उठता है कि तरक्की और आधुनिकता आने के साथ महिलाओं की स्थिति बदतर क्यों होती जा रही है?

एक रिपोर्ट आयी है कि हाल के दिनों में लिंगानुपात यानी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या में कमी आयी है। लिंगानुपात ज़्यादा असंतुलित हुआ है और 2015-17 के बीच यह 896 रहा। इससे पहले 2014-2016 में यह 898 था। बता दें कि 2011 की जनगणना के अनुसार प्रति हज़ार पुरुषों पर 940 महिलाएँ थीं। यानी हाल के वर्षों में लिंगानुपात ज़्यादा असंतुलित होने लगी है। हालाँकि इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाने के शुरुआती दिनों में यानी 2001 (933) से 2011 के बीच कुछ सुधार ज़रूर दिखा था, लेकिन अब फिर से इसमें गिरावट आनी शुरू हुई है। और यह तब हो रहा है जब सरकार लड़कियों को बढ़ावा देने वाली ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाएँ चला रही है।

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लिंगानुपात में गिरावट की तसवीर स्क्यूड सेक्स रेशियो यानी एसआरएस के सर्वे में सामने आयी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकारियों ने 31 दिसंबर, 2017 तक आँकड़ा तैयार किया है। इसके लिए सर्वेक्षण 2018 में किया गया था और इसका विश्लेषण 2019 में सार्वजनिक किया जा रहा है। बता दें कि लिंगानुपात का उपयोग प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या गिनने के लिए किया जाता है।

महिलाओं के लिंगानुपात में क़रीब-क़रीब सभी जगहों पर गिरावट आयी है। चाहे वह छत्तीसगढ़ हो या हरियाणा। 2017 के एसआरएस सर्वेक्षण के दौरान छत्तीसगढ़ ने जन्म के समय सबसे अधिक लिंगानुपात 961 दर्ज किया, जबकि हरियाणा ने सबसे कम 833 दर्ज किया। इससे पहले 2011 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ में कुल मिलाकर 991 और हरियाणा में 879 लिंगानुपात दर्ज किया गया था।

ऐसी स्थिति सिर्फ़ उन राज्यों में नहीं है जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं या जहाँ अपेक्षाकृत कम साक्षर हैं, बल्कि दिल्ली जैसे संपन्न और शिक्षित राज्य में भी काफ़ी ख़राब स्थिति है। 2011 की जनगणना के अनुसार पूरी दिल्ली का लिंगानुपात 868 रहा था। इस दौरान दक्षिण दिल्ली में लिंग अनुपात 862 रही थी। बता दें कि दक्षिण दिल्ली पॉश इलाक़ा है और माना जाता है कि इस क्षेत्र के बाशिंदे काफ़ी ‘खुले’ विचारों वाले हैं। हालाँकि महिलाओं के लिंगानुपात के मामले में यह खुलापन नहीं दिखता है। हरियाणा, पंजाब, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में भी प्रति 1,000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 900 से कम है। हालाँकि, केरल जैसे राज्य में महिलाओं का लिंग अनुपात पुरुषों से ज़्यादा है और यहाँ क़रीब-क़रीब पूरी आबादी शिक्षित है।

महिला मृत्यु दर में भी ख़राब स्थिति

राष्ट्रीय स्तर पर मृत्यु दर 2017 में 6.3 पर रही। छत्तीसगढ़ में अधिकतम 7.5 मृत्यु दर रही और दिल्ली में न्यूनतम 3.7 रही। रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय मृत्यु दर में पिछले पाँच वर्षों में 0.7 अंकों की गिरावट दर्ज की गई है। सर्वे के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि महिला मृत्यु दर में जहाँ 0.5 अंक की गिरावट आयी है वहीं पुरुष मृत्यु दर में 1.0 अंक की गिरावट आयी है। यानी पुरुष मृत्यु दर के मामले में स्थिति ज़्यादा बेहतर हुई है। अक्सर ऐसी रिपोर्टें आती रही हैं जिसमें साफ़ तौर पर इशारा मिलता है कि पालन-पोषण से लेकर तबियत बिगड़ने तक में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को तरजीह मिलती है। हालाँकि पूरे संदर्भ में देखें तो स्वास्थ्य सुविधाओं के सुधरने के कारण मृत्यु दर में कमी आयी है। 1971 में जहाँ मृत्यु दर 12.5 फ़ीसदी थी वहीं 2017 तक यह गिरकर 6.3 फ़ीसदी पर आ गई है। लेकिन महिला मृत्यु दर हमेशा ज़्यादा रही है।

कन्या भ्रूण हत्या के कारण तो महिलाओं की संख्या में बेतहाशा कमी आई है। हाल के दिनों में ये मामले काफ़ी बढ़े हैं। यहाँ सवाल उठता है कि सरकार इन पर कार्रवाई क्यों नहीं करती?

भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़ अभियान कितना कारगर?

भ्रूण हत्या के लिए सबसे बड़ा ज़िम्मेदार है- जन्मपूर्व लिंग निर्धारण वाली अल्ट्रासाउंड मशीन। 1960 के दशक में भारत में जब यह नई तकनीक की अनुमति दी गई थी तो इसका मक़सद बेहतर इलाज कराना था। लेकिन इसके साथ गर्भपात की घटनाएँ भी बढ़ीं। हालाँकि इसमें तेज़ी आई 1990 में देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद। अल्ट्रासाउंड तकनीक आसानी से उपलब्ध हो गयी। एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1988-2003 के बीच भारत में निर्मित अल्ट्रासाउंड मशीनों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई। यानी शिक्षा और तरक्की के साथ ही समाज दकियानूसी सोच की ओर अग्रसर होने लगा! जब पानी सिर के ऊपर से जाने लगा तो सरकार ने इन नई प्रौद्योगिकियों के कारण उत्पन्न होने वाली कन्या भ्रूण को रोकने के लिए नियम लागू किए। लेकिन इन क़ानूनों को अक्सर ठीक तरीक़े से लागू नहीं किया गया। 

इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने पाया कि वर्ष 2014-15 में  महाराष्ट्र के अधिकारी, सोनोग्राफी केंद्रों की 55 फ़ीसदी निरीक्षणों को पूरा करने में विफल रहे। जून 2015 की एक अन्य रिपोर्ट में कहा है, गुजरात में 73 फ़ीसदी सोनोग्राफी केंद्रों के निरीक्षण में कमी थी। इंडियास्पेंड की अक्टूबर 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, सीएजी के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश सरकार ने कन्या भ्रूणहत्या को रोकने के लिए आबंटित राशि में से आधा ख़र्च नहीं किया।

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पुरुषवादी सोच ज़िम्मेदार

भ्रूण हत्या या बालिकाओं की हत्या में महिला विरोधी पूर्वाग्रह शामिल हैं। महिलाओं को अक्सर पुरुषों की तुलना में कम आँका जाता है। अक्सर यह भी मान लिया जाता है कि पुरुषों द्वारा माता-पिता की बुढ़ापे में देखभाल बेहतर होगी, क्योंकि परिवार के मुख्य आय स्रोत पुरुष होते हैं। आमतौर पर लड़कियों के माता-पिता को दहेज की भारी रकम का भुगतान करने की चिंता होती है। लड़के के होने पर दहेज चिंता नहीं होती है। ये सब ऐसी स्थितियाँ पैदा करते हैं कि शिक्षा, तरक्की और आधुनिक सोच भी महिलाओं की बदतर स्थिति को नहीं रोक पाती हैं। 

मार्च 2011 में बीबीसी ने कनाडा के मेडिकल एसोसिएशन के जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के हवाले से रिपोर्ट छापी थी। इसके अनुसार बढ़ते लिंग निर्धारण के कारण भारत और चीन जैसे देशों में 20 वर्षों में असंतुलन आएगा और इस असंतुलन का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। आधुनिक, संपन्न और पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस सोच के प्रति कितना सचेत है, इसकी तसवीर एसआरएस के सर्वे की रिपोर्ट ही हमारे सामने रख देती है।

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क़मर वहीद नक़वी
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