बिहार की सड़कों पर इस समय जो प्रकट हो रहा है वह केवल राहुल गांधी के प्रति समर्थन नहीं है! वे जो
हज़ारों-लाखों की संख्या में राहुल की जय-जयकार करते दिखाई दे रहे हैं वे हक़ीक़त में दिल्ली की सत्ता के ख़िलाफ़ अपनी उस नाराज़गी को ज़ुबान दे रहे हैं जो पिछले ग्यारह सालों से ख़ौफ़ के पहरों में क़ैद थी। सब्र का कोई बांध जैसे भर-भराकर टूट पड़ रहा हो! पहले जनता डरी हुई थी। अब हुकूमत डर रही है! डर सत्ता के नुमाइंदों की बौखलाहट में उनके चेहरों पर नज़र भी आ रहा है। प्रधानमंत्री का विपक्ष के प्रति कोप उस बौखलाहट की सामूहिक अभिव्यक्ति है।
बिहार में इस समय जो दिख रहा है वैसे दृश्य पचास साल पहले दिखते थे जब बिहार के छात्र आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में आह्वान करते नज़र आते थे ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है!’ उस समय लालू यादव जेपी के साथ थे आज उनके बेटे तेजस्वी राहुल के साथ हैं।
मोदी-राहुल की लोकप्रियता
सत्रह अगस्त से प्रारंभ हुई राहुल की सोलह दिनों की यात्रा की तुलना उन्हीं की उस दूसरी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा‘ से की जानी चाहिए जो सिर्फ़ डेढ़ साल पहले मकर संक्रांति के दिन मणिपुर के थोउबल से प्रारंभ होकर बिहार के इन्हीं इलाक़ों से गुजरी थी और जिसका बीस मार्च 2024 को मुंबई में समापन हुआ था। राहुल की उक्त यात्रा के लगभग ढाई महीने बाद ही मोदीजी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की थी। समय गवाह है कि सिर्फ़ सवा साल में दोनों की लोकप्रियता के बीच आकाश-पाताल का अंतर पैदा हो गया। जनता पूछने लगी है कि क्या मोदीजी वे ही हैं जिन्हें देश ने ग्यारह साल पहले पहली बार प्रधानमंत्री चुना था? क्या ये राहुल वे ही हैं जिन्हें सत्तारूढ़ दल ने षड्यंत्रपूर्वक ‘पप्पू’ घोषित कर दिया गया था?
राहुल की उस दूसरी यात्रा के दौरान जो भीड़ सड़कों पर उमड़ी थी और जो आज दिखाई पड़ रही है उसके संकेत यही हैं कि मोदीजी की लोकप्रियता उतनी कम हो गई है जितनी पिछले डेढ़ साल में राहुल की बढ़ गई है। अपनी पहली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में राहुल जिन-जिन रास्तों से होकर गुजरे थे, पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों में उन इलाक़ों में पड़ने वाली सीटों से कर्नाटक में बीजेपी और तेलंगाना में बीआरएस का सफ़ाया हो गया। दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बन गई।
राहुल की यात्रा को जबर्दस्त समर्थन
राहुल की यह ‘वोटर अधिकार यात्रा’ पटना में अपने समापन तक तेरह सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लेगी। इस यात्रा में राहुल बिहार के तेईस महत्वपूर्ण ज़िलों की पचास विधानसभा सीटों की जनता के साथ सीधे संपर्क में आने वाले हैं। बाबू जगजीवन राम के संसदीय क्षेत्र सासाराम से सत्रह अगस्त को प्रारंभ कर राहुल ने अब तक जिन भी इलाक़ों को पार किया है वहाँ-वहाँ विपक्षी महागठबंधन के प्रति समर्थन का तूफ़ान आ गया है।
राहुल-तेजस्वी की यात्रा महागठबंधन के प्रभाव-क्षेत्र के जिन प्रभावी इलाक़ों से गुजर रही है उनमें मगध, सीमांचल, मिथिला, तिरहुत और सारण शामिल हैं।
पिछले चुनाव में यात्रा-मार्ग के ज़िलों की पचास विधानसभा सीटों में से महागठबंधन को इक्कीस सीटें प्राप्त हुई थीं। इनमें राष्ट्रीय जनता दल को बारह और कांग्रेस को सात मिली थीं। राजद ने तेईस और कांग्रेस में बाईस पर चुनाव लड़ा था।
बिहार में चुनावी गणित
उल्लेखनीय यह है कि पिछले चुनाव में नीतीश के नेतृत्व वाले एनडीए को 125 और तेजस्वी के महागठबंधन को 110 सीटें हासिल हुईं थी। यानी फ़र्क़ ज़्यादा नहीं था। राहुल की यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले इलाक़ों में उच्च वर्ग के साथ-साथ एक बड़ी संख्या में पिछड़े वर्ग, अति पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यकों की आबादी निवास करती है। अधिकांश आबादी वही हो सकती है जिसे चुनाव आयोग द्वारा माँगे गए दस्तावेजों के अभाव में ड्राफ्ट मतदाता सूचियों से बाहर कर दिया गया था।
प्रधानमंत्री के पास राहुल की आँधी को रोकने का एक ही उपाय बचा है कि ‘अघोषित आपातकाल’ को घोषित आपातकाल में बदल दिया जाए। पर मोदीजी उस अवसर को चूक चुके हैं। लोकसभा में मोदीजी की मौजूदगी के दौरान जिस तरह के नारे उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आज़ाद भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।
संघ की शरण में जाने का क्या संकेत?
लालक़िले की प्राचीर से संघ की शरण में जाने की घोषणा संकेत है कि मोदीजी के नेतृत्व में पार्टी कितने गहरे संकट में फँस गई है! क्या संघ मोदीजी को ‘राहुल की दशा’ से मुक्ति दिलाने में मदद करेगा? राहुल की पहली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों (मई 2023) और फिर जून 2024 में मिले लोकसभा चुनावों के नतीजों में हुए बीजेपी के सफ़ाए के बाद भी क्या संघ अपने शताब्दी वर्ष में मोदी के नेतृत्व को लेकर कोई जोखिम लेने को तैयार हो जाएगा? भागवत को अनुमान होना चाहिए कि राहुल की यात्रा के बाद अगर संघ ने बिहार चुनावों के कोई हाथ डाला तो पराजय का ठीकरा उसके सिर पर फूटने वाला है! बिहार संघ के सपनों का महाराष्ट्र नहीं है! हक़ीक़त यही है कि राहुल को लेकर जितना भय बीजेपी में है उससे अधिक संघ में है!