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महामारी 2023 में एक भयावह सपने की तरह फिर खड़ी है?

चीनी कैलेंडर के हिसाब से 2022 बाघ का वर्ष था। हिम्मत और हौसले का साल। और सच मानें तो यह पूरा साल हर मोर्चे पर दुनिया के हिम्मत और हौसले का इम्तिहान ही लेता रहा। और साल ख़त्म होते-होते यूँ लग रहा है मानो सामने फिर पानी से भरी एक बड़ी खाई आ गई है, अब इसे पार करने के लिए छलांग लगानी है, या पानी कम होने का इंतज़ार करना है? यह सवाल भारत की ही नहीं, दुनिया की अर्थव्यवस्था के सामने खड़ा है। और इसकी वजह यह है कि कोरोना महामारी के प्रकोप से निकलने की भविष्यवाणी के साथ शुरू हुआ साल ख़त्म होते-होते न सिर्फ उस उम्मीद पर पानी फेर चुका है बल्कि यह नई चिंता पैदा हो गई है कि क्या हम 1970 के दशक जैसे गंभीर आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़े हैं जहां आर्थिक तरक्की कछुए की चाल पर पहुंच जाए और महंगाई खरगोश की रफ्तार से कुलांचे भरती दिखाई पड़े। यह चिंता विश्व बैंक के इकोनॉमिक आउटलुक में जताई गई है। 

विश्व बैंक की चिंता पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को लेकर है। उसका अनुमान है कि यूक्रेन पर रूसी हमले से पैदा हुई महंगाई दुनिया को भारी पड़ने वाली है। और इसीलिए उसने 2022 में दुनिया की जीडीपी में होने वाली बढ़त का अनुमान भी घटा दिया है। 2020 में कोरोना की मार झेलने के बाद 2021 में विश्व की अर्थव्यवस्था में 5.7% की बढ़त आई थी और विश्व बैंक का अनुमान था कि 2022 में यह बढ़त गिरकर 4.1% ही रह जाएगी। यह अनुमान इस साल जनवरी में दिया गया था। लेकिन साल ख़त्म होते-होते दुनिया इतनी बदल चुकी होगी कि उसका अंदाजा शायद तब नहीं रहा होगा। अब विश्व बैंक को लगता है कि इस साल दुनिया की जीडीपी में सिर्फ 2.9% की ही बढ़त हो पाएगी। और यहाँ से आगे भी तेज उछाल के आसार नहीं दिखते। उसका अनुमान है कि अगले साल यानी 2023 में भी अर्थव्यवस्था की रफ्तार में कोई खास तेज़ी नहीं आएगी और यह तीन परसेंट के आसपास ही रहेगी।

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लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था पर विश्व बैंक का भरोसा कायम है। न सिर्फ कायम है बल्कि उसे लगता है कि दुनिया भर में मंदी की चिंता और आशंका के बीच भारत ही है जो सबसे अच्छी तरह मुकाबला कर सकता है। विश्व बैंक का अनुमान था कि वित्त वर्ष 2022-23 में भारत की जीडीपी 6.5% बढ़ेगी, लेकिन ताज़ा रिपोर्ट में उसने यह अनुमान बढ़ाकर 6.9% कर दिया है। हालांकि रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जाहिर की गई है कि दुनिया भर में बिगड़ता माहौल भारत की तरक्की पर असर डाल रहा है और इसीलिए 2021-22 के मुकाबले इस साल भारत में ग्रोथ की रफ़्तार कम रहेगी। लेकिन साथ में जोर देकर कहा गया है कि भारत के बाज़ारों में घरेलू मांग मजबूत रहेगी और इसके दम पर ही भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहेगा।

साल ख़त्म होते-होते ऐसी बातें हिम्मत और हौसला तो मजबूत करती ही हैं। लेकिन फिर पूरे साल का हाल याद आता है तो चिंता की लकीरें फिर उभरने लगती हैं। इस साल की सबसे बड़ी मुसीबत तो महंगाई ही रही। जनवरी में एक बार महंगाई का आंकड़ा रिजर्व बैंक की बर्दाश्त की सीमा यानी छह परसेंट के पार हुआ तो फिर रिज़र्व बैंक की तमाम कोशिशों के बावजूद पूरे ग्यारह महीने बाद नवंबर में ही वो बर्दाश्त के दायरे में लौट पाया।

फिर भी एक से ज्यादा कारण हैं यह मानने के कि कोरोना महामारी की चपेट में दो साल बर्बाद होने के बाद कम से कम इस साल कुछ तो ऐसा हुआ कि साल ख़त्म होने पर चैन की साँस ली जा सके। महँगाई काबू में आती दिख रही है। यूक्रेन रूस युद्ध से पैदा हुई परेशानियों के बावजूद अब ऐसा लग रहा है कि ज़िंदगी पटरी पर लौट सकती है। 
भारत की अर्थव्यवस्था में रफ़्तार लौटती दिख रही है और कंपनियों की बैलेंस शीट तो यूँ दिखती हैं जैसी उन्हें कोई बूस्टर शॉट लग गया हो। महीने दर महीने जीएसटी वसूली का आँकड़ा नया रिकॉर्ड बनाता दिख रहा है और इनकम टैक्स के मोर्चे पर भी खुशख़बरी ही आ रही है।

इसी का असर है कि वित्तमंत्री ने जब संसद में बजट के ऊपर 325756 करोड़ रुपए की अनुपूरक मांगों का प्रस्ताव रखा तो सवालों के जवाब में उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि इस रकम को जुटाने के लिये सरकार कोई नया कर्ज नहीं लेगी। वित्तमंत्री ने कहा कि सात महीनों में ही पिछले साल के मुकाबले टैक्स वसूली में 18% की बढ़ोत्तरी हुई है जो उन्हें भरोसा देती है कि सरकार को अपने खर्च के लिए ज़रूरी पैसा मिल जाएगा। आम लोगों के लिये राहत की बात है कि सरकार उनपर बोझ बढ़ाए बिना ही अपना खर्च बढ़ाने की तैयारी में है।

दरअसल, इस साल एक पुराना सबक याद आया है कि सारी बीमारी का सबसे बड़ा इलाज ख़र्च बढ़ाना ही है। 1970 के दशक में आई जिस मंदी की आशंका विश्व बैंक को सता रही है उसका इलाज इसी तरह खर्च में जोरदार बढ़त के साथ ही किया गया था। अब भारत को देखें तो पिछले साल के और उससे पहले के आंकड़े भी यह सवाल उठाते हैं कि आम आदमी का खर्च तो बढ़ रहा है, सरकार भी कुछ खर्च बढ़ा रही है, लेकिन बड़े उद्योगों को जितना निवेश करना चाहिए वो क्यों नहीं हो रहा है।

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सरकारी आँकड़े ही बता रहे हैं कि साल के शुरुआती नौ महीनों में औद्योगिक निवेश के प्रस्तावों में पच्चीस परसेंट की कमी आई है। और पिछले साल के मुक़ाबलों को देखा जाए तो निवेश की रकम में भी दस परसेंट की गिरावट है। अब अगर बाकी इकोनॉमी में कोरोना का असर खत्म होने के संकेत दिख रहे हैं और माहौल भी सुधर रहा है तो फिर यह आँकड़ा बढ़ने के बजाय कम होना चिंताजनक है। औद्योगिक निवेश को बढ़ावा देने के लिए बने विभाग डीपीआईआईटी के मुताबिक इस साल के पहले नौ महीनों में जो निवेश प्रस्ताव आए हैं वो तो 2020 के उस दौर से भी कम हैं जिसके बीच लॉकडाउन से सब कुछ ठप हो गया था। इन आंकड़ों को बारीकी से देखने पर और भी बहुत कुछ पढ़ा जा सकता है, लेकिन मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि महंगा ब्याज और अनिश्चित भविष्य अब भी बड़े कारोबारियों को हिम्मत दिखाने से रोक रहा है।

साल ख़त्म होते वक्त अगर कुछ झलकियाँ याद करनी हों तो इस साल अचानक बड़े हवाई अड्डों पर मची रेलमपेल भी भूली नहीं जा सकती। उससे निपटने का तरीका क्या नए हवाई अड्डे बनाना है या रेल और सड़क सुविधा को बेहतर करना?

बेरोजगारी पर हल्लागुल्ला शायद कम है लेकिन आँकड़े बता रहे हैं कि यह परेशानी बढ़ रही है। बीमारी और इलाज की समस्या इस साल भी न सिर्फ़ बरकरार है बल्कि ऑक्सफैम का कहना है कि महंगे इलाज की वजह से हर सेकंड दो लोग गरीबी की रेखा के नीचे जा रहे हैं। सालाना क़रीब छह करोड़ तीस लाख लोग। पिछले साल इस बात पर काफी पीठ ठोकी गई थी कि देश में यूनिकॉर्न यानी सौ करोड़ डॉलर से ज़्यादा हैसियत वाले उद्यमियों की गिनती तेज़ी से बढ़ी है, मगर इस साल उनमें से ज्यादातर की हालत खराब दिख रही है। जिन टेक कंपनियों ने शेयर बाज़ार में दस्तक दी थी उनके निवेशक और प्रोमोटर दोनों ही परेशानी में दिख रहे हैं। हालाँकि ऑक्सफैम का कहना है कि 2018 से 22 के बीच भारत में हर रोज़ औसतन 70 नए मिलियनेयर बन जाते हैं। (हालाँकि मिलियन का मतलब दस लाख होता है। लेकिन यहाँ मिलियन का अर्थ दस लाख डॉलर या क़रीब आठ करोड़ रुपए माना जाता है।) लेकिन इस साल क़रीब आठ हज़ार ऐसे डॉलर मिलियनेयरों के भारत छोड़कर जाने की बात गर्म रही और यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या पैसेवाले लोग देश छोड़कर भागते रहेंगे?

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और 2022 ख़त्म होते-होते एक बार फिर हमारे दौर की सबसे भयावह याद फिर डरावने सपने की तरह सामने आकर खड़ी है। चीन से कोरोना महामारी की खौफनाक ख़बरें आ रही हैं और उनके साथ खड़े हो रहे हैं सवाल देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था पर। इस लिहाज से भारत सचमुच एक दोराहे पर खड़ा है। चीन से आ रहा संकट भारत की अर्थव्यवस्था की परेशानी बढ़ाएगा, या उसके कारण से भारत के लिए नए मौक़े पैदा होंगे कि वो दुनिया भर के बड़े निवेशकों के सामने चीन के बेहतर विकल्प के तौर पर खड़ा हो सके। 2022 यह सवाल छोड़कर जा रहा है और 2023 पर ज़िम्मेदारी होगी इसका जवाब देने की।

(साभार - हिंदुस्तान) 

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आलोक जोशी
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