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यूक्रेन युद्ध का जानवर कॉरपोरेट जगत के लोभ पर पलता है

(मशहूर पत्रकार प्रभु चावला का मानना है कि यूक्रेन युद्ध की आशंकाओं के पीछे हथियार बनाने-बेचने वाले, उनका व्यापार करने वाले और उनकी खरीद- बिक्री के लिए लॉबीइंग करने वाले लोग हैं। 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित लेख 'बीस्ट ऑफ़ यूक्रेन वॉर थ्राइव्स ऑन कॉरपोरेट ग्रीड' का अनुवाद पेश है।)
प्रभु चावला

यदि कूटनीति एक दूसरे तरह का युद्ध है तो युद्ध ग़ैरक़ानूनी तरीके से अरबों कमाने का ज़रिया है। जब कूटनीति नाकाम हो जाती है और देश युद्ध छेड़ देते हैं तो हथियार बेचने वाले, हथियार बनाने वाले और सरकार के साथ लॉबीइंग करने वाले तीसरे लोग अपनी काली ज़रायम दुनिया से बाहर निकलते हैं, युद्ध को नए रंग में रंगते हैं और अपनी तिजोरी भरने के लिए लोगों को मारने वाली मशीनें बेचते हैं। वे अरबों कमाते हैं और बदले में मुसीबत और मृत्यु देते हैं।

अब जबकि तालिबान अपनी बंदूकों और विचारों के साथ लौट आए हैं, काला बाज़ारी से खरीदे गए हथियारों से आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ी जाने वाली लड़ाई थम गई है। दुनिया का बहुत बड़ा हाइड्रा हथियारों की बिक्री में लगी लॉबी है, जिसकी पहुंच सरकारों, आतंकवादी गुटों, छापामार संगठनों, उनसे अलग हुए गुटों और पैसे के लिए लड़ने वाले गैंग तक है।

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और, इनके प्रमोटर वे राज्य ही हैं, जो रोज़ाना कसमें खा कर कहते हैं कि धंधा करना उनका धंधा नहीं है। रूस-यूक्रेन विवाद, जिसकी वजह से 1939 के बाद पहली बार यूरोप युद्ध के मुहाने पर पहुँच गया है,  हथियारों के व्यापार को अपने हिसाब से चलाने की कपटपूर्ण चाल है। हथियारों और ख़तरनाक प्रौद्योगिकी की मांग पैदा करने के लिए उत्पादन बढ़ाया गया। इसमें रूस और अमेरिका की अगुआई में नेटो है, जिसकी स्थापना ही सोवियत संघ से रक्षा के लिए की गई थी। नेटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन यूरोप के किसी ज़माने में शत्रु रहे देश और सोवियत संघ के पूर्व पिट्ठू देश हैं। नेटो के ज़्यादातर सदस्य देश वे हैं, जिनके यहां बड़े-बड़े कॉरपोरेशन हैं जो हथियार बना कर उन देशों को निर्यात करते हैं जिन्होंने कभी कोई लड़ाई नहीं लड़ी और इसकी कोई संभावना भी नहीं है कि वे ऐसा करने वाले हैं। लड़ाई से भौगोलिक सीमाएं बदल जाती हैं और युद्ध के साम्राज्य का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है।

हालाँकि चीन ने बारूद की खोज की थी, मार्को पोलो जैसे पश्चिम के लोग इसे बाहर ले गए। दुनिया में हथियारों का पहला अंतरराष्ट्रीय व्यापार उस समय हुआ था, जब यूरोप के औपनिवेशिक साम्राज्यों ने अलग-अलग देशों में मूल निवासियों से युद्ध किया था। युद्ध की अर्थव्यवस्था के फलने- फूलने के पीछे मुख्य रूप से पूरी दुनिया में रक्षा पर बढ़ता हुआ ख़र्च है, जो ब्लैकवॉटर जैसी पैसे लेकर लड़ने वाली कंपनियों और सीआईए की चालबाजियों की वजह से बढ़ गई हैं, जिनकी नज़र अफ्रीका और लातिन अमेरिका के प्राकृतिक संसाधनों पर हैं।

दुनिया की कुल कमाई के हर सौ डॉलर में से लगभग तीन डॉलर सेना पर खर्च होता है। कोरोना महामारी के पहले साल दुनिया का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वृद्धि दर 4.4 प्रतिशत घटने के बावजूद इन देशों ने सेना पर 2,000 अरब डॉलर ख़र्च किए हैं। यह इसके पिछले साल से लगभग 2.6 प्रतिशत ज़्यादा है। रक्षा बजट में साल 2009 के बाद यह सबसे बड़ी बढ़ोतरी थी। स्टॉकहोम स्थित इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीच्यूट (एसआईपीआरआई)  के अनुसार, अमेरिका और चीन के बाद रक्षा पर सबसे ज़्यादा खर्च करने वाला तीसरा देश भारत है।

भारत चीन और पाकिस्तान के साथ अघोषित शीत युद्ध में लगातार उलझा रहा है, हालाँकि कारगिल के बाद से कोई लड़ाई नहीं हुई है। इसके बावजूद इसका रक्षा बजट 2016 के 56 अरब डॉलर से बढ़ कर 75 अरब डॉलर हो गया।

पूरी दुनिया में सेना पर जितना खर्च होता है, उसका लगभग 39 प्रतिशत अकेले अमेरिका खर्च करता है, चीन 13 प्रतिशत और भारत 3.7 प्रतिशत ख़र्च करता है।

लेकिन एसपीआरआई ने कुछ दूसरे रोचक खुलासे भी किए हैं। पिछले एक दशक में एशिया के देशों ने हथियारों की खरीद पर पहले से 50 प्रतिशत अधिक ख़र्च किए हैं। इस दौरान भारत और चीन के रक्षा बजट में 62 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि अमेरिका के रक्षा बजट में 10 प्रतिशत की गिरावट आई। इस दौरान एशिया का कोई भी देश युद्ध में नहीं उलझा।

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खाड़ी के देशों ने हथियारों की खरीद पर सौ अरब डॉलर ख़र्च किए। सऊदी हथियारों से अच्छी तरह से लैस हूथी विद्रोहियों से लड़ाई में फंसा हुआ है, यह अनुमान आसानी से लगाया जा लगाया जा सकता है कि उसे ये हथियार कहां से मिले, दुनिया में सबसे ज़्यादा 11 प्रतिशत हथियार इसी ने खरीदे हैं। रियाद को लगभग 70 प्रतिशत हथियार अमेरिका से मिले, इज़रायल ने 92 प्रतिशत और जापान ने 95 प्रतिशत हथियार अमेरिका से ही खरीदे।

रक्षा खर्च में होने वाली इस अप्राकृतिक बढ़ोतरी के पीछे सैद्धांतिक और आर्थिक विरोधियों के बीच वास्तविक युद्ध वैसा कारण नही है जैसा विक्टर बाउट जैसे मौत के सौदागरों की भूमिका है। बाउट को दुनिया का सबसे बड़ा हथियार व्यापारी समझा जाता है। अमेरिका में उन्हें 2012 में 25 साल की जेल की सज़ा हुई। बाउट ने अफ्रीकी देशों को सोवियत ज़माने के हथियार और लड़ाई में काम आने वाले हवाई जहाज़ बेचे। संयुक्त राष्ट्र के काग़ज़ात से पता चलता है कि उन्होंने लाइबेरिया के ख़ूनी तानाशाह चार्ल्स टेलर को हथियार दिए और बदले में हीरे लिए। उन्होंने अंगोला गृह युद्ध के दोनों पक्षों को हथियार बेचे और उत्तरी अफ्रीका के युद्ध करने वाले गुटों के लोगों को भी हथियार दिए, जिन्होंने वहाँ नरसंहार किए। पिछले दो दशकों के दौरान होने वाली सभी लड़ाइयों में बाउट के पदचिह्न मिलते हैं। उनका जीवन इतना उथल-पुथल भरा रहा कि 2005 में बनी फ़िल्म 'लॉर्ड ऑफ़ वॉर' उनके जीवन पर ही आधारित है।

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लॉर्ड ऑफ़ वार फिल्म का पोस्टर

बाउट युद्ध पर आधारित उद्यमिता के उदाहरण हैं, जिनका सालाना अंतरराष्ट्रीय कारोबार बहुत ही ज़्यादा है। दुनिया के हथियारों के सौ ठेकेदारों का सालाना कारोबार 400 अरब डॉलर है, एक दशक से कम समय में इसमें 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इनमें से पांच अमेरिका में हैं और पूरी दुनिया में हथियारों की होने वाली बिक्री के 60 प्रतिशत हिस्से से जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, लॉकहीड मार्टिन, बोइंग, रेथियॉन, जनरल डायनामिक्स और सीएसीआई इंटरनेशनल के कुल कारोबार का आधा से ज़्यादा हथियारों और सेना से जुड़े कलपुर्जों की बिक्री से ही होता है। इसी तरह फ्रांस के दसॉ, नेवल ग्रुप और सफ्रां, यूरोपीय संघ के एमबीडीए और एअरबस, इटली के लियोनार्डो, ब्रिटेन के रॉल्स रॉयस और बीएई सिस्टम्स, स्वीडन के सा'ब और रूस के यूनाइटेड शिपबिल्डिंग कॉरपोरेशन दुनिया भर के सरकारों की एजंसियों को हथियार बेच कर ही फलते-फूलते हैं। उन्नीसवीं सदी से ही अफ्रीका और एशिया के देशों में हथियारों की बिक्री को राजनीतिक और आर्थिक हथियार बनाया जाता रहा है ताकि जिन देशों में विकसित देशों के राष्ट्रीय और उनकी कंपनियों के हित हैं, वहां के सत्ता संतुलन को नियंत्रित किया जा सके।

तीसरी दुनिया में हथियारों की बिक्री का विस्फोट 1978 से 1985 के बीच हुआ, जब इन देशों ने 258 अरब डॉलर के हथियार खरीदे थे।

ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के मुताबिक,  इनमें 13,960 टैंक और स्वचालित हथियार, 27,605 हथियारों से लैस बख़्तरबंद गाड़ियाँ, 4,005 सुपरसोनिक हवाई जहाज़ और 34,948 ज़मीन से आकाश में मार करने वाली मिसाइलें शामिल थीं।

यह साफ़ है कि लंबे समय तक टिकी रहने वाली शांति हथियारों के इन सौदागरों और सरकार के साथ लॉबीइंग करने वालों के लिए अच्छी बात नहीं है। यदि अमेरिका और यूरोप के ये नेता रूस के साथ बंदूकों की लड़ाई के बदले वाकयुद्ध में लगे हुए हैं तो अगला स्वाभाविक सवाल यह है, "क्या इस तरह के शोरगुल के बाद ये देश तुरन्त और भविष्य में होने वाले युद्धों के लिए हथियारों के ऑर्डर देंगे या यह सिर्फ संयोग है कि पश्चिम के देशों को लगता है कि यूक्रेन पर हमला अवश्यंभावी है?" अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने तो लड़ाई छिड़ने की तारीख और समय तक बता दिया, दोनों ही ग़लत निकले। तीस देशों का संगठन यूरोपीय संघ पूरी ताक़त लगा कर अमेरिका की चिंता को बढ़ा चढ़ा कर बता रहा है। रूस और पश्चिमी देश, दोनों के लिए ही, यह अपने बाज़ार को बढ़ाने और हथियारों की खरीद और उसके इस्तेमाल का मामला है।

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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय युद्ध नहीं हुआ है। लेकिन लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने के बजाय युद्ध की भविष्यवाणी करने और युद्ध का उन्माद पैदा करने पर अधिक समय और पैसा खर्च किया गया। ऐसा कहा जाता है कि अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिम एशिया में लोकतंत्र की रक्षाा के लिए खरबों डॉलर बर्बाद किए। अफ़ग़ानिस्तान से यह शर्मनाक ढंग से लौट गया, जाते जाते अत्याधुनिक हथियार और लड़ाकू हवाई जहाज़ उन लोगों के लिए ही छोड़ गया जिन्हें वह ख़त्म करना चाहता था।

युद्ध और सामूहिक संहार के तरीकों को उन्नत करना बहुत ही फ़ायदे का धंधा है। निजी सुरक्षा कंपनियां युद्ध के दिग्गजों को आतंकवादियों और छोटी सरकारों से लड़ने के लिए नौकरी पर रखती हैं। कभी कभी आतंकवादी गुट भी पैसे के लिए लड़ने वालों को रखते हैं, जैसाकि सीरिया में देखा गया। शोधकर्ताओं ने निजी सैन्य व सुरक्षा कंपनियों के बनाए अदृष्य सेनाओं के नाम बताए हैं। हालाँकि उनकी संख्या और कमाई पर रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है, इन निजी सेनाओं का कारोबार 200 अरब डॉलर से ज़्यादा का है, जिसमें 500 छोटी और बड़ी कंपनियां हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका ने इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में एक लाख से ज़्यादा निजी सैनिकों को तैनात किया था। अमेरिका ने 2011 में निजी सैन्य व सुरक्षा कंपनियों की सेवाएं लेने पर 120 अरब डॉलर खर्च किए।

ऐसा लगता है कि आतंकवादियों को महंगे हथियार मुहैया कराए जाते हैं जब सीमा पर बने चेक पोस्ट पर तैनात सैनिक सो जाते हैं, या दारू के नशे में होते हैं, या उन्हें घूस दी जाती है या तीनों ही बातें एक साथ होती हैं। युद्ध ऐसा धंधा है, जो कभी मंदा नहीं होता है।

('द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' से साभार)

(अनुवाद - प्रमोद कुमार) 

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